इस देश की तबियत विचित्र है। यहाँ पुलिस का अर्थ भगवान् से लगाया जाता है, पुलिस कप्तान तो अपने-आप को विष्णु के अवतार से कम नहीं ही आँकते हैं। अब जैसे विष्णुजी चाहकर भी समस्त प्राणियों के कष्ट नहीं हर सकते तो उनके बनाये इंसानों की क्या मजाल जो वह समस्त लोगों की दुख-तकलीफ सुनकर उसका तुरन्त निदान दे दें! अरे भाई लोगों को समझना चाहिए कि भगवान् से ऊपर किसी की कल्पना करना भी कोरी मूर्खता है। राम-राम! कितना पाप लगेगा! हमारा देश ठहरा अत्यन्त धर्मपरायण देश, तभी तो इस देश में ईश्वर के नाम पर बड़े-बड़े कत्लेआम हो जाते हैं।
लेकिन पुलिस तो पुलिस है। सर्वोपरि अविनाशी, अप्रतिम, महिमामंडित, आनन्ददाता, दुखहर्ता!! अरे-अरे रहम करना वह तो सर्वज्ञाता भी है। कहीं पर कुछ भी बुरा होने वाला हो इसकी खबर पुलिस को रहती है जैसे ईश्वर को भी सारी घटनाओं की खबर रहती है, अब यदि ईश्वर कुछ नहीं कर पाता तो भला पुलिस कैसे कर पायेगी।
हाँ, पर हमारे देश की पुलिस भूतकाल में किसने क्या किया और भविष्य में कौन क्या करेगा सबका इल्म रहता है।
भगवान्-पुलिस और उसके भक्त की एक कथा याद आ रही है।
राजेन्द्र नगर काॅलोनी में एक दादा है, नाम है मुख्तार सिंह। बड़ी-बड़ी मूँछें उससे भी बड़ी आँखें। चेहरे पर चेचक के दाग, ले-देकर छोटा-मोटा डरावना चेहरा। मूँछों को पिलाने और घना बनाने में काफी तेल चाहिए, इसके लिए पैसा तो चाहिए ही। दिन बीत जाता था कसरत करने में, अब बची रात। बिन पैसे जिन्दगी
बेकार है, यह उसको पता था। समय कितना मूल्यवान है इसका उसको पूरा-पूरा ज्ञान था। इसी लिए दिन का सदुपयोग वह गाढ़ी कमाई उगाहने में करता था। जिन लोगों ने गाढ़ा कमा-कमाकर रखा है और रात निद्रा देवी की गोद में खर्राटा भरकर सोते हैं तो भला उस धन की सुरक्षा कौन कर पाएगा। दीवाली के दिन भी तो रात भर पहरा देना होता है तब जाकर लक्ष्मी मैया की कृपा होती है। लक्ष्मीजी का तो वाहन भी उल्लू है ठेठ निशाचर, उसको तो रात में ही दिखता हैं अगर लक्ष्मी को रात में सुरक्षा की जरूरत न पड़ती तो वह काहे ऐसा वाहन चुनती। वह ठहरी चंचला-एक जगह ज्यादा मन नहीं लगता है।
वह इन्सान जिसके यहाँ लक्ष्मी आ जाती है वह यह भूल जाता हे कि कितना योग्य वाहन लक्ष्मीजी को प्राप्त है। अगर मूड किया तो रात में भी चल दे सकती हैं।
मुख्तार सिंह राम में लक्ष्मीजी को ढ़ूँढने में व्यतीत करता और दिन में वह कांटेक्ट बढ़ाता। वह बड़े-बड़े लोग से गप्पें लगाता और मित्रता बढ़ाता। कांटेक्ट का जमाना था, पता नहीं कब कौन काम आ जाय। इसीलिए मुख्तार सिंह बड़े-बड़े लोगों से संपर्क रखता था। उसी में से एक उस इलाके का दारोगा था। था तो अक्खड़ और मुँहफट, थोड़ा-थोड़ा सिरफिरा भी पर इन सबसे क्या फर्क पड़ता है, आदमी काफी काम का ही था। इधर मुख्तार सिंह का बिजनेस मंदा चल रहा था, आमदानी भी ठीक-ठाक नहीं थी। इलाके में सभी सतर्क हो गये थे, कुछ एक ने तो कुत्ते-बिलली पाल लिए।
इनमें कुत्ते तो काफी इफेक्टिव थे घर की पहरेदारी में, पर बिल्ली थोड़ा भारी थी। घर की रखवाली में जीरो, उलटे चोरी से दूध भी पी जाती थी। एक दिन दारोगा ने आकर पूछा, “क्या मुख्तार दिन भर पड़े-पड़े खाट तोड़ते रहोगे यार।”
“क्या करें साब! कुछ समझ में नहीं आ रहा। इधर तो हफ्ता से ही काम चलाना पड़ रहा है। कहीं चोरी करने का मौका ही नहीं हाथ आ रहा।”
“अरे हाउस नं0 सात का चैकीदार कल ही तो आकर कह रहा था कि उसके साहब परसों शादी में गये, बहू का काफी सारा जेवर लाॅकर से निकालकर ले गये थें अभी तक अन्दर नहीं रखा है। हाथ साफ कर दो, मोटा आसामी है। कुछ दिन ऐश से कट जायेंगे।”
मुख्तार सिंह को लगा कि दारोगा अच्छा दोस्त है। दोस्त हो तो ऐसा जो बुरे वक्त में काम आये, वर्ना बेकार।
“आज रात ही तैयारियाँ कर लेते हैं।”
“हाँ, मैंने चैकीदार से सब पता कर लिया है। सेठ दुकान से शाम को कोई आठ-नौ बजे आता है। घर में सिर्फ दो औरतें और एक छोटा बच्च रहता है।”
“यह रहा घर का नक्शा” दारोगा बोला।
“आप तो साब बड़े काम के हैं। मैं भी बाई और दूध वाले से बात कर लूँगा। आप निश्चिन्त रहें, सब हो जायेगा। इस काम में मेरा पन्द्रह साल का अनुभव है।”
दारोगा मूँछों पर ताव देता हुआ चला गया और मुख्तार सिंह काम में लग गया।
गीता का श्लोक है, ’कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’ काम की तैयारी वह जी-तोड़ से कर रहा था। दिन भर रिसर्च किया गया। मकान का अन्दर-बाहर से अध्ययन किया गया।
शाम होते-होते मुख्तार सिंह के दो-तीन परम मित्र भी इस काम के लिए तैयार हो गये। हर चीज, जैसे रस्सी, कट्टा, ओपनर सबकी तैयारी कर ली गयी। जैसी जरूरत पड़ी वही करने का निश्चय किया गया। अगर एक-आध को हलाल भी करना पड़े तो कोई बड़ी बात नहीं। वैसे मुख्तार सिंह ने अभी तक कोई खून-वून नहीं किया था पर उसको करने में हिचकिचाहट नहीं थी। इतनी जनसंख्या में अगर उसके योगदान से दो-चार खल्लास भी हो जायें तो देश का भला ही होगा। जनसंख्या नियंत्रण में वह कुछ मदद कर पायेंगे।
अँधेरा घिरते-घिरते वे लोग गंतव्य पर पहुँचे। बाहर गाड़ी नहीं खड़ी थी और एक मोटा -सा ताला लटका हुआ था। उसको समझते देर नहीं लगी कि सब लोग कहीं बाहर गये हुए हैं। चलो अच्छा हुआ काम आसान हो गया। वैसे मुख्तार का शरीर जरूर हाथी-सा था पर दिल चुहिया से ज्यादा बडा नहीं था। वह तो जीवित चुहिया से भी डरता था। किसी तरीके से ऊपर से कूद-फाँदकर घर के अन्दर पहुँच गया। इस पहुँचने के क्रम में एक दरवाजा भी शहीद हो गया, ज्यादा मजबूत नहीं था, शायद मकान मालिक अदूरदर्शी थे और किसी भी इस तरीके के हादसे के लिए समुचित मोर्चाबंदी नहीं कर पाये थे।
जो कमरा बहू का था उसके ताले को कट्टे से तोड़ा गया। अन्दर पहुँचने पर नजारा काफी उत्साहवर्धक था, शायद हनुमानजी की मनौती काम कर रही थी। उसने हनुमानजी को भी सवा किलो लड्डू खिलाने का वायदा किया था। हनुमानजी का परम भक्त था वह, तो ऐसा वक्त संकटमोचन की कृपा होना अनिवार्य था।
आलमारी खुली हुई थी। कपड़े अस्त-व्यस्त पलंग पर पड़े हुए थे। उसे सास पर बहुत गुस्सा आया कि बहू को जरा भी नहीं डाँटती है, कुछ भी सऊर नहीं सिखाया है, ऐसी फूहड़ बहू का क्या काम?
एकाएक उसकी बुद्धि जागी। वह यहाँ शिक्षा या प्रवचन देने नहीं आया है। वह तो धर्म के कार्य से आया है, जो काला धन सेठ ने तिजोरी के अन्दर भरा है उसको कुछ हल्का करने। आखिकरार टैक्स देने का कानून तो इनका पालन करना था। टैक्स नहीं दिया, अब पछताएँ।
यही सब सोचते-सोचते वह तिजोरी के पास पहुँच गया। तिजोरी की चाबी पास की खूँटी पर लटकी हुई थी। तिजोरी खोली, सामने का नजारा देखकर तो उसकी हृदय गति रूकते-रूकते बची, वैसे रूक भी जाती तो कोई बड़ी बात नहीं थी।
इतना जेवरात इतना जेवरात देखकर तो बड़े-बड़े बेहोश हो जाते। अब दो-चार महीने उसको काम करने की जरूरत नहीं पड़ेगी, लम्बा हाथ साफ किया था।
सब-कुछ आसानी से बटोरकर वह बाहर बाया। इसी बीच उसके कान में मेन गेट खुलने की आवाज आयी, लगाता है मकान मालिक आया। वह छत से दूसरे घर में कूद गया।
बहू ने घर के अन्दर कदम रखा तो अपने घर का हाल देख चिल्लाई, ’माँ मेरे कमरे की लाईट जल रही है।” उसका दिल अब कुछ धक-धक करने लगा। वह भाग के अपने कमरे में गयी और तिजोरी का नजारा देख गश खाकर गिर गयी।
उसके मुँह से बस इतनी-सी चीख निकली ’माँ’ और आवाज गले में अटक गयी।
सास दौड़ी-दौड़ी आयी। बहू का जेवर चला गया यह सोचकर पहले-पहल तो थोड़ी स्त्री-जन्य प्रसन्नता हुई।
चलो अच्छा हुआ-सब माँ का था। बड़ा घमण्ड था न उन जेवरों पर, चोर ले गये। कितना समझाया कि दिखावेबाजी कम कर, पर माने तब न!
फिर अफसोस हो आया। आखिर है तो मेरी ही बहू। उसका नुकसान मेरा भी तो नुकसान है।
हिम्मत करके पुलिए को फोन लगाया। उधर पुलिस का फोन टनटनाया। कड़कती आवाज आयी, “कौन, यह पुलिस स्टेशन हैं खामख्वाह लोग परेशान कर देते हैं।”
दारोगा फोन रखने ही वाला था कि आवाज आयी, “सर, मेरे घर में चोरी हो गयी है।”
“तो?”
“रपट लिखवानी थी।”
“पहले नहीं लिखवा सकती थीं। अब जब चोरी हो गयी हमारा वक्त बरबाद कर रही हो। चोर है कि भाग गया?”
“अगर चोर होता सर तो आपको फोन ही क्यों करते? काफी जेवर लेकर भाग गया है।”
“ओ अच्छा, पता।”
पता सुनते ही दरोगा की बाँछें खिल उठीं। मन ही मन सोचा, चलो काम ठीक से हो गया। मुख्तार सिंह भी भाग गया।”
“हम अभी पहुँचते हैं।”
इस बीच में बहू को भी होश आ गया। वह बाहर दौड़ी हुई गई और ’चोर-चोर’ चिल्लाने लगी।
उसकी आवाज सुनकर पूरा मुहल्ला इकटठा हो गया। मदद के लिए तो कोई आगे नहीं आया, पर अब सबके सब मजा ले रहे थे। इतनी मसालेदार घटना हो गयी थी कि उन्हें महीनों तक बात करने का शीर्षक मिल गया।
इसी बीच कोई आधा घण्टा विलंब से पुलिस आ गई, साथ में दो बड़े-बड़े कुत्ते थे। आते ही दारोगाजी के कड़े निर्देश शुरू हो गये-किसी चीज को हाथ नहीं लगाना। सब बाहर खड़े हो जायें। इसी बीच उसकी पारखी निगाह हर उस चीज पर जा रही थी कि कहीं मुख्तार सिंह कोई सुराग तो नहीं छोड़ गया है। जब वह सब तरफ से निश्चिन्त हो गया तो आराम से उसने कार्रवाई शुरू कर दी। एक-एक चीज को डण्डा चलाकर ठोंका। वह तो गनीमत थी कि डण्डा धीरे से चला नही ंतो इतने भारी नुकसान के बाद दो-चार चींजे और टूटतीं। बहू की सास अपने को दिलासा दे रही थी कि शुक्र है जो गया सो गया, अब उसके आगे कुछ न टूटे।
अनुसांधान कार्य तीजी से चल रहा था! खोजी कुत्ते अन्दर घूम-घूमकर चीजें सूँघ रहे थे। अब पता नहीं वह खाने को सूँघकर भौंक रहे थे या फिर उनको सोफे के
नीचे कोई चूहा नजर आ गया था जिसको पकड़ने की फिराक में थे। ये अच्छे-खासे तन्दुरूस्त कुत्ते थे माशा अल्लाह, क्या कदकाठी से ईश्वर ने उनको नवाजा था। दो-चार आदमियों का तो खाना वह इकट्ठे ही खा जाते थे। उनको देखकर अच्छे-अच्छे आदमी की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती थी, पर चोरों को कोई फर्क नहीं पड़ता था। पड़े भी कैसे, कुत्ते तो अच्छे-खासे कदरदान प्राणी हैं, जिसका खाते हैं उसी का बजाते हैं। अब चोरों की कमाई खायेंगे तो प्यार से दुम हिलायेंगे ही!
जब दारोगाजी काफी घूम-फिर लिए, हर चीज को टटोल लिया और उन्हें यकीन हो गया कि लोगों को अच्छे तरीके से बेवकूफ बना लिया है तथा अब तक मुख्तार सिंह इलाके से भाग गया होगा तो बोले-
“चोर कोई बड़ा शातिर आदमी था। रपट लिखवा दीजिए पर चिन्ता मत कीजिए, बच के जायेगा कहाँ साला पकड़ा जायेगा, जेल मेें चक्की पीसेगा तब अक्ल आयेगी, साले चोरी करते हैं।”
खानापूर्ति करके दारोगाजी बाहर निकले साथ में दोनों बुलडाॅक भी थे। दारोगाजी गाड़ी में बैठे, सबने उनको घेर लिया। दारोगाजी को लगा कि इतनी भीड तो नेताजी के आगे-पीछे रहती है। उनको अपना कद थोड़ा और ऊँचा लगा। सबको समझा-बुझाकर गाड़ी में बैठ गये।
मालकिन से बोले “आप निश्चित रहें। चोर बच के जाने नहीं पायेगा। अपने आपको ज्यादा स्मार्ट समझता है। बीच-बीच में मिलते रहियेगा और अगर आपको किसी पर शक जा रहा हो तो जरूर बताइएगा। हमें खोजबीन में मदद मिलेगी।”
दुआ-सलाम करके गाड़ी आगे बढ़ गयी।
थाने में गाड़ी पहुँची तो सारे मोबाइल सिपाही को उतार दिया दारोगाजी ने, “जरा मैं रात में गश्ती कर लूँ। शायद कुछ सुराग लगे। यह केस स्टेशन-डायरी में लिख तो, मैं आकर देख लूँगा।”
“जी सर।”
दारोगाजी ने गाड़ी गली के कोने की तरफ मोड़ दी। भगवान चल पड़े भक्त के द्वार। मुख्तार सिंह के अड्डे पर सन्नाटा था। दारोगा का दिल धड़का।
मन में ख्याल आया कि कहीं इतना बड़ा हाथ मारकर नीयत तो नहीं खराब हो गई। नहीं, ऐसा नहीं होगा। आदमी तो ईमानदार है। चोरी करता है तो क्या, पर ईमान का ठीक है। निगाह में गैरत है। फिर भाग के जायेगा कहाँ। आगे भी तो जरूरत पड़ेगी। पास पहुँचकर मुख्तार सिंह को देखकर उनकी साँस में साँस आयी। वह खटिया पर बेसुध पड़ा था। लगता है ज्यादा चढ़ा ली थी। वैसे भी धन और मदिरा का नशा होता ही ऐसा है जो इन्सान की सुध-बुध खत्म करके अपने ही आगोश में ले लेता है और इन्सान बाहरी दुनिया से कट जाता है, रह जाती है सिर्फ पिपासा-धन और सिर्फ धन की। दरोगा जी भी टेबल पर पड़ी हुई बची कुची गट्क गये। लंबा हाथ मारा था। रात मो अभी बाकी थी।