सुबह-सुबह विद्यालय में विद्यार्थी असेंबली में हिस्सा ले रहे थे। नये जमाने के बच्चे थे, नये जमाने की तहजीब सीखते-सीखते वह एक नये रंग में रँग गये थे। पूरी की पूरी सभा में किस्म-किस्म के बच्चे और सामने स्टेज पर एक अजीबोगरीब शारीरिक प्रशिक्षक जो बच्चों को हँसने का प्रशिक्षण दे रहे थे।
’’और जोर से मुँह खोलो, मुँह को गोल-गोल करेा, अब होंठ को पूरा कान तक खींचने का अभ्यास करो और पिक, अब हँसी निकली की तब...’’
सारे बच्चे सुबह-सुबह योगाभ्यास में हँसने का प्रयास कर रहे थे। हँसी को उनकी जिन्दगी का एक अहम् हिस्सा बनाने का प्रयास किया जा रहा था।
तभी पीछे से एक शिक्षक ने आकर एक बच्चे को धौल जमायी, ’’क्या तुम हँसना भी भूल गये हो ? या तुम्हें हँसना आता ही नहीं है। अरे, कुछ हँसी की घटना याद करके हँसने की कोशिश करो। तुम सब भी कितना बुड़बक हो कि हँसना तक नहीं जानता। अरे चलना सीख लिया, बोलना सीख लिया, और तो और झूठ बोलना सीख लिया, पर हँसना, क्या अब हँसन भी सिखाना पड़ेगा।’’ जोर का एक धौल पीठ पर जमाकर वह शिक्षक आगे बढ़ गया। उस अबोध बालक ने अपने दिमाग पर जोर डालना शुरू किया। हाँ वह हँसता था और मुस्कराता भी तो था पर.... कैसे और कब... यह उसको ठीक-ठीक याद नहीं आ रहा। शायद जब तक माँ का आँचल उसके सिर पर था, तब तक अपना खिलखिलाना उसको याद है। पर माँ के जाने के बाद एकाध बार सूनी आँखों से उसने पिता का मन टटोलने की कोशिश की थी पर पिता की कठोर आँखें उसका उत्साह शून्य कर गई। अब एक नया मंथन उस बालक के मन को मथने लगा। हँसने के नाम पर उसकी आँखें
डबडबा गई। नीर से भरा हुआ मेघ सहज फटने के लिए तैयार हो गया। उस नीर से भरे काले बादल को फटने के लिए किसी प्रलोभन या मनोयोग की जरूरत नहीं होती। वह तो बस अनायास उस बालक के नयनों से बरस पड़ता है।
माँ, नानी के यहाँ गई है। इतना उसको पता था। स्कूल में एकाध बार माँ ने फोन करने की कोशिश की थी। इन्चार्ज मेम ने उसको अपने चेम्बर में बुलकार माँ से बात भी करायी थी।
’’बेटा, तुम्हारी माँ का फोन है। बात कर लो।’’ और आँखों के कोरों से गिरते हुए पानी को हाथ से पोंछकर उसने फोन का चोंगा अपने हाथ में पकड़ लिया।
’’माँ, तुम कब आओगी। तुम्हारी बहुत याद आ रही है।’’
उधर से कुछ वार्तालाप हुआ और सन्नी ने कस के फोन के तार को हिलाया।
’’नहीं माँ, दीदी चाची के पास है। हाँ, पापा दीदी को वहीं छोड़ आये थे।’’ फिर उधर से कुछ संवाद हुआ।
’’माँ, पापा मुझे बहुत डाँटते हैं। आज तो टिफिन भी नहीं दिया। और बोर्डिंग में भेजने की बात कर रहे हैं। तुम कब आओगी ? माँ कब आओगी, जल्दी आ जाओ।’’ माँ से जल्दी आने का आश्वासन पाकर उसने फोन रख दिया। फोन के कटने के साथ ही वह समझ गया कि वह आवाज जो उसकी माँ की थी और काले बदनुमा फोन के चोंगे से आ रही थी, शायद अब हमेशा के लिए खामोश हो गयी है। उसने पापा को दादी से कहते सुना था कि ’इस औरत को जो गलती से उसकी पत्नी है, को तो मैं सबक सिखाकर ही रहूँगा। बहुत बनती है। औरतों को ऐसा रूप मन को नहीं भाता। बहुत गरूर है उसको अपने रूप पर। धूल न चटा दी तो देखना, जाये अपने मायके और रहे।’ और दादी को उसने जोर से ठठाकर हँसते देखा था। वही विद्रूप हँसी। ’नहीं वह ऐसे नहीं हँस सकता’ उसकी माँ उससे दूर हो गयी थी और दादी हैं कि हँस रही हैं। ’क्या लोगों को इन्हीं बातों पर हँसी आती है।’
अब उसकी पौटी कौन धुलायेगा, उसे गर्म-गर्म खाना कौन खिलायेगा ? दादी से एक बार पौटी धुलाने के लिए कहा था तो उन्होंने कैसे झिड़क दिया था, फिर दीदी को मदद करनी पड़ी थी। अब तो दीदी को भी पापा ने चाची के यहाँ भेज दिया है। अब क्या होगा! ये सोचकर उसको रूलाई आने लगी थी। दादी उसका रोना देखकर भी हँसती हैं। उसने छुप-छुपकर दादी को तैयार होते देखा है। इस उम्र में बाल सबके सब सफेद हो गये हैं पर देखों कैसे मेंहदी लगाकर घूमती हैं। सबके बीच में ऐसे बैठती हैं और जरा भी शर्म नहीं आती क्या ? माँ का तो हाथों में मेंहदी लगाना भी उन्हें पसंद नहीं था। वह कैसे माँ को डाँटती-फटकारती रहती थीं। गर्म-गर्म चिमटा से उसने दादी को माँ को पीठ जलाते हुए देखा था।
’’अरे कलमुँही, हाथों में मेंहदी लगाने का ऐसा ही शौक था तो अपने साथ एक दाई लेती आती। खुद महारानी-सी बनी बैठी रहती हो और मैं क्या तुम्हारी नौकरानी हूँ जो दिनभर काम करती रहूँ। तुम्हारा तो दिनभर श्रृंगार-पिटार में वक्त बीतता है, काम कौन करेगा, तुम्हारा बाप।’’ और उसकी दादी ने कस के माँ को पीठ पर जलता चिमटा दाग दिया। उस दिन माँ खूब रोई थी और दादी खूब हँसी थीं। माँ के आँसू पोंछता हुआ वह भी उसके पहलू में बैठ खूब रोया था।
’’हाँ उसको दादी की हँसी अभी तक याद है। उसमें खुब खनखनाहट थी और वह खनखनाहट उसके मन के अन्दर, कहीं बहुत अन्दर बस गयी थी और इसी खनखनाहट में उसकी स्वयं की हँसी कहीं गहरे तक दफन हो गयी थी। माँ एक दिन उसको और सबको छोड़कर नाना के यहाँ भाग गई थी। अब तो उसको होमवर्क कराने वाला भी कोई नहीं था। माँ के जाने के काफी दिनों तक तो उसके पापा ने उसको स्कूल नहीं भेजा था।
फिर जब स्कूल से शिकायत गई तो पापा ने किसी तरह भेजना शुरू किया और अभी स्कूल गये हुए मात्र दो दिन भी नहीं बीते थे कि दूसरे दिन ही कक्षा में टीचर ने उसको अपने पास बुलाया। ’’सन्नी!’’
’’जी मैडम!’’
और मैडम ने कापी उठाकर पूरी कक्षा को दिखाते हुए कहा, ’’क्यों सन्नी ये क्या है ?’’
और कापी में बना फोटो देखकर पूरी कक्षा में एक सम्मिलित हँसी का स्वर गूँजा। टीचर ने लाल घेरे से उसकी माँ की ड्राइंग को घेरा हुआ था।
’’क्यों सन्नी ये तुम्हें क्या होता जा रहा है! तुम कितने बढ़िया बच्चे हुआ करते थे। आजकल तुम्हारा दिमाग कहाँ रहता है ? ड्राइंग में। चित्र बना-बनाकर, क्या पिकासो बनना है ?’’
उसकी शर्ट के टूटे बटन में अपना पेन घुसाते हुए बोलीं, ’’तुम्हारी माँ क्या तुम्हारा ध्यान नहीं रखतीं। अरे इस फटीचर हालत में स्कूल आने से तो स्कूल न आना अच्छा है। कल अपनी माँ को बोलना कि आकर मिलेंगी।’’ और टीचर के इस वक्तव्य के बाद वह पूरी कक्षा की हँसी का पात्र हो गया। सबकी हँसी उसके कान में काफी देर तक गँूजती रही। और वह अपमानित-सा एक कोने में मुँह लटकाये बैठा रहा।
हाँ, वह महसूस कर रहा था सबकी निगाहों को और सबकी हँसी को। सब खिलखिलाकर हँस रहे थे पर उसकी हँसी गायब थी। उल्टे उसको रोना आ रहा था और साथ में माँ की याद भी। वह मन-ही-मन बुदबुदाया, ’’ माँ तुम कहाँ हो ? आओगी नहीं क्या ?’’ और हँसी के बीच उसकी गर्दन शर्म से झुक गई। कक्षा में मानो सहसा वह उपेक्षित और अकेला पड़ गया था। और सिर झुकाये हुए भी उसको महसूस हो रहा था कि सबकी आँखें उसके ऊपर ही टिकी हैं।
और सबकी हँसी का एक सम्मिलित स्वर उसके कानों में खिलखिलाहट बन गूँज रहा था। सब हँस रहे थे और वह सुबक रहा था।
तभी एक चपरासी ने आकर कक्षा में टीचर को उसके नाम की पर्ची पकड़ायी।
’’सन्नी!’’
’’ जी मैडम!’’ आँसुओं को अंदर रोकते हुए सन्नी बोला।
’’तुम्हे प्रिंसिपल मैडम बुला रही हैं।’’
आँखों के ही माध्यम से उसने मौन प्रश्न पूछा ’क्यों’ पर टीचर को निरूत्तर पा हतोत्साहित हो गया।
’’अरे, इतने महीने से फीस नहीं जमा होगी तो क्या तुम्हारा स्कूल आना उचित है।’’
सभी बच्चों की आँखो में उपहास का भाव झलक उठा। वह बिना पीछे मुड़े चपरासी का पीछा करते हुए प्रिंसिपल के कमरे की तरफ बढ़ गया। शुक्र है कि आँखें पीछे नहीं देख सकतीं क्योंकि वह हँसते और मुस्कराते हुए चेहरों से हर पल अपने को बचाना चाहता था। पर मुए ये कान हैं कि सब-कुछ सुन लेते हैं। और बच्चों का मखौल उससे छुपा न था। फीस के लिए उसको दो-तीन बार पहले भी टोका जा चुका था पर आज नौबत नाम काटने तक आ गई थी। और उससे चिढ़ने वाले बच्चों की तो बात बन आई थी।
आॅफिस में प्रिंसिपल की कुर्सी के पास पहुँचकर उसकी निगाहें नीची हो गई। वह प्रिंसिपल को मन-ही-मन चाहता था। उसको मैडम का उठना, बैठना, तैयार होना बहुत ही भाता था और उनकी मुस्कराहट में उसको अपनी माँ नजर आती थी। माँ जैसी हँसी, माँ की तरह खिलखिलाहट।
जब से माँ उसको छोड़कर गई है तब से उसकी हँसी पूरी की पूरी गायब हो गई है।
प्रिंसिपल के चेम्बर में उसके पिता भी मौजूद थे। एक भारी-भरकम शख्सियत, एक कठोर व्यक्तित्व। उसको वहाँ से भागने का मन कर रहा था। पिता की नजदीकी एक भय पैदा कर रही थी। उनकी समीपता से तो कक्षा के बच्चों की हँसी झेलना ज्यादा आसान था। वहाँ कम-से-कम अपनत्व तो था। पिता को तो उसने प्रिंसिपल को कहते सुना, ’’बस कुछ ही दिन के अन्दर मैं इसको बोर्डिंग में भेजने वाला हूँ। सोचिए ऐसी पत्नी से पाला पड़ा जो इतने छोटे बच्चों को छोड़कर बार-बार भाग जाती है।’’
मैडम की आँखों में एक उत्सुकता कौंधी और फिर दब गयी। ऐसे भी दूसरों का झगड़ा हमेशा कौतूहल का विषय रहता है। फिर उसकी माँ तो स्कूल आकर खूब तमाशा कर चुकी थी। हर एक शख्स से पिता की शिकायत करते हुए उसने माँ को खुद सुना था।
एक बार तो पापा ने रात में माँ को खूब मारा था और दूसरे दिन माँ रोती-पीटती हुई उसके स्कूल चली आयी थी। और सबको अपने तन पर लगी हुई चोट पीठ और जाँघ पर से साड़ी उघाड़-उघाड़कर दिखा रही थी।
उसके जाने के बाद स्कूल का सभी स्टाफ खूब कस-कस के उसका और उसकी माँ का नाम ले-लेकर हँस रहा था। कोई नहीं जानता कि रात में उसने माँ को पिटते देखा था और रातभर वह माँ से चिपककर उसके आँसू पोंछता रहा था। नहीं, वह अब नहीं रोयेगा। उसको तो माँ का सहारा बनना था। और सिसकी उसके हलक में ही अटक गई। बीच रात में एक बार जोर से माँ को दर्द हुआ, उसकी कराह निकली थी पर उसने माँ को अपने में भींच लिया था। हौले-हौले वह माँ के दर्द को महसूस कर रहा था और हर अहसास के साथ उसकी अपनी खुशी और हँसी का दायरा सिमटता जा रहा था और अगले सुबह तक तो उसकी हँसी पूर्णतः समाप्त हो चुकी थी। उसके बाद वह हँसना भूल सा गया था। कुछ ही दिन
बाद माँ घर छोड नानी के यहाँ चली गयी थी, ..... और सन्नी को दीदी के पास अकेला छोड़कर गई थी। जाते-जाते बस एक ही वाक्य बोल गई थी। ’’सन्नी का ध्यान रखना।
एक रात में सन्नी मानो जवान हो गया था। उसने हठ करना छोड़ दिया। अपने हाथ से खाना खाने लगा था, और तो और अब तो पौटी भी स्वयं ही धोता था।
कुछ ही दिन के बाद पापा ने दीदी को भी चाची के पास भेज दिया था। और अब तो वह सिमटकर झाग वाले पानी का बुलबुला हो गया था, उसका दर्द कभी भी फट सकता है। विडंबना ऐसी कि हर क्षण उस बुलबुले की परिधि बढ़ती ही जा रही थी, पर दर्द था कि फटने का नाम ही नहीं ले रहा था।
’’हाँ बताइये ना, आप भी तो औरत हैं, क्या कोई भी औरत अपने रोते-बिलखते बच्चों को ऐसे ही छोड़कर चली जाती है! अरे बड़ी ही बदचलन आवारा औरत है। पता नहीं किस घड़ी में ईश्वर ने उसका-हमारा साथ किया।’’ और इस वाक्य पर तो सन्नी की निगाह शर्म से झुक गई। वह बदचलन आवारा शब्दों को नहीं पहचानता था पर पापा, माँ को भद्दी गालियाँ दे रहे हैं इसका उसको अच्छे से अहसास हो रहा था।
’’अब आप ही बतलाइये कि इन बच्चों की परवरिश तो मेरा ही सिरदर्द है न। अब जैसे भी पालें पर पालना तो है ही।’’ सन्नी को ऐसा लगा मानो, टनों पत्थर उसके कंधे पर किसी ने लाद दिया है। एक बार उसका मन किया कि प्रतिकार करे पर हिम्मत न हुई। अभी वह ऊहापोह की स्थिति से उबरने का प्रयास कर ही रहा था कि उसे नीचे कुछ गीला-गीला सा महसूस हुआ। अरे, ये क्या उसने तो पैंट ही गीली कर दी थी। शर्म के मारे वह और भी धरती में गड़-सा गया। वह आँखें झुकाये खड़ा ही रहा और उसकी तन्द्रा तब भंग हुई जब प्रिंसिपल मैडम बाहर से आया को बुलाने के लिए घन्टी पर घन्टी बजा रही थी।
’’कितना असंस्कारी लड़का है। इतना बड़ा हो गया पर अभी तक बाथरूम मैनर्स न आया।’’ फिर आया को उसे बाहर ले जाने के लिए बोलकर मैडम सन्नी के पापा की तरफ मुखाबित हुई, ’’सच में, मैं आपकी दिक्कत समझती हूँ। बोर्डिंग छोड़ और कोई उपाय नहीं है।’’
और उसके कानों में आया की हँसी पड़ी, ’’क्या सन्नी, बाथरूम आये तो कम-से-कम बताया तो करो !’’ उसकी आवाज गा-गाकर इन शब्दों को चबा-चबाकर ऐसे बोल रही थी कि परिहास का अहसास उसको अच्छे से हो रहा था। आया का उसके हाथ पर इतना जोर था कि उसे एकबारगी लगा कि हाथ टूट जायेगा। वह भी कितना बुद्धू है कि उसने पैन्ट में ही पेशाब कर दी पर उसे पता क्यूँ नहीं चला ? शायद वह प्रिंसिपल मेम को देख घबरा गया था। या फिर अपने पिता के क्रोध का उसको स्मरण आ गया, माँ की तो वह खूब पिटाई करते थे। अब घर जाकर वह भी अच्छे से पिटेगा। पैंट की बेल्ट खोलकर पापा अच्छे से उसको मारेंगे।
उसको मैडम ने उस दिन पापा के साथ ही घर भेज दिया! रास्तेभर पापा की वह झिड़की सुनते गया था।
और दूसरे दिन से प्रातः विद्यालय में हँसी सिखाने का अभ्यास हो रहा था। सभी खिलखिलाकर हँस रहे थे। उसको ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो सब उसको ही देखकर हँसना सीख रहे हों। वह वहीं पर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। उसको पता ही न चला कि कब हँसी का दौर खत्म हुआ और कब राष्ट्रगान की समाप्ति पर पूरा स्कूल हरकत में आ गया।
अभी वह मनहूस शक्ल बनाता हुआ बैग उठा ही रहा था कि पीछे से बच्चों का एक रेला आगे बढ़ा और उसके ऊपर दबाव पड़ा। इससे पहले कि वह सँभल पाता वह लड़खड़ाया और गिर पड़ा। अभी तक जिस हँसी को लाने के लिए पूरे स्कूल में अभ्यास कराया जा रहा था वही हँसी का समवेत स्वर गूँजा और वह हताश-सा जमीन पर गिरा पड़ा रहा।
अभी तक जो टीचर उसे हँसने के लिए प्रेरित कर रही थी वही अब उसके ऊपर हँस रही थी। वह काफी देर तक तो झेंपता रहा और उठने में भी उसे दिक्कत हुई। काफी बच्चे उससे आगे निकल गये।
वह धूल-धूसरित जमीन पर पड़ा रहा और पता नहीं अचानक उसमें कहाँ से शक्ति आ गई या फिर माँ का अदृश्य रूप उसकी आँखों में कौंधा और वह धूल को शरीर से झाड़ता हुआ खड़ा हो गया। गिरी हुई कापियाँ उसने बैग के अन्दर डालीं और बिजली की फुर्ती से उठकर खड़ा हो गया। आँखों में उठते हुए नीर को हाथ से पोंछा और पता नहीं किस प्रेरणावश वह जोर से अट्टाहास करने लगा। उसकी हँसी स्वर्ण-रश्मि बन चारों तरफ छितरा गई। उसकी जोरदार हँसी का ऐसा प्रभाव पड़ा कि कौंधती हुई हँसी चारों तरफ छा गई। वह हँसे जा रहा था और पूरे मैदान के बच्चे शान्त खड़े उसे सुन रहे थे। प्रशिक्षक जो अभी तक सबको हँसने की प्रेरणा दे रहे थे उसकी हँसी सुन स्वयं विस्मित थे।
सही भी है, शायद सन्नी इतनी छोटी उम्र में भी सीख गया था कि जब तक मनुष्य समाज पर हँसना नहीं सीखता तब तक समाज उसकी हँसी उड़ाता है।
उसकी अन्तरात्मा उसे प्रेरित कर रही थी कि हँसो-हँसो, और हँसो और उसकी हँसी का दौर थम ही नहीं रहा था।
पर प्रशिक्षक विस्मित था, कहीं कोई बच्चा ऐसी हँसी भी हँसता है। जरूर पागल हो गया है।
पागलपन दुख की ही पराकाष्ठा है।