हाईवे की यात्रा....ब्रेक का अनवरत चलना। बहुत मन बना हाईवे पर एक लांग ड्राइव के लिए निकले। रास्ता लंबा पर सुगम चुना। मौसम सुहाना था, हवा मन्द पर शीतल प्रतीत होती थी। आनन्ददायक यात्रा का अनुभव सुकून और हर्ष देने वाला था।
हाॅर्न दे निकल पड़े यात्रा पर। बस थोड़ी हवा खाकर आ जाएँगे। रोड भी अच्छी बन पड़ी थी। लग रहा था कि बस फिसलते चले जाएँगे। गाना लगा आँख मूँद बैठ गए। अभी आँख लगी ही थी कि चर्र... स्टेयरिेंग पर एक झटका लगा। ब्रेक लगते-लगते भी गाड़ी काफी दूर तक घिसट गई। आँख किसी अनहोनी की आशंका से अचानक खुल गई। ऐसा प्रतीत हुआ मानो प्रलय आ गयी है या फिर जीवन में कुछ भयंकर घटित हो गया है। चर्र-हाँ वाकई एक कुत्ता था। नहीं, ऐसा कुछ नहीं था। एक मरियल-सा कुत्ता नौटंकी करता हुआ गाड़ी के नीचे आ गया था। कुत्ता वह भी कुपोषित। सरकार ने लगता है अभी कुपोषित जानवरों पर कोई अभियान नहीं छेड़ा है। नहीं तो बस एक कहानी बनती-एक कुपोषित कुत्ता गाड़ी के नीचे आकर मरा। शुक्र है कि मरा नहीं। कुत्ते को बचाते-बचाते भी गाड़ी का संतुलन बिगड़ गया था और वह सड़क पर मानो नशे की स्थिति में झूमने लगी। विडम्बना ऐसी कि वह कुत्ता इतनी भारी गाड़ी का भी दंश झेल गया। हाईवे का कुत्ता था, ट्रक के नीचे मरने की आदत जो थी। गाड़ी, स्कूटर तो बस खरोंच मारकर निकल जाती थीं। हाईवे के कुत्ते को मारने का माद्दा तो सिर्फ ट्रक में था। वह कोई मामूली जानवर तो था, नहीं जो हर ऐरे-गैरे से भिड़ जाए। हाईवे का कुत्ता था!
खैर कुत्ते को लेकर अस्पताल तो भागना न था। बस ऊपर वाले का नाम लेकर उस मरियल कुत्ते को मरने के लिए वहीं छोड़ आगे बढ़ गए। अब लगा कि हाईवे पर आनन्द-ही-आनन्द आएगा। नींद थोड़ी देर के लिए उड़ गयी थी अतः बाहर दृष्टि डालकर दृश्यों का आनन्द लेने लगी।
वाह क्या दृश्य है। एक के बाद एक कुटिया, झुग्गी-झोपड़ी, गरीबी, बदहाली। लगा कि सच में वास्तविक भारत गाँव में ही बसता है। देश की समस्त सार्थकता यहाँ चरितार्थ हो रही थी। अधनंगे बच्चे, भूख से सिकुड़ा पेटा। पर यह सब कब से मेरी समस्या हो गई? समाजसेवा तो नामीगिरामी लोगों का पेशा है। टीवी मिडिया की कवरेज उन्हीं को ही प्राप्त है। हम आम आदमी क्योंकर समाज का ठेका उठाएँ ? समाज ने हमें दिया ही क्या है?
अभी मैं इसी मंतव्य पर मंथन करते हुए दृष्टिगोचर थी कि अचानक फिर ब्रेक लगा। इस बार लगता है मानो पूरे गाँव की गाय बिरादरी घूमते-घामते हुए अपने सहपाठी के विवाह भोज के लिए जा रही थी। किसी को हड़बड़ी नहीं थी। वक्त ही वक्त था। फिर क्यों हड़बड़ाया जाए। हर दृश्य का आनन्द लेते हुए बारात आगे बढ़ी जा रही थी। बड़े-बूढ़े उसमें सभी शामिल थे। उनको देखकर ’विलियम वर्डसवर्थ’ की एक कविता की पंक्तियाँ स्मरण हो आती थीं कि हमारे पास कब समय है खडे होकर प्रकृति का आनन्द लेने का पर यहाँ इन भैंसों और उनको हाँकने वाले मालिक से इस सैद्धांतिक समस्या का हल यह मिला कि सारी समस्या का समाधान स्वयं के पास है। अगर हम खड़े होकर ताकना चाहेंगे तो ताकेंगे, झाँकना चाहेंगे तो झाँकेंगे, इस पर सिर्फ हमार अधिकार है। चूँकि इस देश में रहकर हम अपने हर अधिकार का उपयोग नहीं करना चाहते तो यह हमारी समस्या है।
वैसे समाज में अक्सर देखने में आता है कि समाज जरूर रखवाला बन हर एक के जीवन में ताका-झाँकी करता है। वह अपनी इस अहम् म्हती भूमिका से कब पीछे हटा है यह उसको ज्ञात नहीं। समाज प्रहरी बन इस पर कड़ा अंकुश रखता है कि पुरूष जरूर मतवाला हो जाए पर स्त्री को लक्ष्मण-रेखा पार करने का विचार भी नहीं आना चाहिए। औरत को डायन घोषित करने में समाज कभी भी पीछे नहीं हटा। अगर दो-चार चुड़ैलें समाज में छुट्टे नहीं घूमेंगी तो फिर बच्चे भय किसका खाएँगे? भूत आया-भूत आया कहकर दादी माँ किसको दूध पिलाएँगी? समाज की संरचना कहानी-कविताएँ बनना ही बंद हो जाएँगी। इसलिए आज भी समाज में भूतों, डायनों, चुड़ैलों आदि को जिन्दा रखकर इस सभ्य समाज को भयभीत करने का अधिकार समाज ने सुरक्षित रखा है। पर मुझे आज तक यह बात गले के नीचे नहीं उतरी कि जब समाज चुडै़लों को निर्वस्त्र कर और कीचड़ खिला अपमानित करता है तो वह चुड़ैल जो इतनी शक्तिशाली रहती है कि किसी को भी स्वाहा कर सकती है, वह उस समाज का बाल भी बाँका क्यों नहीं कर पाती? अपमान सहते हुए समाज के सामने बेइज्जत हो जाती है। है न हास्यास्पद कि कौन बड़ा-चुड़ैल, डायन या समाज और इसी समाज में जाँति-पाँति का साँप फन फुफकारता हुआ कभी भी डसने को तैयार रहता है पर विडम्बना यह है कि जब कभी किसी शोषित-उपेक्षित को अधिकार देना होता है तो यही समाज नाक, आँख, कान बंद कर लेता है और सिर्फ अपना मुँह खोल उनकी निन्दा करता है।
जैसे बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद, वैसे ही भैंस के आगे बीन बजाने का क्या फायदा-वैसे भी समाज के आगे राग अलापने का कोई फायदा नहीं। समाज तो बंदर और भैंस से भी गया-बीता है। उसका तो सिर्फ अपना ही राग है और वह अपनी ही धुन अलापता है।
खैर धीरे-धीरे करके अपनी गति से वे गाय-भैंस आगे निकल गई। उनको जाने में जितना वक्त और रास्ता देने में समय लगा उतने में तो एक क्रान्ति की बिगुल फुँक गयी होती।
भैंसों को रास्ता दे, हम आगे बढ़े। निश्चिन्त थे कि मार्ग बढ़िया है। अब कुछ दिक्कत नहीं होगी। अपना वाकमैन कान से लगाया और संगीत का आनन्द लेते हुए रास्ते नापने लगे। एक-दो-तीन और यह क्या! चर्र से गाड़ी का ब्रेक फिर से लगा और ऐन उसी वक्त जब संगीत का स्वर अपने चरम पर था-उसकी ध्वनि में यह अहसास ही न हो पाया कि कब एक झटका लगा और मेरा सिर गाड़ी के आगे वाली सीट से जा टकराया।
दर्द का अहसास बाद में होता पहले तो एक डाँट का स्वर ड्राइवर के लिए निकला। पर उस बेचारे की भी क्या गलती थी। सामने एक लहराता हुआ साइकिल वाला झूमता मदमस्त रास्ता पार कर रहा था। जाहिर है कि हर नागरिक का सम्मान होना चाहिए। उसका भी हुआ। कम-से-कम उस साइकिल सवार की स्थिति उस कुत्ते से तो बेहतर ही थी।
चलो जो हुआ सो हुआ। गाड़ी ने फिर अपनी गति पकड़ी थी। एक बार गति अवरूद्ध हो तो शुरू किया जा सकता है पर बार-बार अवरूद्ध हो तो लय और ताल में तारतम्य खत्म-सा हो जाता है। मूड भी कुछ-कुछ आॅफ होने लगा था। आगे जाने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। वापसी का सफर भी लंबा था। एक बार सफर में जो निकल जाओं तो वापसी की राह कठिन होती है। फिर भी वापस तो जाना ही था।
चलो अब तो घर वापस पहुँचेंगे। घर पहुँचने की हड़बड़ी और उत्तीजना सुकून प्रदान करने वाली होती है।
अब आगे तो न जा पायेंगे पर कम-से-कम घर तो सकुशल पहुँच पायेंगे। हाईवे के इस आनंद में गाँव के भी दर्शन हो गये। भारत देश की आत्मा तो गाँव में बसती है। वास्तविक दर्शन करना हो तो गाँव की ओर जाओ। हम नहीं कह रहे। चूँकि राष्ट्रपिता का सपना था कि गाँव-गाँव की ओर हर भारतीय नागरिक की उन्मुख होना चाहिए तो कम-से-कम इतना आत्मिक सुकून तो आया कि हम गांधीजी के पदचिन्हों पर आज की तारीख में भी चलने का प्रयास करते हैं। नही ंतो आम और खास नागरिक ने उनको भूलकर, उनकी यादों को मात्र रूपये, चैराहों और पार्कों तक सीमित कर दिया है। आप हर शहर के सबसे प्रतिष्ठित पार्क में चहलकदमी कर रहे होंगे, वहीं गांधी मैदान होगा। और जिस चैराहे पर अंग्रेजी हुकूमत का कभी परचम लहराया होगा वह भी गांधी चैराहा होगां हर पल गांधीजी को जीने के बाद भी हम अभी तक गांधीजी के आदर्शों को न जी पाये। मुझे सुकून हुआ कि कम-से-कम आनंद के बहाने ही सही मैं गांधीजी की राह पर कुछ डग चल पाई और उनके सपने को जी पाई।
गाँव के कच्चे-पक्के रास्ते, उस पर टूटी-फूटी झोपड़ियाँ, अधनंगे बच्चे, यौवन की दहलीज पर घुटी हुई माँ, पोपले मुँह की बुढ़िया! काश मेरे पास कैमरा होता तो मैं इन सबका फोटो खींच लेती और इन्टरनेशनल मैगजीन को ऊँचे दामों में बेचती। सैर के बहाने कुछ पैसा भी आ जाता। अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गईं खेत। चलो अभी भी देर नहीं हुई है। इस देश में ऊपर वाले की असीम कृपा से विकास की दर काफी स्लो है। ऊपर वाले से मेरा तात्पर्य ईश्वर से भी है और ऊपर बैठी सरकार से भी है। ऊपर वाले ईश्वर पर आम भारतीय नागरिक की इतनी असीम आस्था है कि जब वो देता है तो छप्पड़ फाड़कर देता है। देश की जनसंख्या इसका ज्वलंत उदाहरण है। ईश्वर अपने नेक बन्दे को सिर्फ खाने के लिए एक मुँह देता है पर कमाने के लिए दो हाथ। और सरकार, वह तो हर पाँच
हर पाँच साल में संपूर्ण आश्वासन देने आती ही है वरन् सरकार को तो अपने आम और अवाम का इतना खयाल है कि वह स्वयं अपने महल को छोड़ अवाम के बीच उसका हाल-चाल पूछती है। ऊपर वाले सर्वदा नेक ही होते हैं। देते हैं तो खजाना ही लुटा देते हैं।
मेरा सफर तो वापसी का था। अभी खयालों के पुलाव में मैं विचरण कर ही रही थी कि गाड़ी ब्रेक लगते-लगते भी एक तरफ लुढ़क गई। जब तक मैं समझ पाती कि गाड़ी खड्डे में थी। हुआ कुछ गोया यूँ था कि सड़क को खेल का मैदान समझकर गाँव के कुछ तीज-तर्रार बच्चे भागम-भाग करते हुए गाड़ी के नीचे आने ही वाले थे कि गाड़ी भी खेलने को उतावली हो गयी। वह भी उनके चक्कर में लुढ़कती-पुढ़कती सड़क पर अठखेलियाँ करती खड्ड में जा गिरी। असल में दोष उन बच्चों का न था। दोष तो प्रारब्ध का था। हमारे देश में सब-कुछ प्रारब्ध का ही खेल है।
देश में अभी तो खेल की मानो बयार ही बह रही है। आईपीएल, सानिया मिर्जा सब के सब जुटे हुए हैं, देश को ’’चकदे’’ कर देने के लिए। ’’गोल पर गोल’’ दागा भी इसलिए जा रहा है कि यहाँ का आधा पेट खाया हुआ बालक देश का भावी कर्णधार बने और देश को इन्टरनेशनल पटल पर पहुँचाने का भरसक प्रयास करे। जब से ग्लोबलाइजेशन का जमाना आ गया है तब से हर गाँव ग्लोबल विलेज बन गया है। पता नहीं कब इस विलेज से उठकर कोई भिखमंगा देश का भावी सितारा बने। ’’कोटा राज’’ में तो अब सब-कुछ जायज है। खैर सैर का आनंद लेने के चक्कर में गाड़ी खड्डे में जा गिरी। हमारे देश में अगर यह खबर मिडिया को हो जाये तो मैं रातोंरात सैलिब्रिटी बन जाऊँ। गाँव में अभी आर्मी को बुलाना पड़ेगा और वह घंटों के अथक प्रयास के बाद मिडिया की पैनी निगाह में मुझको और मेरे ड्राइवर को बाहर निकालती। शायद ऐसा न भी होता क्योंकि मैं कोई बालक तो हूँ
नहीं, व्यस्क हूँ। वयस्क को मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। मेरे अपने लिए तो जिन्दगी की ढेर कीमत है। लिहाजा मैं अथक हाथ-पैर मार रही हूँ, और अपने को गड्ढे से निकालने के लिए मैं जीवन की जद्दोजहद तक जुटी हुई हूँ।
कभी-कभी गोया बस यह चन्द खयाल लम्हों में आते हैं कि शायद यह खड्ड हमारे देश की उसी व्यवस्था की तरह है जिसमें गिरने के बाद बमुश्किल कोई तैर किनारे लग पाता है।
हम भी खड्ड में गिरे छटपटा ही तो रहे हैं।