फिल्मों में ऐसा होता आया है, पर कभी-कभार ऐसा अपने आसपास भी घटित होता है, पास ही के सूदूर गाँव में कुछ ऐसा ही घटित हो गया जिसकी कल्पना भी रोमांचित कर देती है। नाटकों के पात्र अचानक जीवंत हो उठते हैं और ऐसा दृश्य उत्पन्न कर देते हैं कि असंभव भी संभव हो जाता है। इन घटनाओं को हम कितनी भी अनदेखी कर लें पर हम महसूस कर लेते हैं कि जीवन ही नाट्य रूपांतर होकर वास्तविकता का मुखौटा चढ़ा लेता है और कहीं किसी कोने में छुपा हुआ हमारा मजाक उड़ा रहा होता है और हम उससे अनजान हर क्षण दूर-कहीं दूर जीवन से भाग रहे होते हैं। हमारा सम्पूर्ण जीवन ही भागने की एक लंबी कड़ी है, क्योंकि कहीं न कहीं भयाक्रान्त हम उसको जी पाने का दुस्साहस नहीं कर पाते हैं।
जीवन अनमोल है पर भावनाओं के आवेश में हम सदैव उसकी गुणवत्ता और महत्व से अनभिज्ञ रहते हैं।शायद कथानक हमें भारी पड़ रहा है और भाषण सुनते-सुनते हम आजिज हो गये हैं, भाषण को हम बन्द फाइल में लपेटकर आलमारी में डाल देते हैं या फिर एक कान से सुन दूसरे कान से निकाल देते हैं।
ज्यादा बोर न करते हुए तथ्यों पर आ जाएँ क्योंकि शायद कहानी पढ़कर आप इसे नाटक से अधिक कुछ भी न समझेंगे और शायद अनायास मुँह से निकल जाए कि ऐसा भी कहीं होता है ! पर अभी भी यहाँ-वहाँ अक्सर ऐसा ही होता है।
पटना के बहुत ही समीप भोजपुर नाम के जिला में एक गाँव है, अभी भी वहाँ सामंती प्रवृत्ति बीच-बीच में उफान मार देती है। डोला प्रथा गाँवों में अपना अस्तित्व पूर्णरूपेण जमाए हुए है और बीच-बीच में वीभत्स रूप में अपना तांडव दिखा देती
है। ऐसा ही कुछ यहाँ हुआ और कहानी बन गयी।
गाँव क्या था खंड-खंड में बँटा, इंसान को ही बाँट दो और समाज तैयार। कहीं रंग का मुद्दा उठा दे, कहीं जाति, कहीं संस्कार तो कहीं देश का। इंसान का बँटना मजबूरी है। धर्म के ठेकेदारों ने तो पहले ही अपना प्रभुत्व जमा रखा है, बाकी रही-सही कसर अमीरी और गरीबी की महीन रेखा ने खींच रखी है। उससे भी काम न चला तो औरत को पुरूष से अलग कर दिया ओर ठठाकर जिंदगी हँस दी। इंसान एक-दूसरे के खून का प्यासा हो गया कि इंसानियत ही खो गयी और हैवानियत की चादर ओढ़कर वह गर्वित हो समाज में शान से घूमने लगा।
सदियों से ऐसा ही होता आया है, और अफसोस ऐसा ही होता रहेगा क्योंकि इंसान अपने बनाए हुए मूल्यों से स्वयं हारता है और वक्त एक चुनौती बन जवाब माँगता है।
कितना कुछ घटित हो जाता है और एक कहानी बन जाती है। ऐसा ही यहाँ भी हुआ और पूरा जीवनवृत्त एक नाटक में तब्दील हो गया।
बहू को विदा करने की तैयारी जोरों पर थी। रात में पूरी पूजा हो गयी थी। बारात विदा होने का समय होता जा रहा था। बारात क्या थी कुछ एक बड़े-बूढ़ों का जमघट था। कोई भी औरत उनके साथ ही न थी। गाँव की बारातों में ऐसा ही होता है। कुछ एक लोग ट्रैक्टर में बैठकर शादी में आ गये थे। उसी में बहू विदा होनी थी। हरदयाल की पत्नी बन रूपा नया रूप पा गयी हो पर माँ-बाप से बिछुड़ने का गम भी कुछ कम तीखा न था। सखी-सहेलियाँ सब हमेशा के लिए बिछुड़ जायेंगी। उसका तो रो-रोकर बुरा हाल था। वधू पक्ष में सब गमगीन थे। उदासी का माहौल पसरा पड़ा था। बधू पक्ष विदाई को ’थोड़ी देर और’ करके टाले जा रहा था पर बाराती हड़बड़ी में थे।
“अरे भाई थोड़ा जल्दी करो। नहीं तो गाँव पहुँचते-पहुँचते रात हो जायेगी। रास्ता भी ठीक नहीं है।” और थोड़ा बेचैन होकर सब बाहर घूम रहे थे। पिछली बार राधेश्याम की बारात का दृश्य अभी तक सबकी आँखों के सामने कल की घटना बन घूम रहा था। एक अजीब-सी सिहरन सबके शरीर में फैलती जा रही थी।
उचित मुहूर्त देखकर बारात निकली। रो-रोकर रूपा का हाल बेहाल था। पर जैसे-जैसे डोली उसके घर से दूर जाती जा रही थी वैसे-वैसे दुख रोमांच में तब्दील हो रहा था। पर गाँव की सीमा पार करते-करत सबका चित्त थोड़ा हल्का हुआ। एक तो इतने मर्दों के बीच में उसका यात्रा करना, उसे थोड़ा अजीब महसूस हो रहा था, पति भी तो उसके लिए अनजान ही था। उसकी सूरत उसने विवाह मंडप में पहली बार देखी थी। और उसका आकर्षक चितवन उसके मन को मोह गया था। ऊबड़-खाबड़ रास्तों को पार करते हुए ट्रैक्टर रफ्ता-राफ्ता चला जा रहा था। बहू बड़े बूढ़ो को लाने से अधिक गाँव सकुशल पहुँचने की दुश्चिन्ता मन में सता रही थी।। घर पहुँचने के पहले रास्ते में ऊँची जाति वालों का टोला पड़ता था। सेठ की हवेली के सामने से बारात को होकर गुजरना था। गाँव में किसी को भी कानों-कान इस विवाह की खबर नहीं थी। हरदयाल शहर में नौकरी करता था। यही बात सब तरफ फैलायी गई थी। गाँव आया था तो पिता ने शादी की बात कर दी। आनन-फानन में विवाह हो गया। और अब बहू के दुरागमन का भी वक्त आ गया था।
जैसे-जैसे गाँव नजदीक आ रहा था सबके होंठ सिल गये थे। कोई किसी से कुछ भी न बोलता था। आँखों ही आँखों में सारी बातें मानो हो जा रही थीं पर होनी को कौन टाल सकता है, वही हुआ जिसका अंदेशा सबको था। सेठ के घर के समीप दो मुस्टंडों ने गाड़ी को रोक लिया। हाथों में बड़े-बड़े लट्ठ थे।
कमर में चाकू घुसा हुआ था। देखते ही देखते इस तरफ से भी लट्ठ निकल आये। दोनों पार्टी भिड़ गयीं। बारात में एक-दो घायल हुए। बाराती सिर पर पाँव रखकर भाग गये। हरदयाल भी भाग पाने में सफल हो गया। बहू की डोली को उठाकर सेठ की कोठी के अन्दर प्रवेश करा दिया गया। रूपा ने पहला कदम बड़ी हवेली में रखा।
हरदयाल छोरा था। कोई दस-बार साल का रहा होगा। पिता के साथ दिन भर खेतों में काम करता था। रात कौ चैन की बंसी बजा चारपाई पर औंधे पड़ जाता था। अच्छी नींद आती थी। दुनिया की चिन्ता न थी। आज के भरोसे सब चल रहा था, कल का ठिकाना न था पर इज्जत से बीत रही थी। एक दिन ऐसे ही खेत में काम कर रहा था कि सेठ के आदमी आ सामने खड़े हो गये।
“तुम्हारा बापू कहाँ है?”
हरदयाल ने एक निगाह उसके ऊपर डाली। फिर अपने काम में व्यस्त हो गया। जूतों की खड़खड़ उसके ज्यादा पास आकर रूक गयी। लाठी की एक मार उसके कंधों पर पड़ी और वह पीछे की तरफ झुक गया।
“शायद जोश ज्यादा आ गया है या हिम्मत ज्यादा बढ़ गयी है जो ऐसे तेवर दिखा रहे हो। कहाँ है तुम्हारा बाप। बताते हो कि जान से जाओंगे।”
हरदयाल की आँखों में खून उतर आया। मन किया कि सीधा उठे और उसकी जान ले ले। पर अपनी औकात देख चुप रहा। वह दोनों लठबाज डरा-धमकाकर लौट पड़े। एकबारगी वह उठा और उनको मारने के लिए उनके पीछे फिर खड़ा रह गया। उसकी निम्न जाति उसके रास्ते की रूकावत बन गयी।
शाम को जब बापू से बात हुई तो सेठ के आदमियों की बाबत बात उसने बताई। थोड़ा रोष भी जताया, “तुम क्यों उनसे मुँह लगाते हो। अपनी उम्र और औकात देखकर बात करो। नहीं तो तुम भी डूबोगे और मुझे भी डुबाओगे।” फिर चिन्ता की साँस खींचते हुए बोला, “क्यों आये थे?”
“स्पष्ट कारण तो नहीं बताया पर शायद कुछ जमीन के बकाये की बात कर रहे थे।” फिर बापू के घुटनों के बीच सर रखकर बोला, “बापू, ये बात क्या है। वह बार-बार क्यों आते हैं?”
हरदयाल के पिता कुछ देर चुप रहे फिर गहरी सोच के बाद बोले, “बेटा मेरी जमीन बंधक है। तुम्हारी दोनों बड़ी बहनों की शादी के वक्त जब पैसे की जरूरत पड़ी तो सेठजी से कुछ पैसा कर्ज के तौर पर लिया था, जो अब तक नहीं चुका पाया हूँ। इसीलिए यह खेत तब तक उनके पास हैं, जब तक हम कर्ज की रकम सूद सहित वापस नहीं कर देते हैं।” फिर दुखी होता हुआ बोला, “बेटा तब तक खेत के साथ हम सब बंधक हैं। हमारी साँसें भी सेठ की गुलाम हैं। वह जब चाहे बंद कर दे।”
हरदयाल के तन-बदन में जैसे आग लग गयी। “हमको जब ईश्वर ने स्वतंत्र बनाया है तो वह कौन होते हैं बंधक बनाने वाले। मैं उनको देख लूँगा।” बेटे के तेवर देखकर पिता थोड़ा सहम गये। सदियों से चली जा रही परंपरा को चुनौती देने की हिम्मत का अंजाम वह जानता था। दमन-निरंकुश हो जीने के लिए उसके बेटे को कौन छोड़ेगेा। उनकी व्यवस्था ही टिकी थी प्रहार पर। शासक अगर गरम न हो तो उसकी बात कौन मानेगा। और उसका दिल दहल उठा। अपने बेटे का मुँह देख उसे अपने भाग्य पर रोना आ गया।
रात को अभी बाप बेटे भोजन करके आराम करने की तैयारी कर ही रहे थे दि दरवाजे पर ठक-ठक हुई।
“कोई है।” एक कड़कदार आवाज सुनाई दी। काँपते हुए बूढ़े ने दरवाजा खोला-“कौन?”
“पूछते हो कौन! सुबह खेत पर आकर बुला गये थे उसके बाद भी इतनी हिम्मत कि सेठजी के दर पर माथा टेकने नहीं आये।”
“बस आ रहा था हुजूर। बाहर चला गया था। अभी लौटा हूँ। बेटे ने आते ही बताया बस भोजन करके हुजूर आने ही वाला था। गलती हो गई साब।” वह काँपने लगा। पिता को इस तरह कमजोर पड़ता देख हरदयाल का खून खौल उठा। उसके पिता को कोई कमजोर समझे, सताये उसकी इतनी हिम्मत-पिता की ताकत तो वह है। वह एक-एक का मुँह नोच लेगा। उसके अन्दर प्रतिशोध धधकने लगा। उसका मन किया कि वह आगे बढ़कर उनका मुँह नोच ले पर वह सिर्फ थूक निगलकर पिता के साथ हो लिया।
सेठजी बड़ी हवेली के दीवानखाने में बैठे मुजरा देख रहे थे। आम बात थी। पुरखों का रिवाज तोड़ पाने का उनमें कोई विशेष शौक न था। बाप-बेटा दोनों उस अश्लील प्रदर्शन का अनायास हिस्सा बन बैठे थे। हरदयाल तो रह-रहकर घृणा से सेठ की ओर घूरता फिर जमीन को ताकने लगता।
भौंडा प्रदर्शन पूरा हुआ। हरदयाल के पिता की पेशी सेठजी के सामने हुई। भगवान् स्वरूप सेठजी ऊँची जाति ओर खानदान के ऊँचे पाये पर बैठे ईश्वर सदृश ही प्रतीत होते थे। ईश्वर तो रहमदिल है पर सेठ......तौबा।
“क्यों धनपत राय। कुछ ज्यादा ही गरमी चढ़ रही है।” बहुत ही नरम स्वर में पूछा गया प्रश्न भी मानो बकरी को हलाल करने के पहले की-सी स्थिति के समान था।
“नहीं सेठजी...।मैं यहाँ न था।” वह काँपने लगा।
“यहाँ नहीं थे तो कहाँ थे।” फिर वही मीठी आवाज। सेठजी धीरे-धीरे सोफे की मूठ को सहला रहे थे।
“जी...जी...। बेटी को ....बच्चा हुआ है, वहीं गया था।” उसका हलक सूखने लगा।
“बेटी का बच्चा!” आवाज में व्यंग्य था। उसको सुन उसके लगधे बगधे हँसने लगे। “और यहाँ जो हमारे खेतों में ढेर काम पड़ा है उसको कौन करेगा तुम्हारा बाप।” और सेठजी को क्रोध आने लगा। “हिम्मत तुम लोगों की अब काफी बढ़ गयी है। अवज्ञा का अंजाम जानते हो।”
धनपत ने दौड़कर सेठजी के पैर पकड़ लिए। “क्षमा हुजूर क्षमा।”
सेठजी क्षमा-वमा के मिजाज में नहीं थे। “खोल दो धोती। गरम-गरम लोहे से दाग दो जाँघ।” और हरदयाल के देखते ही देखते उसके पिता की जाँधों को दागते देख उसका खून खौलने लगा। क्रोध में लोहे की छड़ हाथ में पकड़ सेठ के चेहरे से चिपका दिया। इससे पहले कि सेठ सँभल पाते वह भाग खड़ा हुआ। सेठ के आदमी भाग कर सेठ को सँभालेन लगे। इस हड़बड़ में किसी का भी ध्यान हरदयाल पर न गया। वह बेतहाशा जंगल की तरफ भागा जा रहा था। मौत उसका पीछा कर रही थी ओर वह जिन्दगी की मोहलत चाह रहा था। हरदयाल का पिता बेहोश हो गया।
रात की तीव्रता थी जंगल में, गहनता बिल्कुल हरदयाल के जीवन की तरफ तीखी और अंधकार की तरह गहरी। उसे खुद होश न था कि वह किस दिशा में आगे चलता जा रहा है। जीवन कभी-कभी दिशाहीन हो जाता है। हवा के झोंके उसे जिधर मोड़ना चाहें उसके तो आगे मौत दिख रही थी और पीछे भी। मौत से लड़ना और चुनौती देना ज्यादा महत्वपूर्ण होता है न कि उसके गले लगकर वरण करना। क्योंकि मौत को हराकर जो जिन्दगी मिलती है उसमें तो पूरा जीवन का रहस्य छिपा रहता है। मौत तो पराजित होकर लजाती हैं जीवन उससे कहीं ज्यादा कीमती है।
और वह अदृश्य शेर और चीतों के बीच बढ़ता गया। पर अब कहाँ शेर कहाँ चीते। मनुष्यों के बढ़ते कदम ने काफी प्राणियों को धारा की छाँव से विलोपित कर दिया है। हर तरफ मनुष्य। और हरदयाल बेहोश होकर गिर पड़ा। वह कितनी देर बेसुध पड़ा इसका उसको भी भान न था। जब होश आया तो कुछ युवकों को कानाफूसी करते हुए पाया।
जंगल गहरा था। सन्नाटा और अंधकार और भी गहरा। शेर और चीते से भरे जंगल में सिर्फ गीदड़ों की आवाज सुनाई पड़ रही थी। धीरे-धीरे मशालों का हुजूम और पास आ गया। हरदयाल को लगा कि अब गया कि तब। अंधकार इतना गहरा कि हाथ को हाथ नहीं सूझता था और उसी में सिर्फ मशालों की रोशनी का प्रकाश चेहरे पर पड़ रहा था। युवक मजबूत कदकाठी के गठीले बदन के थे। उनका जत्था एक गाँव की तरफ आगे बढ़ रहा था।
“कौन है।” एक कड़कदार आवाज ने उसका स्वागत किया। आवाज में इतनी बेरूखी और तल्खी थी कि उसके पूरे शरीर में सिहरन दौड़ गयी।
हिम्मत करके बोल पाया-“जी हरदयाल।”
और हिम्मत बटोकर अपनी पूरी कहानी सुनाने में सक्षम हो गया।
उस नेता टाइप आदमी की आँखों में खून उतर आया। हरदयाल एक कदम पीछे हटकर आँख बंद करके मौत का इंतजार करने लगा। इसी क्रम में उसने ईश्वर का स्मारण भी करना शुरू कर दिया। जब काफी देर तक कुछ न हुआ तो उसने धीरे से आँख खोली पर नेता पर चेहरा डरावना प्रतीत हो रहा था। उसकी पकड़ अपने तमंचे पर कसी हुई थी। शायद अपनी भावनाओं को बटोरकर नियंत्रित करने का प्रयास कर रहा था।
एक भद्दी-सी गाली से उसने अपना भाषण शुरू किया-“क्या समझ रखा है इन ठेकेदारों ने। अब भी हम लोगों को इतना सता लेंगे......साले कहीं के। ऐसी खबर लेंगे कि जीवन-पर्यन्त होश ठिकाने लगा रहेगा।” और वह क्रोधवश बोलता रहा। क्रोध में उसका शरीर काँप रहा था। हरदयाल भी डर के मारे काँपने लगा। किसी बड़ी अनहोनी की आशंका में उसका कलेजा मुँह को आ गया। हिम्मत बटोरकर पूछा-“क्या मैं घर जा सकता हूँ।”
वह नेता टाइप आदमी जिसका नाम संपत है बाद में पता चला, उसको घूरकर बोला-
“घर.....!कायरों के घर। शोषितों के घर। गुलामों के घर। अरे ऐसे घर जाकर क्या करोगे? हिम्मत है तो आओ अपने बाप-दादाओं की यन्त्रणा का बदला लो। इज्जत की मौत गुलामी की जिन्दगी से लाख गुना बेहतर है। अरे वहाँ रहकर जीवन भर घास काटते रहोगे। हमारे साथ रहोगे तो संघर्ष कर अपने लिए एक नया जीवन बनाओगे। सोच लो फिर बोलो।”
हरदयाल जमीन की तरफ देखता रहा। रह-रहकर पिता का चेहरा, उनका अपमान आक्रोश बन उसके अन्दर फूटने लगा। वह जोर से चीखा-“नहीं मेरे पिता का सर अब नहीं झुकेगा। मैं उनको अब अपमानित जीवन नहीं जीने दूँगा। मैं लडूँगा तब तक जब तक अपना हक नहीं पा लूँगा। बोलिए क्या काम करना होगा।”
सम्पत हँस पड़ा-“पता चल जायेगा।” और बहुत जल्दी ही उसको भी पता चला।
सामने लाशों का ढेर लगा हुआ था। बड़े थे, बूढे़ थे। एक आध बच्चे भी थे। सम्पत के लोगों ने पूरे गाँव के अन्दर प्रवेश किया था। एक वर्ण विशेष, को मारकर चलता बना था। सोते हुए लोगों को सुलाने में ज्यादा वक्त नहीं लगा था। पर हरदयाल की समझा में नहीं आया कि जिन लोगों को मारा गया था उनकी गलती क्या थी। शायद किसी जाति का होना था तो भी वह सब बेबस उसकी तरह ही गरीब थे। पर वह यह प्रश्न सम्पत से न पूछ पाया। कुसूरवार तो कोई और था फिर सजा इन निरीह को क्यों? पर उसने सम्पत से इतना जरूर पूछा-
“बाबा मैं वापस जाना चाहता हूँ......जाऊँ! इतना खून देखकर मन डर गया है।”
संपत बाबा उसको देखते रहे फिर पास बुलाकर बोले, “बेटा इतिहास गवाह है बड़े-बड़े युद्ध, बड़ी-बड़ी क्रांतियाँ बिना खून के क्या कभी पूरी हुई हैं। आज तुमने कत्ल किया है कल तो तुमको भी अपने खून का बलिदान करना पड़ सकता है। ये मत भूलो तुम पूरी कौम की आजादी की लड़ाई लड़ रहे हो। तुम्हारी वीरता पर हम सबकी स्वतंत्रता टिकी है। कायरों की तरह से बात नहीं करो।” फिर थोड़ा सोचकर बोले, “तु तब भी जाना चाहो तो जा सकते हो पर मत भूलो तुम्हारा प्रतिशोध अभी पूरा नहीं हुआ है।”
हरदयाल के सामने उन औरतों का बिलखना घूम गया, जिन्होंने अपना पति खोया था। उन माताओं का रूदन जो अपने बेटे की अर्थी पर गश खा-खाकर गिरी जा रही थीं। उसकी अपनी माँ का चेहरा उसकी आँखों के सामने घूम गया। कितने प्यार से वह भोजन बना उसको खिलाती थी। बीमार पड़ने पर वह उसकी देखभाल करती थी। वह माँ को याद कर रोने लगा। उसके कदम अनायास ही माँ की तरफ बढ़ गये। वह इस संघर्ष को नहीं झेल पायेगा। उसके अन्तर्मन ने उसको धिक्कारा। किन भावनाओं में वह बह गया। भूल गया पिता का संघर्ष, कौम का
संघर्ष, अपना संघर्ष। तू भगोड़ा कहलायेगा, भगोड़ा......। और वह अन्दर से आती हुई आवाजों से भागने लगा। वह भाग रहा था अनजान राहों पर, पर वह भागते-भागते फिर सम्पत बाबा के चरणों में गिर पड़ा।
“बाबा मैं लडूँगा। आजादी की लड़ाई लडूँगा। इन्कलाब जिन्दाबाद। सेठ-साहूकार मुर्दाबाद।”
और सम्पत ने उसको गले से लगा लिया।
संपत बाबा बूढ़े हो चले थे और हरदयाल जवान। किसी भी क्रांति को नौजवानों के खून की आवश्यकता होती है। लिहाजन हरदयाल बाबा की जगह लेता गया। पर बाबा के साथ क्रांति भी बूढ़ी हो रही थी। वह पहले-सा जज्बा अब कहाँ था। धीरे-धीरे समूह में संगठन और धन दोनों ही आने लगे थे। धन उद्देश्य को कमजोर करता है और वही हुआ जो धन के आने से होता है। इस क्रांति के नेता अमीर हो गये और कार्यकत्र्ता फटी बनियान में मात्र सेवक। हरदयाल की जीवन शैली में भी काफी फर्क आने लगा था। गाँव में उसका दबदबा काफी बढ़ गया। कच्ची-मिट्टी का मकान पक्का हो गया। जीवन के स्तर में भी सुधार आ गया। कार्यकर्ताओं को जब भी फुरसत मिलती उसके खेतों पर भी आकर काम कर लेते थे। अब तो खेत भी बंधक से छूट गये थे।
एक दिन हरदयाल गाँव में मोटरसाइकिल से जा रहा था। रास्ते में उसकी भेंट साहूकार की बेटी से हो गयी और हरदयाल उसके रूप-लावण्य पर मोहित हो गया। वापस जाकर अपने विश्वासी हीरा से बोल, “साली बहुत ही सुन्दर है। किसकी बेटी है।”
“साबजी साहूकार की।”
“जा उठा ला।”
“साबजी......।” हीरा आगे कुछ कहना चाहता था पर......।
और कार्यकर्ताओं में असंतोष बढ़ गया।
धन और प्रतिष्ठा अपने साथ दर्प लाती है और गुणों हा ह्रास। धन के मद को पचा पाना कठिन हो जाता है। और वही हुआ। हरदयाल अपने मार्ग से भटक गया। वह जिन सेठों से उनके अवगुणों के कारण चुनौती के लिए खड़ा हुआ था उसी पाताल में स्वयं गिर गया और उसके खिलाफ असंतोष प्रबल हो गया पर शीर्षस्थ के डर से कोई भी मुकाबला कर पाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा थां पर गुपचुप ढंग से उनके बीच ही एक नेता तैयार हो रहा था जो नेतृत्व की क्षमता रखता था। वह सही मौके की तलाश में था और आज मानो सही मौका आ ही गया। सेठ के साथ मिलकर उसने हरदयाल की पत्नी की डोली सेठ के यहाँ उतरवा ली। हरदयाल क्रोध और अपमान की ज्वाला में धधक उठा और दूसरे दिन सेठ के यहाँ अपने लाव-लश्कर के साथ धावा बोल दिया। काफी खून-खराब हुआ। पर चूँकि सेठ के आदमी इसके लिए तैयार थे अतः हार हरदयाल की हुई और वह मारा गया।
नेता जिसका नाम मंटू था मृतकों के सीने पर तांडव कर रहा था। यह उसकी जीत थी। अब वह जातिगत लड़ाई का शीर्षस्थ नेता था।
“हरदयाल की पत्नी का क्या करें?” सेठ ने पूछा।
“अरे कुड़ी है, वही करो जो कुड़ी के साथ करते हैं।” रूपा का रूप-सौन्दर्य छिन्न-भिन्न हो गया। वह स्त्रीत्व की लड़ाई हार गई।
वक्त यूँ ही चलता रहता है। संघर्ष होता रहता है। पर इंसान लड़ाई स्वयं से ही हारता है और बाजी वक्त ले जाता है। आज भी हम अपनी जाति का दंम भर रहे है। सदियों की परंपरा यूँ नहीं टूटती।