वह शायद यह कहानी बचपन में सुनकर बड़ी हुई थी। शादी के पहले माँ और दादी यह कहानी एक-दूसरे को कहतीं और वह घुटने के बल गुटुर-गुटुर बैठकर कहानी सुना करती। शिव-पार्वती बनते और गणेशजी के साथ उनकी पूजा होती। उसकी माँ उस घर की इकलौती बहू थी और वह इकलौती पोती। उससे छोटा एक भाई था। अतः वह भी काफी लाड़-प्यार से पली-बढ़ी थी। उसकी दादी सुहागिन गई। जरूर इस व्रत का प्रताप होगा। अन्त समय में उनको बिछिया, चूड़ी पहनाकर और बाबा ने माँग में सिंदूर भरकर लालिमा से विदा किया था। सब कितना रश्क कर रहे थे अम्माँ के भाग्य से। उनके अर्थी के ऊपर से पैसे न्यौछावर कर सबको बाँटे गये थे प्रसाद स्वरूप।
पंडितजी शिव-पार्वती की स्थापना कर उनका महिमामंडन कर रहे थे। और जो स्त्री ऐसा नहीं करती वह सात जन्मों तक वैधव्य का भोग करती है। उनके जितने पुत्र होते हैं सब के सब अकाल मृत्यु को प्राप्त होते हैं। और पंडितजी आगे कहे जा रहे थे और उसका दिमाग घूमने लगा और वह गिरकर बेहोश हो गयी।
उसकी दादी की तीन ननद थीं। सबसे बड़ी ननद के पति का देहावसान तभी हो गया था जब उनकी एकमात्र पुत्री ग्यारह साल की थी। बहुत पुरानी बात है। वह तो किस्से-कहानियों की तरह से दादी के मुँह से उनके विषय में सुनती थी। दादी का नाम शान्ति था और नन्द का श्यामला। श्यामला की बेटी थी कमला। अब जैसा कि पहले जमाने में होता आया था एक विधवा उसकी छोटी-सी पुत्री को कौन ससुराल वाले रखने की जहमत करते। करते भी क्यों जब उनका बेटा ही न रहा तो बहू और पोती से क्या वास्ता। लिहाजा साजो-सामान सहित बहू मायके
भेज दी गई। आज से पचास साल पहले विधवाओं की जिन्दगी काफी कष्टदायक थी। हम दोनों भाई-बहन छुपकर देखते कि हर महीने नाई आता और उनके बाल उतारकर चला जाता। पहले-पहल तो गौरवपूर्ण मुखमंडल का केशविहीन होना दहला देता पर शायद वह पतिव्रता साध्वी की तरह से इस नियम का अनवरत पालन करती रहीं। किसी में भी न यह पूछने का साहस हुआ न इस दिशा में उनको रोकने का। एक बार उसने डरते-डरते पूछा भी था तो दादी अपने पोपले मुँह से बोलीं, ’बेटा जब कमला के बापू नहीं रहे तो फिर यह केश रहे न रहे.......मेरी तो जिन्दगी ही उसके साथ खत्म हो गयी।” और वह काँप गयी थी। अपने बालों पर हाथ फेरते हुए भाग खड़ी हुई। काफी दिनों तक रात में उसे जलती हुई चिता दिखलायी देती। वह घबड़ाकर आँख बन्द कर लेती और दादी से कस के चिपक जाती। मृत्यु का भय और उससे भी सर्वोपरि अपनों को खोने का भय उसको हिला देता।
गुड्डे-गुड़ियों का खेल खेलकर ओर स्कर्ट, फ्राॅक पहनने की उम्र पार कर अब वह बड़ी हो गयी थी। रूप और सौन्दर्य ने उसके मुख को पूरा निखार दिया था। एक पार्टी में देख उसको ससुराल वालों ने पसन्द कर लिया। लड़का पुलिस में अच्छे औहदे पर था। लिहाजा आपत्ति का कोई सवाल न था, पर आपत्ति आकर टिक गयी जन्मपत्री पर। दोनों के मात्र साढ़े तेरह गुण मिले थे।
अरे ये सब बेकार के वहम हैं। जिनकी नहीं मिलती या जो प्रेम विवाह कर लेते हैं क्या वह खुश नहीं रहते हैं या सब के सब मर जाते हैं उसका विवाह शान्तनु से हो गया।
कल तीज है। छोटी देवरानी की पहला तीज है। शादी के दस दिन बाद ही पड़ रहा है। पूरे घर में खुशी है पर सिर्फ वह उदास है। उदास माँ भी है-शांतनु की माँ उसकी माँ। पर कभी -कभी अपने दिल के अन्दर दुखों को काफी गहरे कहीं
दफन कर देना पड़ता हैं दूसरों के लिए मुस्कुराना पड़ता है, उनकी खुशी में न चाहते हुए भी शरीक होना पड़ता है। अभी घर पूरा शादी के माहौल में रँगा था। काफी रिश्तेदार जा चुके थे और थोड़े-बहुत आत्मीय या नजदीकी कहना ज्यादा उचित होगा, रह गये थे। देवर विदेश में नौकरी करता था। यहाँ से इंजीनियरिंग करके अमरीका में नौकरी कर रहा था। उसके जाने के बाद इतने बड़े कोठीनुमा घर में फिर सन्नाटा पसर जायेगा। मौत का सन्नाटा जिसको अभी इस शादी के बाहरी आडम्बर ने बखूबी छिपा लिया था। जिन्दगी भी कितना मसखरापन करती है, मौत के खेल में गम को ये अपने अन्दर समेट लेती है। मौत वह एक खूबसूरत औरत है जो दूर तक दौड़ के मनुष्य को मरूस्थल में ले जाती है और वहाँ अपनी कुरूपता का अहसास कराकर वापस ला पटक देती है और मूर्ख मनुष्य पर अट्टहास करती है-धत् मूर्ख.....तू यह भी न कभी समझ पाया कि मेरी खूबसूरती छलावा थी। और वह उसे निगल जाने के लिए विदु्रपता अपना लेती है और यह मनुष्य उसमें समा जाता है। एक अदृश्य खेल और उससे भी अधिक अनोखी लीला में विलीन हो जाता है।
देवरानी कल पहली बार सुहाग का व्रत रखेगी। पर उसकी तैयारी जोर-शोर से आज से ही हो रही थी। बड़े घर की बहू थी कि कोई छोटी-मोटी बात। उसके माता-पिता भी सासाराम से आ गये थे। बेटी के लिए नई साड़ी-कपड़े एवं ढेरों सामान था। माँ ने भी उसको नया जोड़ा बक्से में से निकालकर दिया था। उसके ससुर सेठ हीरादास बक्सर के कांग्रेजी कार्यकर्ता थे। कुछ साल पहले तक सक्रिय राजनीति में उनकी भागीदारी थी। दो बार विधानसभा की कुर्सी तक जा चुके थे। लिहाजा इलाके में काफी दबदबा था। शाम को पुरानी नाइन आकर आलता-महावर लगा गई थी।
“मम्मी पैरों को लाल रँगने वाली बाई आई है। सबके पैर रँगे जा रहे हैं। चलो न यहाँ क्यों बैठी हो।’
एकदम से उसका दुख परम क्रोध में बदल गया। बेटी को उसने तड़ाक से एक थप्पड़ मारा और चीखी......“जाओ जाकर तुम भी पैर रँगवाओ....घर में सब के सब मस्ती कर रहे हैं। किसी को मेरी परवाह नहीं है। जब उनमें से किसी का कुछ जायेगा तब पता चलेगा कि खोना किसको कहते हैं।” और जोर से उठाकर पास में रखा पाउडर का डिब्बा ड्रेसिंग टेबल के शीशे पर मारा। वह टूटकर चकनाचूर हो गया। बिलकुल उसकी अपनी जिन्दगी की तरह शीशा चूर-चूर होकर बिखर गया था।
बेटी अप्रत्याशित रूप से घटित इस घटना को अपलक देखती रही थी। अपनी माँ का यह रूप उसके लिए बिलकुल नया था।
इसके बाद माँ बदहवास उसके पापा का नाम लेकर रोने लगी।
“शान्तनु.....शान्तनु.....”
उनकी चीख सुन नीचे से सब लोग भागकर ऊपर आ गये। माँ ने नयी बहू और देवर को नीचे भेज दिया।
हाँ वह तो मनहूस है, उसके सामने पड़ने से तो उसकी जिन्दगी कहीं उसकी जैसी न हो जाय। और मन में छुपे यह शब्द कब वाणी से बाहर आ गये इसका उसको पता नहीं चला।
“जाओ तुम सब जाओ। मुझ मनहूस बदनसीब को अकेला छोड़ दो।” वह पागलों की तरह व्यवहार करने लगी। उसको खुद नहीं समझ आ रहा था कि वह क्यों ऐसी हो गयी है। सामने खड़ी सामिया का चेहरा देख-देखकर वह अपने ऊपर नियंत्रण रखना चाह रही थी पर ऐसा हो नहीं पा रहा था। थोड़ी देर माँ उसको सँभालती रही पर वह असंतुलित रही। होश तब आया जब डाॅक्टर ने उसको सुई
लगाई। थोड़ी देर बीतते-बीतते शान्त हो गई। बाहर से तो वह शान्त हो गई थी पर अन्दर दुख का सागर हिचकोले ले रहा था। रात भर दोनों बेटियों को चिपकाकर सिसक-सिसककर रोती रही।
उसने व्रत में क्या त्रुटि की थी जो उसका शान्तनु उसको छोड़कर चला गया।
शान्तनु और वह जिन्दगी में काफी खुश थे। अच्छी पोस्ट, अच्छा परिवार और किसी को जिन्दगी में क्या चाहिए होता है। शान्तनु उसको चाहता भी बहुत था। एक तरह से कहा जाय उसके रूप-सौन्दर्य पर जैसे फिदा था। जाने किसकी नजर उसकी प्यारी-सी गृहस्थी को लग गयी। शान्तनु की पोस्टिंग गया जिले में हुई। गया का कोंच उग्रवाद प्रभावित था। शान्तनु की कार्यप्रणाली से सब ही संतुष्ट थे। कत्र्तव्यनिष्ठ, चुस्त-दुरूस्त पुलिस अधिकारी। होली के एक दिन पहले खबर आयी कि कोंच गाँवों में कुछ आपसी तनाव व्याप्त हो गया है। उसके काफी रोकने के बाद भी वह यह कहकर निकल गया कि ’बस मैं यूँ गया और यूँ आया।’ पर उसका मन अनहोनी की आशंका में धड़क उठा। वह गया तो यूँ ही था, पर वैसे आ न सका। उग्रवादियों द्वारा बिछायी हुई बारूदी सुरंग पर उसकी गाड़ी के जाते ही गाड़ी के साथ-साथ शान्तनु के भी चीथड़े-चीथड़े उड़ गये। वह विश्वास ही न कर पायी। फिर बेहोश होने के पहले सिर्फ इतना कह पायी कि “तुम सब गलत सोच रहे हो। यह शान्तनु हो ही नहीं सकते। वह तो जीवित हैं। वह बोलकर गये थे कि अभी आ रहे हैं....वह आ ही रहे होंगे।”
काफी दिन तक वह गेट पर खड़े होकर उनके आने का इंतजार करती रही थी पर वह नहीं आये।
उसकी यानी शुभांगी की दादी की ननद यानी श्यामला का जीवन मायके में गुजर रहा था। कमला का विवाह भी बाप-भाई ने ही किया था। अच्छे में तो ससुराल वाले काम भी आ जाते हैं। पर हाडे-हटके मायके वाले ही निपटाते हैं।
फिर जिस औरत का पति ही न रहा हो उसका ससुराल में कोई स्थान ही नहीं। मायके में भी कोई मजे से नहीं गुजर रही थी। शान्ति से अक्सर कलह हो जाती थी। वह वैधव्य जीवन ऊपर से कुछ नहीं तो दिन भर या तो वह बड़बड़ाती रहती नही ंतो हर काम में मीनमेख निकालती रहती। ऐसे भी सुबह चार बजे उठकर मंदिर में खिटर-पिटर चलती रहती। कभी अगर शुभांगी की नींद खुल जाती तो देखती वह अपने लड्डू गोपाल से बातें कर रहीं हैं। कमरे में आवाज सुनकर उसको अभी भी डर लगता पर जीवन में कोई सहारा तो इंसान खोजता है। जीवन जीने के लिए कोई न कोई अविलम्ब चाहिए, उन्होंने शायद ईश्वर में खोज लिया था।
इस जिन्दगी में उनकी खोज परिवार में बराबर चलती थी। परिवार में जिस किसी के यहाँ बच्चा होता तो गद्दी-पोथड़ा पोंछने-धोने के लिए उनको बुला लिया जाता। अब शुभांगी की बुआ के तीनों बेटों को उन्हीं ने पाल-पोसकर बड़ा किया। कहीं भी बीमारी हो तो श्यामली दादी की तलब होती। वह डेढ़ हड्डी की काया-थोड़ा-सा सामान अटैची में डाल भेज दी जाती जहाँ भी उनकी जरूरत होती। उन्होंने कभी प्रतिकार न किया। शायद करती भी किससे। निरर्थक जीवन को छोटा ही सही पर शायद अर्थ देने की कोशिश करती थीं। उनके ससुराल में भी जब सास बीमार पड़ी तो देवर लेने के लिए आ जाता।
“भाभी चलो माँ ने बुलाया है.....बीमार है। आखिरी वक्त में आपका सान्निध्य चाहती है।” साथ क्यों चाहती थीं यह वह अच्छे से जानती थीं। एक अर्थपूर्ण निगाह अपने भाई पर डाली। वह कुछ न बोला। वैसे भी ससुराल के बीच में बोलकर वह वहाँ बुरा नहीं बनना चाहता था या फिर कुछ दिन के लिए अपनी जिम्मेदारी के बोझ से निवृत होना चाहता हो। जो भी हो श्यामली सास की सेवा में लग गयीं। सुबह-शाम रामायण बाँचकर सुनाती थीं और दिन भर गौमूत्र साफ करती थीं। सास थी मरते-मरते ढेरों आशीष दे गई।
“बेटा जो कष्ट हमने ढाये वह तो तेरी किस्मत का दोष था। क्या हम या तुम ऐसा चाहते थे। जैसी उसकी इच्छा। जब वही तुमसे रूष्ट रहा तो हरि इच्छा। पर तूने बड़ी सेवा की है। जा तुझे अगले जन्म में खूब सुख मिले।”
और श्यामली उनके देहान्त पर खूब फूट-फूटकर रोई थीं। ससुराल से जो एक नाता था आज उसकी एक डोर भी टूट गयी। और फिर देवरों और जेठों से भरे घर में उन्होंने दुबारा कदम न रखा।
बेटी कमला के घर भी काफी कम जाती थीं वही अक्सर आ जाती। बेटी के घर पर खाना वह वर्जित मानती थीं। नाती होने के बाद भी संस्कारों ने बाँध दिया था।
शांति के बेटे की जब शादी हुई तो उन्होंने अपने जेवर तुड़वाकर उसकी बहू के लिए बनवाया था।
“बहू.......रानी बहू ने तुम्हें जो लम्बा वाला हार पहनाया है वह मेरे सोने का बना है। तुम किसी से कहना नहीं पर यह मेरी तुमको भेंट है।” उनके स्वर में गहन पीड़ा थी। वह अपनी ही चीज को शौक से किसी को दे भी न पायी थीं। सारे अरमान उनके अन्दर दब गये थे।
अब वह बूढ़ी हो चलीं थी। एक दिन बस वह खाट पर से उठी ही थीं कि जोर से चिल्लाकर बैठ गई।
काफी देर तक जब वह खाट पर से नहीं उठीं तब लोंगो का ध्यान उधर गया। कूल्हे की हड्डी का फ्रैक्चर था। उनकी बेटी आकर उनको ले गयी थीं इसी बीमारी में उनका अन्त भी आ गया। क्रिया-कर्म के समय नाती साफ मुकर गया। तब श्यामली के भाई ने ही आगे आकर उनका क्रिया-कर्म किया।
“माँ नहीं थी बड़ी बहन थी। क्या हुआ अगर मैं उनका बेटा नहीं हुआ पर वह थीं तो माँ दाखिल। जब पूरी जिन्दगी सेवा की तो अन्त समय में क्या पीछे हटना।” और उन्होंने उनकी बेसहारा-सी जिन्दगी को किनारे लगा दिया। उनका जेवर भी बाँधकर बेटी को दे दिया।
शान्तनु के मरने पर शुभांगी के माता-पिता आये थे। एक कोने में दुख और अपमान को पीते हुए बैठे थे। बेटी का चेहरा देख-देखकर कलेजा जी को आ रहा था। छोटी-छोटी बेटियों को देख दिल दहल जाता।
“अरे पूरी जिन्दगी पड़ी है कैसे होगा। कम से कम अपनी जिम्मेदारियाँ तो पूरी कर जाते।”
“ईश्वर कैसे इतना अन्यायी हो सकता है। कम से कम छोटे बच्चों का तो ख्याल करता।”
मिथ्या वचन, कोरी संवेदनाएँ। पर शुभांगी को रह-रहकर ख्याल आता वह कैसे बच्चे पालेगी। इनका भविष्य बिलकुल अनिश्चित-सा हो गया था।
शान्तनु की मृत्यु के बाद शुभांगी की माँ उसको कुछ दिनों के लिए मायके ले गई थी। सबका थोड़ा मन बदल जायेगा और इन सबसे ध्यान हट जायेगा पर शुभांगी रह न पायी। रह-रहकर अपना घर याद आता था। वहाँ से जुड़ी हर चीज में उसको शान्तनु का स्पर्श लगता था। यादें थीं और उन यादों में स्पन्दन था।
शान्तनु उसका कितना ख्याल रखता था। जब भी घर में रहता तो हँसता रहता। हमेशा साथ खाता। उसकी आँखों का इशारा ही खाने की मेज पर बुलाने के लिए काफी था। उसकी पूरी आलमारी ही शान्तनु के पसंदीदा कपड़ों से भरी थी। उसकी जिन्दगी की धुरी था शान्तनु। और वह उसको ही खा गई।
बीच-बीच में उसकी माँ ने यदा-कदा शादी की बात चलाई भी पर शुभांगी के ससुर ने साफ शब्दों में कह दिया-
“समधनजी.....हमारे घर में ऐसा कोई रीति-रिवाज नहीं है। अगर उसने अपना पति खोया है तो हमने भी अपना बेटा खोया है। रात-रात भर जागकर में भी उसकी याद में तड़पता हूँ। मैं बाप-दादाओं की कमायी हुई इज्जत यूँ ही नहीं गँवा दूँगा। दुबारा ऐसा सोचिएगा भी नहीं.....।’
वह भी शादी करके शान्तनु की स्मृतियों के साथ छलावा नहीं करना चाहती थी। पर जाते-जाते माँ एक काली बिन्दी लगा गई। “बेटा मेरे सामने तुम्हारा माथा खाली रहे और माँग सूनी यह मैं देख नहीं सकती।”
आज तीज थी। सब महिलायें उत्साह से व्रत की तैयारी कर रही थीं। अखबार में धू-धू कर कुछ जल रहा था। सारे अखबार रूपकँवर के सती होने की घटना से भरे थे। पति की चिता पर एक और सती। शुभांगी सिर्फ चिता की जलती हुई लपटों को देख रही थी। रूपकँवर के चर्चे सबकी जुबान पर थे। हों भी क्यों न, एक और महिला मार डाली गयी। अच्छा है जिन्दगी भर घुट-घुटकर मरने से तो एक बार मर जाना बेहतर है। शुभांगी उठी.....शीशे के सामने जाकर खड़ी हो गयी। रूपकँवर का सुहागिनों वाला चेहरा उसकी आँखों के सामने घूम गया। वह भी तो तिल-तिल कर मर ही रही है। एक निगाह उसने ऊपर से नीचे तक अपने ऊपर डाली। सफेद लिबास और उसे भी स्याह सफेद बेरौनक चेहरा। जोर से हँसना भी उसके लिए गुनाह था। वह मनहूस थी। उसका यही चेहरा सुबह देखना अपशगुनी था। उसके अन्दर भी कुछ जलने लगा तथा अपने प्रति उपजी घृणा जलने लगी। वह कायर थी......बेहद कायर। अपने बच्चों के कारण वह मर भी नहीं सकती थी। पर अब यह मरेगी नहीं जियेगी। शान्तनु की यादों के सहारे जियेगी। शान्तनु भी यही चाहता है। उसने अपनी आलमारी खोली। पिछले साल तीज पर शान्तनु ने हल्के गुलाबी रंग की साड़ी दी थी। उसको पहनकर और हल्का मेकअप करके वह फिर से शीशे के सामने आकर खड़ी हो गयी। नीचे से उसकी दोनों बेटियाँ दौड़ती हुई आ गई।
“माँ.......कहाँ हो माँ......।”
उनकी माँ बाँहें फैलाये नवजीवन का स्वागत करने के लिए तैयार खड़ी थी। दोनों उस बाँहों के संसार में आकर दुबक गयीं।
शुभांगी की आँखों में आँसू थे पर पीछे शान्तनु खड़ा मुस्कुरा रहा था। अब उसकी आत्मा शान्ति से रह सकेगी। उसने आकर हौले से शुभांगी के कंधों को सहलाया। अब शुभांगी को कोई तीज करने की आवश्यकता नहीं थी। न रात भर रतजगा करके अजगरी योनि से बचने का कोई स्वाँग रचना पड़ेगा। उसका शान्तनु तो उसके पास था। एक नया संसार स्वागत में पलकें बिछाये खड़ा था।
“तो चलो।” शान्तनु बोला। और उसने मौन स्वीकृति दे दी।