हवा तीजी से चल रही थी। वैसे भी हवाएँ तीजी से चलती हैं तो बवंडर आते हैं। दूर से ही रेगिस्तान में गुबार उठते हुए आ रहे थे। रह-रहकर वे तपती धरती को ढक जाते। और जब मौसम साफ होता तो एक धूल मिश्रित खामोशी सब तरफ छिटक जाती। ऐसी ही एक शाम बसंती अपनी कुयिा के बाहर बैठी थी और खाली बर्तनों को इधर से उधर घुमा रही थी। हवा के झोकों और बर्तनों की टनटनाहट का स्वर उस उदास शाम को एक संगीत का रूप दिए जा रहे थे। बसंती अपनी जगह से उठकर उस स्थान पर गई जहाँ उसकी एकमात्र फटी-पुरानी साड़ी फैली हुई थी। हवा का तीज बहाव आने के पहले वह उसको समेटकर अन्दर रख देना चाहती थी।
और ये क्या! पता नहीं कहाँ से हवा का एक तीज झोंका आया और उसका वस्त्र हवा के साथ उड़ता चला जा रहा था और वह उसके पीछे-पीछे भागी चली जा रही थी। वह भागकर साड़ी को पकड़ना चाहती थी। और पकड़ भी लिया था पर उसका पैर एक पत्थर पर पड़ा, वह गिरी और साड़ी का जो कोना उसके हाथ में था वह छूट गया। वह बदरंग-सी साड़ी अपनी पूरी विदू्रपता से मुँह चिढ़ाते हुए हवा के झोंकों के साथ अनन्त में विलीन हो गयी।
वह काफी देर तक बैठकर अपनी विलोप होती साड़ी को देखती रही। शायद उसको साड़ी के उड़ जाने का इतना दुख नहीं था। वह फटी-पुरानी साड़ी भला कौन-सा तन ढ़क पाती थी। अच्छा हुआ उड़ गयी। उसे नई साड़ी पहनने का नसीब प्राप्त होगा। कैसे प्राप्त होगा? उसी सोच में डूब गई। हवाएँ अभी भी पूरे वेग से चल रही थीं। उनका वेग थर्रा देने वाला था। पर वह इन सबसे बेखबर
अपनी ही चिन्ता में डूबी हुई थी। पीछे अभी भी खाली बर्तन टनटना रहे थे। उसके बच्चे इन सबसे बेखबर अन्दर सो रहे थे।
उसकी चिन्ता काली रात से भी अधिक स्याह थी। वह उसी में आकण्ठ डूबी काली स्याह रात के आगमन से बेखबर थी। खबर तो तब हुई जब अन्धकार पूर्णरूपेण अपना पैर धरा पर पसार चुका था। चारों तरफ स्तब्धता फैल चुकी थी। वह सोच-सोचकर हताशा के भँवर में फँस ही जाती अगर दूर क्षितिज पर आशा की पहली किरण के आगमन का उसको अहसास न हुआ होता।
हाँ उसने सुन रखा था कि दूर देश के पहाड़ों के उस पार बढ़िया और अच्छी साड़िया बिकती हैं। शायद उसकी साड़ी भी वहीं कहीं उड़कर चली गयी हो। वह उसको भी ढूँढेगी और उस देश से नयी साड़ियाँ भी खरीद ले आयेगी। उसके जो अधनंगे बच्चे हैं, उनके तन को ढकने के लिए भी कपड़े मिलते हैं। ऐसा उसने सुन रखा था। भोर होने को थी। वह उनींदी आँखों से अपने बच्चों को देखकर दूर देश की पहाड़ियों की ओर चल पड़ी जहाँ कई किस्म के सुन्दर वस्त्र थे। इन रंगीन कल्पनाओं से तो उसने तत्काल अपने मन को सुख पहुँचाया परन्तु उसकी कल्पनाएँ साकार कैसे होंगी ? कारण रूपयों का अभाव था।
अर्थाभाव का अहसास होते ही उसकी कल्पनाओं का महल क्षण में ढह जाता था और वह निराश और उदास हो जाती थी। वह नदी-नाले को पार करती हुई एक शहर में आ गयी।
यह शहर बहुत ही अजीब था। क्रमबद्ध तरीके से इमारत खड़ी थीं। इमारतों की क्रमबद्धता कौतूहल और भय पैदा करती थी। साफ-सुथरी चमचमाती सड़कें थीं, उसने ऐसी सड़कें अपने जीवन में कभी नहीं देखी थीं। उसके गाँव में तो सड़क का नामोनिशान भी न था और जो पगडंडी थी वे भी वहाँ आते और जाते हुए भँवर के इशारों पर बनतीऔर बिगड़ती रहती थी। वह सीधी चमकदार सड़क
पर चलती गई। उसका मन भयाक्रांत था। ऐसे अनजान शहर में उसको दिशानिर्देश देने वाला कोई नहीं था। एक इमारत से दो लोगों को निकलते देखकर उसने थोड़ी राहत की साँस ली। पर जो लोग बाहर निकले थे वे तो तन पर वस्त्र ही नहीं डाले हुए थें। एक अजीब प्रकार की जालीदार पोशाक उन्होंने पहन रखी थी। उनके पास जाने से भी वह सिहर उठी। उन्हें देखकर उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो सीमेंट की इमारतों में लोहे के लोग बसते हों। नहीं, उसने शायद एक मनुष्य की आँख में कुछ हलचल महसूस की थी। संभावित है कि शायद उसको देखकर एक आँख झपकी भी थी। शायद उन सूनी आँखों ने उसको पहचानने का प्रयास भी किया था। बसन्ती ने अपने लाजवश अपने तन को फटे-पुराने कपड़ों से ढकने का प्रयास किया पर-व्यर्थ। उन आँखों में संवेदनाएँ आकर वापस चली गईं। नहीं, जिन आँखों में संवेदनाएँ जागी थी, वह तो स्त्री के ही नयन थे। हाँ कुछ-कुछ स्त्री जैसी प्रतीत हो रही थी। तभी तो शायद उसका दिल बसन्ती के लिए धड़का होगा। पर बदलते वक्त ने शहर की औरत को भी बदल दिया था। उनके अन्दर की संवेदनाओं और भावनाओं को पाषाण सदृश कर दिया था। खैर ये सब गुजरे जमाने की बात थी। उस पर चिंतन व्यर्थ था। वैसे भी वह शहर भावनाएँ एकत्रित करने नहीं आयी थी, उसकी तो समस्या कुछ और ही थी।
शहर में कहीं दुकानें न देखकर वह सोचने लगी- ’बड़ा ही अजीब शहर है, यहाँ तो सारे बाजार में ही वस्त्र नहीं मिल रहा। फिर स्त्रियाँ अपना तन ढकती कैसे होंगी!’’ वह विस्मित-सी खाली पड़े पूरे बाजार में घूमती रही। शहर का नयापन उसके मन में एक विस्मय भर रहा था। अनिश्चित-सी वह घूमती रही। निरूद्देश्य वह भटकती रही। आगे बढ़ने पर उसने अपने विचारों को नियंत्रित किया और उद्देश्यों को चिन्हित। वह यहाँ व्यर्थ नहीं आई है। उसे भी कुछ करना है। और ये विचार मन में आते ही नेत्रों में चमक लौट आयी और चेहरे पर तीज।
जब जीवन में कोई उद्देश्य आ जाता है, चाहे वह कितना भी छोटा हो, तो इंसान दुगने उत्साह से जीवन को जीने लगता है। पर इस विरानगी में जाये तो कहाँ जाये? तभी आगे बढ़ने पर उसे एक जगह एक इमारत बनती नजर आयी। वहाँ कुछ हलचल थी। कुछ लोग भी नजर आ रहे थे। वह उसी तरफ बढ़ गयी।
वाकई एक भवन बन रहा था। भवन क्या मंदिर था। उसी का भूमि-पूजन हो रहा था। विशाल मंदिर की नींव रखी जा रही थी। औरतें भी इस पुनीत कार्य में जुटी हुई थीं। पर उसने गहन आश्चर्य से देखा कि औरतों के तन धूल और मिट्टी से सने हुए थें। दूर खड़ा एक चुस्त-दुरूस्त आदमी आँखों पर चश्मा पहने पारदर्शी वस्त्रों में ढका पूरे काम का मुआयना कर रहा था। हिम्मत बटोरकर वह आगे बढ़ी। अपनी रामकहानी कहकर उसने काम की गुहार लगाई। उस व्यक्ति ने बसंती को ऊपर से नीचे तक सरसरी निगाहों से देखा और एक फीकी हँसी हँस दिया।
’’कल से काम पर आ जाना।’’
सूरज ढल चुका था। वह उसी मंदिर के अहाते में रात बिताने के विचार से ईंटों के ढेर के पास बैठ गई। उसके तन पर फटे-चिटे कपड़े थे। हवाओं का झोंका उसे बेपर्दा कर देना चाहता था। उरोजों को एक झीनी पारदर्शी साड़ी का आवरण पहना वह निश्चित हो निद्रा की गोद में सो गयी। निद्रा के आगोश में थकान को उतारकर वह कल की मेहनत के लिए पूरी तरह तत्पर हो गयी।
दूसरे दिन प्रातः मर्दों और औरतों की भीड़ का वह हिस्सा बन गयी। उन्हीं औरतों के साथ वह भी काम करने लगी। जब मंदिर बनते काफी दिन बीत गए तो एक दिन उसने कान्ट्रेक्टर से अपने काम का हिसाब माँगा। कान्ट्रेक्टर ने शाम को आकर हिसाब चुकता कर देने का वचन दिया। शाम ढलते ही पैसे लेने के लिए वह कान्ट्रेक्टर साहब के बंगले पर पहुँच गई। आज उसके उद्देश्य की पूर्ति का पुर्नात दिन था। उसकी खुशी का पारावार न रहा।
संयोग से कान्ट्रेक्टर साहब उसकी मजूरी का हि हिसाब निकाल रहे थे। हिसाब में तो उसको मजबूत होना ही चाहिए था।
’’क्या हुआ साहब?’’ जब इस औरत से रहा न गया तो थोड़ा सहमकर बोली।
’’समझ में नहीं आ रहा कि तुम्हारा हिसाब कहाँ गड़बड़ा रहा है। बात यह भी है कि मंदिर निर्माण हेतु तुम्हें भी कुछ दान करना होगा।’’ कान्ट्रेक्टर काफी देर सोचता रहा। उसके चेहरे के भावों को पढ़ पाना आसान न था।
बसन्ती को एक झटका लगा। वह और दान... फिर पहले तो वह विस्मित हो ठेकेदार को देखती रही। उसे लगा कि ठेकेदार उसकी गरीबी देख उसका मजाक उड़ा रहे हैं। फिर वह जोर-जोर से हँसने लगी। उसकी हँसी थमने का नाम ही न ले रही थी। ऐसा उसके जीवन में कभी नहीं हुआ था जब उस गरीब से किसी ने दान माँगा हो। जब हँसी थमी तो भी ठेकेदार साहब के चेहरे पर दृढ़ता और स्पष्टता का भाव था और आँखों में एक खोज। उसको आर-पार देख सकने की जीत। उस पर एक पूर्ण एकाधिकार और वह काँप उठी। हँसी भी ठहर गयी और जोश थम गया। वह एक कोने में बैठकर गहन सोच में डूब गयी। वह हार गयी थी....। हारकर भी उसकी समझ में यह बात आ गयी कि मंदिर में लगी औरतें क्यों धूल से अपने तनों को ढके कार्य में लिप्त थीं। ये उनका मंदिर निर्माण के कार्य में छोटा-सा मूल्य था या फिर पेट की आग के आगे एक छोटी-सी भेंट....
उसे भी तो गाँव वापस जाना है और जल्दी....
इसी विचार-विमर्श के बीच एक काले भुजंग व्यक्ति ने कमरे में प्रवेश किया। उसके शरीर का रंग उस काली रात के रंग से भी स्याह था। अगर उसकी आँखों में एक अजीब-सी लाल चमक न होती तो उसको परिवेश से अलग कर पाना असंभव था। उस कृत्रिम चमक ने उसको एक चेहरा दिया था क्योंकि उसका शरीर तो नग्न था। हमाम में सब नंगे ही थे।
बसंती को बातचीत के क्रम में पता चला कि यह व्यक्ति इस इलाके का बड़ा नेता है और इसी की देखरेख में यहाँ पर काम हो रहा है। मंदिर के नाम पर ये वोट का अपना प्रयोजन सिद्ध कर रहा है। उसने संयत स्वर में पूछा कि ’’इस मंदिर की नींव डालने में कितने शरीरों का प्रयोग हुआ है।’’ ठेकेदार अदब से बोला कि निर्माण कार्य में जितनी ईंटें लगीं उतने ही इन्सान। इसलिए मंदिर अब सिद्ध बनेगा क्योंकि इन्सानों ने नीचे बिछकर जगह को जाग्रत कर दिया है।
उसके वचन सुन नेता टाइप आदमी स्वाभाविक रूप से हँसा। पहली बार इस औरत ने इस शहर में ओंठों पर हँसी देखी थी। नहीं तो बेजान आदमियों को देख-देखकर वह भी शून्य में प्रवेश कर रही थी। उसके अन्दर की भावना भी मरने लगी थी।
अब बातों का केन्द्र बिन्दु मंदिर निर्माण न होकर उस औरत के निर्वाण पर आकर टिक गया। नेता तो नेता होता है। उसके पास तो हर समस्या का हल है..... क्यों-शायद सबसे बड़ी समस्या तो स्वयं वह ही होता है। कुछ भी हो नेता तो नेता ही होता है। इसीलिए आम और अवाम ने सोच का ही सर्वथा त्याग कर दिया है। क्या फायदा नाहक सोचने का। सोचने का बीड़ा तो नेताजी टाइप लोागें ने अपने ऊपर ले लिया था। अधिक दिमाग का इस्तेमाल....
पौ फटने वाली थी। प्रातःकाल का प्रवेश होने वाला था और नये दिवस की शुरूआत। उस प्रभात की ज्योति के साथ नेताजी को एक हल मिल ही गया। औरत को उसकी साड़ी का एक हिस्सा कान्ट्रेक्टर को देना होगा, बतौर मुआवजा। निर्णय ले लेने की खुशी नेता के चेहरे पर थी। आत्मज्ञान का गौरव मस्तक का तीज होंठों की मुस्कराहट बन उभर रहा था। इसमें भी एक समस्या थी। साड़ी का कौन-सा हिस्सा उनको अर्पित होगा। तत्काल निर्णय आँचल पर आकर टिक गया।
वह औरत इस बात पर अड़ गयी। नहीं वह आँचल का भाग नहीं दे सकती। आँचल तो उसके बच्चों का दूध ढकता था। तो देने लायक हिस्से पर विचार हुआ और बात आकर साड़ी के अग्र भाग पर ठहर गयी। औरत ने मस्तक नीचे कर बात मान ली और उस हिस्से को भेंट स्वरूप दे आगे बढ़ गयी।
इस विराट शहर में एक आसरा था वह भी गया। वह मंदिर के दर बैठ गयी। प्रभातकाल में अंजलि भर पानी में स्नान करके पुजारी आ रहे थे। एक औरत को यूँ बैठा देख वह ठहरे।
’’क्या हुआ! तुम कौन हो?
’’मैं यहाँ साड़ी की तलाश में आयी, एक अभागिन हूँ।’’
पुजारी थोड़ा देर उसकी तरफ देखते रहे। फिर मंदिर के अन्दर गये और एक गीता लाकर उसके हाथ में दे दी। उसको समझाते हुए बोले, ’’द्वापर युग में जब द्रौपदी को भरी सभा में चीर की आवश्यकता पड़ी थी उसने श्रीकृष्ण को पुकारा था। लो यह गीता तुम्हारी मदद करेगी।’’
गीता को हाथ में पकड़े वह काफी देर बैठी रही। उसको उम्मीद थी कि शायद उस पुस्तक को पकड़ने मात्र से कुछ ईश कृपा होगी और उसके अन्दर से चीर अवतरित होगा। वह काफी देर बैठी रही और कुछ विशेष न होते देख वह पुस्तक को पकड़कर सड़क पर चीर की तलाश में आग बढ़ गयी। अभी वह थोड़ा आगे निकली ही थी कि पीछे से कुछ तीज स्वर ध्वनित हुए-
’’पकड़ो-पकड़ो। चोर....चोर...!’’
इससे पहले कि वह औरत कुछ सँभल पाती भीड़ उसको ढकेलती हुई आगे ले गयी और थोड़ी दूर ले जाकर छोड़ दिया। पुस्तक अब भी उसके हाथ में थी और एक दारोगा उसके सामने आकर खड़ा हो गया। उसने सब लोगों से भिन्न प्रकार की पोशाक पहनी हुई थी। सफेद रंग की पोशाक में काले धब्बे थे।
धब्बे इतने ज्यादा थे कि सफेद रंग अदृश्य समान हो गया था। फिर भी कहीं-कहीं से उभरकर दिखने जैसा प्रतीत हो रहा था। पेट के ऊपर का हिस्सा पूर्ण रूपेण सफेद था पर हृदय स्थान पर काले धब्बे स्पष्ट थे।
’’क्यों चोरी की है। वह भी गीता की? हमारी गीता की चोरी करने का दंड तुम जानती हो क्या है? वह सजिल्द किताब है। हम लोग इसको इतना पवित्र मानते हैं कि इसका पठन नहीं करते हैं। इसको सिर्फ पवित्र अलमारी में गंगाजल से पवित्र कर, ताले में रखते हैं। इसकी चाभी सिर्फ यहाँ के पुजारी के पास रहती है और साल में एक दिन इसके दर्शन के रखा गया है। उस दिन यहाँ ढेर उत्सव होते हैं। और तुमने उस गीता को उठाकर सीने से लगाने की जुर्रत की। इसकी सजा तुम जानती हो!’’
बतौर सजा उसको जेलखाने में डाल दिया गया। उससे पवित्र सजिल्द गीता लेकर वापस अलमारी में बंद कर दी गयी। दोपहर होने पर उसको जेलखाने के बाहर लाया गया और दारोगा ने उससे प्रश्न पूछना शुरू किया।
’’तुमको सुबह से बंधक रखना तो हमको भारी पड़ रहा है। तुमको एक रोटी जो सुबह खाने के लिए दी गयी थी उसका इंतजाम हम लोग कहाँ से करेंगे?’’
हाँ सुबह एक रोटी तो उसको मिली थी। पर उसका एक टुकड़ा खाने के बाद उसे अपने बच्चों की याद हो आयी। उसने उस रोटी को अपने आँचल के कोने में कसकर बाँध लिया था। जिससे किसी की भी निगाह उस रोटी पर न पड़े। यहाँ से निकलकर ये रोटी वह अपने बच्चों के लिए ले जायेगी-
उसने निगाह नीचे कर ली। दारोगा के सफेद पेट पर अब भी उसकी दृष्टि पड़ रही थी। दारोगा ने उस तरफ इशारा करके आदेश दिया।
’’ये कैसे भरेगा ?’’
नहीं वह रोटी नहीं दे सकती। इस रोटी के असंख्य टुकड़े अनगिनत दिन तक उसके बच्चों का पेट भरेंगे।
’’तो ठीक है साड़ी का एक टुकड़ा उसका मूल्य चुका देगा।’’
वह राजी हो गयी। स्वतंत्रता के लिए ये घाटे का सौदा न था। बात फिर इस पर आकर टिक गयी। स्वतंत्रता के लिए ये घाटे का सौदा न था। बात फिर इस पर आकर टिक गयी कि कौन-सा हिस्सा उनको दान स्वरूप दिया जाये। बात मध्यम भाग पर तय हो गयी। वह सहर्ष तैयार हो गयी। अब सिर्फ उसके पास आँचल बचा था। उस भाग को लेकर उसमें रोटी को कस के बाँधकर वह थाने से बाहर आ गयी। खुली हवा में उसने काफी समय के बाद पहली बार साँस ली थी। इस शहर में उसे एक बात अच्छी लगी कि कभी उसने यहाँ हवा का बवंडर चलते न देखा था। हवा हमेशा शान्त बहती थी। उसकी गति भी शायद तय और नियंत्रित थी।
वह अभी शहर की परिधि पर पहुँचा ही थी कि इस शहर के एक नौजवान से उसकी भेंट हुई। अभी-अभी यौवन पर उसने कदम ही रखा था। इस शहर में पहली बार उसे श्वेत वस्त्र में कोई व्यक्ति दिखा था। इसका चेहरा भी लुप्त हो रही आदिम जाति जैसा था। कुछ-कुछ शक्ल पहचान में आ रही थी। ये शायद कोई लुप्तप्राय जीव का अवशेष था। उसके अन्दर संवेदनाएँ भी थीं। उसने पहल की-
’’चलिए मैं आपको आपके गाँव छोड़ देता हूँ। रास्ते में एक नई साड़ी भी ले दूँगा।’’
वह उसके साथ हो चली। अफसोस शहर की परिधि के बाहर अभी उसने अपना चरण निकाला ही था कि कुछेक युवकों ने उसको रोक लिया।
’’ये हमारे शहर का नियम नहीं है।’’
’’क्या नियम नहीं है?’’
’’यही कि इस शहर का कोई भी युवक दूसरे शहर की युवती के साथ शहर की सीमाओं को पार करे। इसके लिए तुम दोनों को दंड मिलेगा। हमारे साथ तुमको न्यायाधीश के सम्मुख उपस्थित होना पड़ेगा।’’
बसंती को उस युवक के साथ न्यायाधीश के सम्मुख उपस्थित किया गया। एक खाली कुर्सी के पीछे एक औरत की मूर्ति थी। उस श्वेत मूर्ति की आँखें काली पट्टी से बंद थीं। हाथ में एक तराजू था जिसका एक पलड़ा नीचे और एक ऊपर था।
न्याय शुरू हुआ। इस शहर का न्यायाधीश अदृश्य व्यक्ति था। उसकी सिर्फ आवाज सुनायी देती थी। वह दिखायी नहीं देता था।
’’ हाँ क्या है मामला? न्याय की प्रक्रिया शुरू की जाय।’’
’’जी ये इस शहर के एक युवक के साथ शहर की सीमा पार कर रही थी। यही जुर्म किया है इसने।’’
’’नहीं, मैंने जुर्म नहीं किया है। इस युवक ने मेरे आगे पेशकश की थी कि यह मुझे गाँव छोड़ आयेगा। वहाँ मेरे बच्चे भूखें हैं। मैं उनके लिए रोटी लेकर जा रही थी।’’
’’पाप, तब तो तुमने महापाप किया है। शहर की रोटी गाँव लेकर जा रही थी। तुमको दंड मिलेगा। युवक की गलती भी नहीं है। जरूर एक स्त्री होकर तुमने उसको पथ-भ्रमित किया हागा। कोई पुरूष इतना साहसिक कदम उठा ही नहीं सकता है अगर स्त्री उसको न उकसाये।’’
थोड़ी देर सभा-कक्ष में मौन रहा। सब न्याय की आवाज सुनना चाहते थे। न्यायाधीश अदृश्य था पर उसकी आवाज में दम था। कोई उसको काटने की जुर्रत नहीं कर सकता था।
उसकी आवाज गूँजी, ’’पहला जुर्म जो कि युवक के शहर की सीमाओं का उल्लंघन करने का है उसके एवज में यह सजा है कि ये इस मूर्ति वाली औरत के हाथ का तराजू बराबर करेगी। जब तक तराजू के दोनों पलड़े बराबर नहीं हो जाते यह इस शहर को नहीं छोड़ सकती। दूसरा पाप जो शहर की रोटी गाँव ले जाने का इसने किया है उसकी सजा ये है कि ये आँचल सहित रोटी यहाँ न्यायालय में जमा कर देगी। इसके आँचल समेत रोटी जब्त की जाती है। न्याय खत्म हुआ। न्यायालय निरस्त।’’
वह औरत मूर्ति वाली औरत की बंद आँखों पर खुले हाथ में झूल रहे तराजू को बराबर करने में लग गयी। कभी एक पलड़ा नीचे आ जाता तो कभी दूसरा। वह पूरा दिन पूरी रात और दूसरे पूरे दिन कोशिश करती रही। जब तराजू को बराबरी पर न ला सकी तो थककर बैठ गयी। रात घिरने को आ रही थी। अचानक जो बंवडर वह गाँव में छोड़ आयी थी वह शहर में चलने लगा। लोग अनायास बिगड़ गये मौसम के मिजाज से भयभीत हो गये। अफरातफरी मच गयी। उसी मगदड. में वह औरत सब लोगों की निगाह बचाकर शहर की सीमा पार कर गयी। वैसे भी अब वह शहर की अन्य औरतों से भिन्न न थी। उनसे बचने की भी जरूरत न थी। आँचल न्यायालय में जब्त हो जाने के बाद वह शहरी ही प्रतीत हो रही थी।
वह गाँव की तरफ भागने लगी। उसको कितना वक्त लग गया इसका उसे ध्यान नहीं। पर जब पहुँची तो रात घिरने को आ रही थी। मौसम साफ था। बच्चे बाहर बुझे हुए चूल्हे की ठंडी अंगारों पर अपना माँस भून रहे थे। उसकी महक से उस औरत का सिर चकराने लगा। वह बेहोश होकर निढाल गिर पड़ी।