काफी बड़े पैमाने पर जलसे का आयोजन हुआ था। समाजसेवियों का जमावड़ा था। मुख्यतः इसमें शहर की चुनिंदा प्रतिष्ठित महिलायें थी जो अपना कीमती वक्त पार्लर और रेस कोर्स से बचाकर मानवता के कल्याणार्थ देती थीं, अभी इंसानियत मानो बाकी थी। होती भी क्यों न, शहर के बड़े-बड़े समाजसेवियों का आज गण़तन्त्र दिवस के अवसर पर अभिनंदन समारोह रखा गया था। शहर के क्लब के प्रेसिडेंट, सेक्रेटरी, आॅफिसर्स और जानी-मानी तमाम बड़ी हस्तियाँ मौजूद थी। अपना पैसा और समय समाज की सेवा में लगाते थे, जाहिर है समाज का भी दायित्व बनता था कि और कुछ न सही तो कम से कम उनको सम्मान तो दे ही सकता था।
महफिल में थोड़ी-बहुत कानाफूसी हो रही थी। सब के सब मुख्य अतिथि के आने का इंतजार कर रहे थे। मुख्य अतिथि यानी मिनिस्टर साहब को आने में थोड़ा विलम्ब हो रहा था।
तभी मिसेज हलधर ने मिनिस्टर साहब को मोबाइल पर फोन किया।
’’ सर कितनी देर में आपका आना हो रहा है। यहाँ सब तैयार है।’’ मिसेज हलधर शहर के बहुत बड़े सर्जन की पत्नी थीं और रोटरी क्लब की प्र्रेसिडेंट। वह हर उस जगह मौजूद रहती थीं जहाँ कुछ भी घटित होता था, अपने क्लब के बैनर और कैमरे के साथ। इस छोटे से शहर में जब लोगों का जमावड़ा होता था तो एक जलसे के रूप में तब्दील हो जाता था। छोटा-सा एक ही समुदाय था जो समाज के प्रतिष्ठित वर्ग में बार-बार अपनी उपस्थिति दर्ज करता था और कमोवेश हर समारोह में यही समुदाय घूम-फिरकर दिखाई पड़ जाता था।
आज का दिन माकूल दिन था जिस दिन हर शख्स कहीं न कहीं सम्मिलित होना चाहता था। आज के दिन हर कोई शहरी समारोह और जलसे में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए बेताब रहता था।
’’बस मैं रास्ते में हूँ। तुम लोग स्वागत की तैयारी करो।’’
’’जी सर।’’
मोबाइल रखते ही वह एक्शन में आ गयीं। किसी को इधर खड़े होने का निर्देश मिला तो किसी को उधर। मुख्य अतिथि के पहुँचते ही समस्त लोग उनकी गाड़ी की तरफ लपके। दरवाजा खोलकर उनको मंच पर ले गये। स्वागत भाषण के बाद मुख्य अतिथि ने काफी विस्तार से इन सब महानुभावों के समाज के प्रति योगदान की चर्चा की और तारीफों के पुल बाँधे गये। ऐसा प्रतीत हुआ मानो समाज इन्हीं के कंधों के ऊपर टिका हुआ है।
फिर सबको सम्मानस्वरूप शाल भेंट किये गये। तड़ातड़ फोटोग्राफरों के कैमरे क्लिक होने लगे, टीवी वाले सम्मानित नागरिकों के सामने माइक लेकर लपके। पूरा समाँ उत्साहवर्धक हो उठा था। इधर मिसेज हलधर घूम-घूमकर सबों को शाम के डिनर के लिए बुला रही थीं। उनको भी बेस्ट प्रेसिडेंट का आवार्ड मिला था। शाम को उन्होंने एक पार्टी अपने घर पर रखी थी। अभी उपस्थित करीब-करीब सभी आगान्तुक उनकी मेहमानवाजी का लुप्त उठाने वाले थे। सबको बुलाकर वह अपने घर के लिए प्रस्थान कर गयीं।
शाम को दावत क्या थी मानो एक छोटा-मोटा जलसा-सा लगा हुआ था। शहर के तमाम बड़े और नामी-गिरामी लोग उपस्थित थे। मिसेज हलधर की तारीफ हर तरफ हो रही थी।
’’देखो कितनी कुशल महिला हैं। घर और बाहर दोनों में कितना अच्छा सामंजस्य स्थापित कर रखा है।
’’हाँ कुशलता तो है पर पति का भी तो बेहद सहारा है।’’ एक महिला नाक-भौं सिकोड़कर बोली। ’’वह करती क्या है! बस मौके पर पहुँचकर खड़े हो जाने से कोई समाजसेवी नहीं बन जाता है। अरे देख अगर कुछ भी बिना पति के योगदान के कर पाये तो मानें। दिन भर तो अपनी पै्रक्टिस छोड़ के इनके पीछे घूमता-फिरता है।’’ पहली महिला ने कोहनी मारी, ’’श्....श्.... देखो डाॅक्टर हलधर इधर ही आ रहे हैं।’’
मिस्टर हलधर पूरी पार्टी में गौरा महसूस कर रहे थे और घूम-घूमकर सभी का स्वागत कर रहे थे।
’’ और कुछ लीजिए। अरे वेटर इधर ड्रिंक्स लेकर आना। मैडमजी किसके साथ लीजिएगा, सोडा या पेप्सी के साथ। शर्माजी आइये-आइये। बस आप ही का इंतजार था। अरे शर्माजी को वोदका सर्व करो। खास करके आपके लिए बाहर से मँगाई है। इण्डियन तो आप पीते नहीं।’’
तभी डाॅक्टर साहब का मोबाइल बज उठता है। क्लिनिक से फोन है।
’’डाॅक्टर साहब एक मरीज बहुत ही सीरियस अवस्था में भरती हुआ है, ट्रक से टक्कर हुई है। नहीं-नहीं हैड इंजरी नहीं दोनों टाँगें बुरी तरह से जख्मी हो गयी हैं। आॅपरेशन कर राॅड डालनी पड़ेगी।’’
’’अरे विनोद अभी मैं कैसे आ सकता हूँ। मरीज गरीब है या अमीर?’’
’’सर गरीब है। साथ में माँ और बीवी है।’’
’’अरे सँभाल लो विनोद। अभी पार्टी शुरू हुई है। देखो मैं दवा समझा देता हूँ। तुम उसको बोलो सुबह तक इंतजार कर ले। मेरी फीस भी बता देना, अभी भर्ती किये लेते हैं, आॅपरेशन पैसे मिलने के बाद शुरू करेंगे। नर्सिंग होम का किराया भी बता देना।’’ और मोबाइल आॅफ हो गया।
डाॅक्टर साहब फिर से सबको खिलाने-पिलाने में मशगूल हो गये। पी के चढाने के बाद तो उनको होश ही नहीं रहता था। म्यूजिक चलने के बाद तो वह किस भाभीजी के साथ डांस कर रहे थे और कैसे कर रहे थे उन्हें तो इसका ध्यान भी नहीं होता था।
पार्टी खत्म होते-होते फिर विनोद का फोन आ गया।
’’सर उसको इंजेक्शन तो दे दिया है पर उसकी पत्नी आपसे मिलना चाहती है। कह रही थी कि डाॅ0 साहब का काफी नाम सुना है। वह मुझ दुखियारी की मदद करेंगे।’’
डाॅ0 साहब के मुँह से एक भद्दी-सी गाली निकली-’’क्या मैंने पूरे इलाके के गरीबों का ठेका ले रखा है। सुबह देखेंगे। अभी छोड़ो ये सब। मूड मत खराब करो। जाने कहाँ-कहाँ से भिखमंगे चले आते हैं। औकात भी नहीं देखते। मेरा कोई खैराती अस्पताल है या फिर मैं कोई सरकारी डाॅक्टर हूँ। जिसको देखो खैरात माँगने चले आते हैें और हाँ रात में फोन करके परेशान मत करना। सोने दो। मैं काफी थक गया हूँ।’’
और सचमुच वह पलंग पर ऐसे लुढ़के कि उनको होश नहीं रहा।
सुबह-सुबह विनोद ने ही फोन से उठाया, ’’साहब मरीज थोड़ा सीरियस है। पर बुढ़िया बोल रही है शाम तक पैसे का इंतजाम हो जायेगा। शायद गाँव वाले चंदा करके दस हजार तक इक्ट्ठा कर देंगे। बाकी पैसा भी वह एक-दो दिन में इकट्ठा कर दे देगी।’’
’’ठीक है तुम आॅपरेशन की तैयारी करो मैं बस पहुँचने वाला हूँ।’’
पत्नी की भी नींद तब तक खुल चुकी थी। ’’कहाँ जा रहे हो?’’
’’कुछ नहीं एक इमरजेंसी है।’’
’’ओफ .... सिर्फ काम और काम, और इसके अलावा भी कुछ आपको नजर आता है! आज बच्चों को पिक्चर लेकर जाना था।’’ मिसेज हलधर थोड़ा रूष्ट होकर बोलीं।
’’अच्छा बाबा ले चलेंगे जरा नर्सिंग होम होकर आते हैं। कुछ पैसा होगा तभी न खर्च कर पायेंगे।’’ डाॅक्टर साहब तैयार हुए और सीधे क्लिनिक चले गये।
शराब का सुरूर अभी भी उन पर था। अतः आॅपरेशन करते हुए हाथ काँप रहे थे। ऐसे भी मरीज कोई मुख्य व्यक्ति तो था नहीं कि डाॅक्टर साहब आॅपरेशन थोड़ा सीरियस होकर करते। जैसे-तैसे आॅपरेशन करके बाहर आये।
’’देख लेना शाम तक पैसे जमा हो जायें नहीं तो अपने नर्सिंग होम में हम रख नहीं पायेंगे। यह बात साफ-साफ बोल देना। वर्ना होश आते ही उठाकर फेंक देना।’’
डाॅक्टर साहब और मरीजों को देखने में व्यस्त हो गये। इसी बीच मंत्रीजी का फोन आया। उनकी पत्नी को पेट में दर्द था। दो-तीन डाॅक्टर पहुँच चुके थे। इनको भी तलब किया गया था। चलते-चलते विनोद को बोले कि और मरीजों को बैठाकर रखो, मैं मंत्रीजी के यहाँ से होकर आता हूँ।
शाम होते-होते उस मरीज की बूढ़ी माँ कुछेक पैसे का इंतजाम कर लायी थी। विनोद को देकर बोली कि बहुत जल्दी ही वह सारे पैसों का इंतजाम कर देगी। गरीबी में शायद एक विवशता होती है।
धीरे-धीरे मरीज को होश आ गया। उसकी दोनों टाँगों में राॅड डालनी पड़ी थी। पर अभी उसकी हालत पूरी तरह से सुधरी नहीं थी। रह-रहकर बेहोश हो जाता था।
’’डाॅक्टर साहब उस मरीज का क्या करें?’’ तीसरे दिन भी जब उसको होश नहीं आया तो चिंतित स्वर में विनोद बोला।
’’अरे करना क्या है। दो-एक दिन और रख लो। फिर भी ठीक नहीं होता तो बाहर निकाल देना। ऐसे भी कौन-सा अपना कुछ लगता है, पैसा भी पूरा जमा नहीं कर पा रहा है। कहाँ तक ढोते रहेंगे।’’ दूसरे दिन मरीज को उठाकर बरामदे में डाल दिया गया। उसके जख्म पर मक्खी भिनभिना रही थीं। मरीज तो बरामदे में पड़ा कराह रहा था। उसका साढ़े तीन साल का पुत्र रह-रहकर बेचैन हो उठता था।
’’माँ घर चलो माँ। भूख लगी है।’’ और उसकी बेबस बीवी बच्चे को बहलाने के लिए उसका मूँह अपने आँचल में लगा देती और बच्चा थोड़े से दूध की अनुभूति से चुप हो जाता। इतने दिन से उसने भी ठीक से नहीं खाया था तो पूरा दूध उसको भी नहीं उतर रहा था।
इस समय प्रश्न भूख का नहीं था, प्रश्न जिन्दगी का था, पति की जान बचाने का था। पति की स्थिति देख-देखकर उसका कलेजा मुँह को आता था। होश में आने पर भी गफलत की स्थिति में रहते थे। शाम को जब डाॅक्टर साहब पहुँचे तो उनका पैर पकड़ वह बिलख पड़ी।
’’डाॅक्टर साहब मेरे सुहाग को बचा लो, यही एकमात्र सहारा हैं। घर में खेती-बारी भी नहीं है जो उससे गुजर-बसर हो। हम पर दया करो।’’
शायद रोने का भी उनके ऊपर कोई असर नहीं पड़ा।
’’विनोद मरीज को क्या हुआ है?’’
’’डाॅक्टर साहब शायद दाहिने पैर की राॅड में पस आ गया है। जहर शरीर में फैल रहा है। दवा लिखकर दिया था पर यह उसका इंतजाम नहीं कर पाये।’’
’’उपाय?’’
’’कुछ नहीं, अगर उसको ज्यादा दिन रखेंगे और कहीं मर गया तो उल्टे लेने के देने पड़ जायेंगे।’’
’’ठीक है शाम को डिस्चार्ज स्लिप बना दो। जो भी दे डाँट-डपटकर रख लो और मुसीबत से छुट्टी करो। पर ये हुआ कैसे?’’
’’डाॅक्टर साहब राॅड में या तो जंग थी या फिर सिलाई ठीक से नहीं लगी है। जो भी है अगर ये हमारे यहाँ मर गया तो हमारे नर्सिंग होम की बदनामी होगी। आठ-दस हजार जैसे-तैसे करके दे देगी। बाकी अपनी बला से।’’ विनोद के दार्शनिक स्वर से डाॅक्टर साहब का हौसला बढ़ा।
’’सही बात है। अगर मरीज मर भी गया तो बुढ़िया की इतनी औकात भी नहीं कि दस लोग इकट्ठा कर पाये तो फिर हमें डरने की क्या जरूरत है।’’
शाम तक उस रोते-गाते मरते हुए मरीज की माँ से जितना भी बन पड़ा ले लिया और उसको उठाकर बाहर फेंक दिया।
मरीज की हालत रात बीतते-बीतते सीरियस हो गई थी। भोर होते होते वह इस दुनिया से चल बसा।
उधर शाम को डाॅक्टर साहब बाहर लाॅन में बैठकर चाय पी रहे थे। उनके एक-दो डाॅक्टर मित्र भी चाय में उनका साथ देने के लिए आ गये थे।
’’आजकल क्या चल रहा है अशोक?’’ अशोक शहर के नामी-गिरामी बच्चों के डाॅक्टर थे। ’’अरे चलना क्या है अभी-अभी तो लौटकर आया हूँ इंगलैंड से। नियोनिटल सर्जरी की काफ्रेंस थी। जगह-जगह से डाॅक्टर आये हुए थे। मैश्यूस्ट से भी डाॅक्टर जोन्स थे। काफी कुछ सीखने का मौका मिला। और तुम्हारा डाॅ0 चावला।’’
’’सब मजे में।’’ और डाॅक्टर अशोक हँस दिया। ’’दावत-वावत कब दे रहे हो।’’
डाॅ0 चावला खिसियाकर बोले-’’भाई बात तो एक ही है।’’
’’हाँ.....हाँ..... तुम तो कहोगे।’’
तभी डाॅ0 हलधर के मोबाइल पर घण्टी बज पड़ती है। डाॅ0 साहब उठकर लाॅन के एक कोने में आ गये जिससे ठीक से बात सुनी जा सके। ’’अच्छा कब हुआ? ठीक है उनको बोलो.... चिंता नहीं करें। हाँ-हाँ हम सब पहुँच रहे हैं। सभी यहीं हैं। अरे कैसी बात करते हो। मुसीबत में ही इन्सान न एक-दूसरे के काम आता है।’’ और उन्होंने स्विच बन्द कर दिया।
स्वर में चिन्ता थी, ’’डाॅ0 बत्रा का अपहरण हो गया है।’’
’’कैसे?’’ सभी के स्वर में चिन्ता
’’पता नहीं। आजकल का वक्त भी तो कितना खराब आ गया है। कानून व्यवस्था तो पूरी तरह चरमरा गई है। कब क्या हो जाये पता नहीं।’’
’’तुम सही कहते हो। इतना टैक्स भी दो फिर भी हम लोग सुरक्षित नहीं है।’’
’’हाँ तुम ठीक कहते हो। आज समाज के मूल्यों में इतना ह्रास हो गया है कि अब लोग डाॅक्टरों को भी नहीं छोड़ते। अरे एक पहले का समय था। डाॅक्टरों को लोग भगवान मानते थे। और अब देखो! यह दिन भी देखना पड़ेगा ऐसा कभी सोचा भी न था।’’
’’ अरे अभी सोचने का वक्त नहीं है। एक्शन का है। अगर अभी हम चुप बैठ गये तो हमारी आवाज दब जायेगी।’’ डाॅ0 हलधर थोड़ा उग्र स्वर में बोले, ’’हम धरना करेंगे, प्रदर्शन करेंगे, प्रशासन के खिलाफ नारेबाजी करेंगे।’’ उनके अन्दर का नेता और समाजसेवी जाग उठा था। ’’और अगर तब भी कुछ नहीं हुआ तो हड़ताल।’’
वैसे भी अब डाॅक्टर भगवान न रह गया था बल्कि किसी मिल के मालिक जैसी उसकी स्थिति थी जो हड़ताल की नौबत बीच-बीच में आ जाती थी।
सारे डाॅक्टर एकजुट होकर डाॅक्टर बत्रा के घर की तरफ चल दिये। सबमें आक्रोश भरा हुआ था।
डाॅ0 अशोक तो इंगलैंड वापस जाने की बात भी कर रहे थे।
’’यहाँ से तो अच्छा बाहर है। लोग आपके काम की कद्र तो करते हैं। वहाँ पर डाॅ0 बत्रा जैसे डाॅक्टर को सम्मानित किया जाता है न कि उनका अपहरण होता और न फिरौती में रूपये माँगे जाते।
मिसेज बत्रा हाॅल में बेहाल पड़ी हुई थी। ज्यादातर डाॅक्टरर्स की पत्नियाँ इकट्ठी हो गई थीं। सब उन्हें संभालने में लगी हुई थीं।
बत्रा साहब के ड्राइंगरूम में कल के जुलूस की तैयारी के विषय में वार्तालाप चल रहा था। पुलिस कप्तान को फोन करके उसकी सूचना दे दी गई थी। वह भी एड़ी-चोटी का जोर लगाये हुए थे। डाॅ0 बत्रा उनके अच्छे मित्र भी थे। बीच में वक्त निकालकर वह मिसेज बत्रा को सान्त्वना दे गये थे।
’’धीरज रखिए हम सब कुछ न कुछ हल निकालेंगे। मुजरिम बच के जाने नहीं पायेगा।’’
पर मिसजे बत्रा को कहाँ धीरज आ रहा था। उसका सुहाग इस समय मुसीबत में था, वह कहाँ अपने मन को समझा पा रही थी। सुबह से उसने खाना-पीना बन्द किया हुआ था। रह-रहकर बेहोश हो जाती थी।
डाॅक्टर बत्रा का दूसरे दिन भी कोई सुराग न मिला। अब तो पानी सर के ऊपर से निकल रहा था। शहर के नामीगिरामी डाॅ0 बत्रा दो दिनों से लापता थे और कुछ भी पता नहीं चल पा रहा था कि वह कहाँ गये। अच्छे-खासे अपने क्लिनिक से लौट रहे थे कि दो रिवाल्वरधारी नौजवानों ने जबरन उनको उठा लिया। गाड़ी में ही बैठाकर ले गये। अभी तक फिरौती की भी माँग नहीं हुई थी। मिसेज बत्रा के घर से डाॅक्टरों का बड़ा-सा जुलूस निकला। जिन्दाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगाते हुए सभी जुलूस के रूप में निकल रहे थे। सबके चेहरे पर क्षोभ और चिन्ता स्पष्ट थी। आगे-आगे पत्रकार और टीवी के आदमी चल रहे थे और पीछे-पीछे पुलिस की गाड़िया।
आखिर पूरे जुलूस को पुलिस के संरक्षण की जरूरत थी। जुलूस कमिश्नर कार्यालय के समीप पहुँच रहा था। वहाँ उनको ज्ञापन देना था। रास्ते में डाॅ0 हलधर की क्लिनिक पड़ती थी। जैसे ही जुलूस वहाँ पहुँच कि ठेलागाड़ी पर उस मरीज की लाश लेकर उसका परिवार जा रहा था। दो दिन पुरानी लाश महकने लगी थी। ठेलागाड़ी वाला मददगार इन्सान निकला और उसने मुफ्त में उसकी लाश को उठा श्मशान पहुँचाने का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया। रोती-बिलखती बीवी, कलपती माँ और दुधमुँहा बच्चा लाश का साथ दे रहे थे। ठेलागाड़ी वाले ने जुलूस देखकर रास्ता बदल लिया। खामख्वाह जुलूस जनाजे को रोक लेगा। वैसे भी लाश से गंध आ रही थी। इंसान भी इस कदर सड़ी-गली लाश में तब्दील हो जाता है कि उससे सड़ाँध आने लगती है। शायद उस जुलूस में जिसका डा0 हलधर नेतृत्व कर रहे थे एक सडाँ़ध ही आ रही थी। समाज शायद कबका सड़ चुका था।