स्टेशन पर आकर गाड़ी रूकी। सब तरफ अफरा-तफरी-सी मच गयी। कुछ लोग गाड़ी में चढ़ रहे हैं, कुछ उतर रहे हैं। किसी को अपने रिश्तेदारों से मिलने की खुशी तो किसी को बिछुड़ने का गम। अनजान चेहरे, अनजान राहें, पर उनको बाँधती थी एक डोर, यह ट्रेन। शायद कुछ-कुछ हमारी जिन्दगी-सी, जिसमें अनजान लोग किस तरह इस सफर में साथ हो लेते हैं और किस तरह बिछुड़ जाते हैं। कभी न मिलने के लिए।
एक वृद्ध सज्जन, अब वृद्ध भी क्या कहेंगे, पर अधेड़ तो जरूर प्रतीत होता था, बदन से तो उम्र ज्यादा महसूस नहीं हो रही थी, पर चेहरा जरूर उम्रदराज था। गरीबी का सबसे दुखद पहलू है कि वह भूख को उम्र, शरीर और चेहरे पर ले आती है।
उसकी आँखों में एक सूनापन आकर ठहर गया था। अब उसकी आँखें किसी को ढूँढ नहीं रही थीं, न ही कोई उसको ढँूढ रहा था। पर इस शहर से वह अपरिचित न था।
ट्रेन से उतरकर वह एक खंभे से सटकर बैठ गया। अपने बगल में उसने एक मैला-कुचैला-सा बैग रख दिया। कहीं जाने की उसको हड़बड़ी नहीं थी। पर वह इस शहर में कुछ सोच के आया था। किसी से मिलने आया था।
हाँ यह शहर तो उसका अपना था। उसके अपने यहाँ रहते थे। उसके बेहद अपने, उसके बीबी और बच्चे और वह भी तो उन्हीं से मिलने आया था। पर क्या वह उनसे मिल पाएगा? वह थक गया था, जिन्दगी की आपाधापी से टूट गया था। एक हताश इन्सान क्या किसी का पिता या पति हो सकता है! इस सोच में एक
अकेलापन था, एक ठहराव था और उससे भी अधिक एक निस्तब्धता, एक शून्यता। वह सबसे मिलके चला जाएगा।
बचपन उसका कितना अच्छा था। कष्ट थे, आर्थिक तंगी थी पर सपने थे। उन सपनों को पूरा करने की ललक थी। एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में उसका जन्म हुआ था। वह पाँच भाई-बहनों में सबसे बड़ा था। उसके पीछे चार बहनें थी। पिता एक मामूली-सी प्राइवेट फर्म में क्लर्क थे।
स्वप्न रहित एक सीधी-सपाट जिन्दगी जिसमें खुशियाँ कभी-कभी ही हौले-हौले दस्तक देती थीं पर दुख तो सहोदर की तरह हमेशा गले ही लगाए रहता था। बड़ा होने के नाते उसने अक्सर इस दर्द को बड़ी शिद्दत से महसूस किया था।
उसकी माँ अक्सर बीमार रहती थीं। दमा था क्योंकि जब कभी वह बेदम होतीं तो कई दिनों तक को बिस्तर पकड़ लेतीं। उसके पिता ज्यादातर आॅफिस में ही व्यस्त रहते थे। प्राइवेट फर्म में जितना पैसा न था उससे अधिक काम था। और वे बेचारे सीधे-सादे आदमी। कोई भी यार-दोस्त अपना काम उनके ऊपर डालकर ऐश करता था।
उसने घर का सारा काम बड़े अच्छे से सँभाल लिया था। सँभाल क्या लिया था सँभालना पड़ गया था क्योंकि जब जिन्दगी में मजबूरी सिर पर आती है तो अपने को हालात के अनुरूप ढालना पड़ता है, हालात हमारे अनुरूप नहीं ढलते। कुछ बखूबी सँभाल लेते हैं और कुछ उनसे लड़ते ही रह जाते हैं। खैर उसने उफ् तक न की।
स्कूल और घर के बीच में पिसते हुए उसने एक सपना देखा था और वह था फोटोग्राफर बनने का। उसके घर के पास ही फोटोग्राफर रहते थे। व उसके पिता के हमउम्र थे पर जब से उसने उनके पास जाना शुरू किया था तब से उन दोनों में अच्छी घनिष्ठता हो गयी थी। वह खाली वक्त में उनके लैब में भाग जाता और
उनसे फोटोग्राफी के गुण सीखता। शायद उन रंगीन फोटोग्राफ के माध्यम से वह दूसरों की रंगीन जिंदगी को जी लेना चाहता था। वह कैमरे में बंद कर लेना चाहता था जो भी हो उसने वीराने में एक सपना पाल लिया था।
धीरे-धीरे उम्र भी बीतती गयी और जिम्मेदारियाँ भी बढ़ती गयीं। जिम्मेदारियों के कारण उसने शौक को ताक पर रखकर नौकरी की तलाश शुरू की । अब मनचाही जगह पर नौकरी तो मिलती नहीं, तो उसका एक परिचित उसको उड़ीसा ले गया। वहाँ एक सीमेन्ट फैक्ट्री में मजदूर की नौकरी मिल गयी। अपने मित्र की चाल में ही वह रहने लगा। क्योंकि इससे ज्यादा जगह का इंतजाम वह अपने लिए जिन्दगी में कभी कर भी नहीं पाया। जो पैसे होते थे उनको वह पूरा-का-पूरा घर भेज देता था। और अपने खाने-खर्चे के लिए वह शाम को एक होटल में वेटर का काम करता था। कुछ पैसे भी हो जाते थ और कम-से-कम एक टाइम भरपेट भोजन। पूरे दिन की फाकामस्ती वह शाम को भूल जाता था। और रात ढलते-ढलते वह सब-कुछ भूल निद्रा के आगोश में डूब जाता था। सारे सपने उस नींद के साथ ही स्याह रंग अख्तियार कर लेते थे।
कब उसकी शादी हुई और कब बच्चे ये सोचने की फुर्सत भी उसको न मिली। बीवी को कहाँ उड़ीसा ले जाकर रखता। वहाँ तो उसके अपने लिए जगह नहीं थी। यहाँ कम-से-कम माँ के पास सिर छुपाने के लिए छोटा ही सही पर इज्जतदार आशियाँ तो था। बीच-बीच में छुट्टी मिलने पर वह घर आ जाता था, अपनों के बीच।
वक्त तो एक रफ्तार से भागता चला जाता है। रूकता नहीं। रूकती तो हमारी जिन्दगी है। वह थम जाती है वक्त आगे बढ़ जाता है। कुछ ऐसा ही उसके साथ हुआ। कब बचपन बीता होश ही न रहा। कब जवानी के दिन बीतने लगे पता न चला। पता तो तब चला जब बेटा थोड़ा बड़ा हो गया। इस बार वह काफी खुश घर
पहुँचा था। दिवाली पर बोनस मिला था। उससे पहली बार उसने अपने परिवार के लिए कपड़े लिए थे। बहनों की जिम्मेदारियों से भी वह इसी साल फारिग हुआ था।
जब वह घर पहुँचा तो बेटा घर पर न था। बीवी को तीज बुखार था। उसकी दवा लाने गया था। छोटी बेटी जो कि करीब दस साल की थी, खाना पका रही थी। अम्मा दूसरे पाटे पर बैठकर सब्जी काट रही थीं।
’’क्या हुआ सावित्री।’’ अपनी पत्नी को उस हालत में देखकर अन्दर का सारा प्यार उमड़ आया।
’’क्या बताये, पिछले तीन दिनों से काफी तीज बुखार है। उतरने का नाम ही नहीं ले रहा है। बिट्टू सामने वाले डाॅक्टर से पूछकर दवा लाने गया है।’’ अम्मा ने कहा।
वह अपनी बीवी के बगल में बैठकर उसका हाथ पकड़ सहलाने लगा। शायद सारा प्यार ही वह उड़ेल देना चाहता था। वह उसको कैसे बता पाता कि इतना दूर रहकर वह कैसे अपने परिवार को याद करता है। शायद अपनी घुटन वह अपने शब्दों में कभी व्यक्त ही नहीं कर सकता। उसको अपने नसीब के ऊपर कोफ्त हुई। कितना मजबूर है वह। चाहकर भी वह साथ में आकर नहीं रह सकता। पति के प्यार भरे एहसास से उसकी पत्नी ने धीरे से आँखें बन्द कर लीं। उसकी आँखों से दो बड़े-बड़े आँसू पत्नी के माथे पर गिरे। उसने जल्दी से घबराहट में उनको पोंछ दिया।
तभी उसका बेटा दवा लेकर आ गया।
’’आ गए बेटा..... लाओ मैं दवा पिला दूँ।’’ पर बेटा तो जैसे बाप को देखकर भड़क ही उठा।
’’खबरदार, जो मेरी माँ को हाथ लगाया।’’ एकदम से उसके हाथ वापस हट गए। बिट्टू दौड़ कर अपनी माँ के पास गया।
’’माँ ...माँ आँखें खोलो, माँ। मैं दवा ले आया हूँ, माँ...।’’
धीरे से अपनी माँ को उठाकर उसने दवा पिला दी और उसके सिरहाने बैठ गया। उसकी पूरी कोशिश थी कि वह पिता को माँ के करीब भी न आने दे।
वह धीरे से उठकर कपड़े बदलने चला गया। जब कपड़े बदलकर आया उसकी अम्मा ने उसके आगे चाय और नाश्ता रख दिया। बिट्टू का व्यवहार उसको अन्दर तक आहत कर गया। वह सब-कुछ तो इनके लिए ही कर रहा था। उससे बेहतर होता है जब अपने दूर रहते हैं, तो उनसे मिलने की ख्वाहिश में ही दिन कट जाते थे-एक उम्मीद रहती थी... पर यहाँ तो अपनों में ही वह अकेला था। लोग उसको बेगाना समझने लगे थे।
अम्मा ने ही बात उठायी, ’’पिछले तीन दिन से बिट्टू अपनी माँ के पास ही बैठा है। स्कूल भी नहीं गया। माँ को भी काम पर जाने नहीं दिया। माँ का हाथ पकड़कर बार-बार यही कहता रहा- माँ तुम मत दुखी हो। मै हूँ न। इधर सावित्री तुमको काफी याद भी कर रही थी। अब तुम आ गए हो तो वह जल्दी ही ठीक हो जाएगी।’’
उसको बेहद आत्मग्लानि का बोध हुआ। शायद चोर को भी इतना गहरा बोध नहीं होता होगा जितना कि उसको हुआ। हाँ, वह अपराधी है। अपने परिवार का अपराधी है। उनकी तकलीफों का वह अपराधी है। खाना छोड़ कर वह बीच में ही उठ गया और कमरे से बाहर आ गया।
उसकी माँ पीछे से उसको आवाज देती रहीं-’’बेटा खाना तो खा ले, इतनी दूर से आया है। भूखा मत जा। गुस्सा मत हो।’’
नहीं, वह गुस्सा नहीं था। वह अकेला था। बेहद अकेला। वह इन गलियों में कहीं खो जाना चाहता था। वह अपने परिवार की ठीक से देखभाल नहीं कर पा रहा था। वह गुनहगार था। उसकी आत्मा पर मानों मनों टन पत्थर पड़ गया था वह
घर से दूर जाकर उसको फेंक आना चाहता था। उसको भय था उस पत्थर को परिवार के लोग देख न लें। वह दिनभर ऐसे ही घूमता रहा। कभी-कभी अपने ऊपर क्रोध आ जाता तो सड़क पर पडे़ हुए किसी निरीह पत्थर को कस कर लात मार देता था और उल्टे खुद ही चोट खा जाता।
अँधेरा होने पर उसे घर जाने का होश आया। शायद अन्धकार गुनाहों को काफी हद तक हल्का कर देता है। रात की कालिमा सब-कुछ अपने अन्दर समेट लेती है।
घर पहुँचाा तो हाय-तौबा मची हुई थी। सब उसको लेकर चिन्तित हो रहे थे। माँ तो बाहर दहलीज पर ही खड़ी बेटे की लम्बी उम्र की दुआएँ पढ़ रही थीं।
’’कहाँ चला गया था रे! तुम्हें हमारा भी ख्याल नहीं आया।’’
वह कहना चाहता था कि खयाल ही तो आया था माँ जो शायद कहीं नहीं गया। इतनों को बेसहारा छोड़कर वह कहाँ जा सकता था। सब उसकी जिम्मेदारी जो हैं। वह कहीं दूर बहुत दूर चले जाना चाहता था पर हिम्मत नहीं कर पाया। शायद प्राणान्त कर पाने की भी शक्ति उसमें न थी।
बीवी की तबीयत में काफी सुधार हुआ था। उसको देखते ही उसकी आँखों में चमक आ गयी। यही चमक तो उसको अपने परिवार के पास खींच लाती थी।
वह एक हफ्ता रहा पर उसका बेटा उसके पास एक मिनट के लिए भी नहीं आया। एक दिन वह अपने परिवार को लेकर मोल ा चला गया पर बेटा पढ़ाई का बहाना करके घर में ही रह गया। मोल े में वह अपनी पत्नी को सब-कुछ दिला देना चाहता था। बेटे के लिए भी उसने एक बाँसुरी खरीदी और एक माउथ आॅर्गन।
जब उसकी बीवी सुबह काम पर चली जाती थी और बेटा स्कूल, तो वह सामने फोटोग्राफर की दुकान पर जाकर बैठ जाता था।
’’तुम अब वापस क्यों नहीं आ जाते।’’ एक दिन उसके फोटोग्राफर मित्र ने पूछा।
’’कैसे आऊँ! फिर वहाँ नौकरी है। अब तो मैं परमानेन्ट भी हो गया हूँ। यहाँ आकर नये सिरे से अपने को स्थापित कर पाना शायद अब संभव नहीं है। फिर तुम ही बताओ इस उम्र में मैं आकर करूँगा ही क्या?’’
’’हाँ ये तो है। पर अब तुम्हारा बेटा तुम्हारी कमी को काफी महसूस करता है।’’
’’जानता हूँ’’ वह उदास हो गया।
फोटोग्राफर मित्र उसका मूड भाँप गया। बात पलटता हुआ बोला, ’’ बहुत ही मेधावी है। पढ़ने की तो उत्कृष्ट लालसा है। जब बिजली नहीं होती है तो पास के लैम्पपोस्ट के नीचे पढ़ता है। पढ़ाई में भी अव्वल आता है। अभी परसों ही तो पैसे माँगने आया था तो कह रहा था चाचा देखना मैं बड़े होकर अपनी माँ को यूँ सबके यहाँ काम पर नहीं जाने दूँगा। कभी-कभी तो माँ पिताजी को याद कर घण्टों रोती है। तुम सबको बहुत याद करता है। बहुत नेक लड़का है।’’
वह सिर्फ हूँ-हाँ ही करता रहा। क्या वह चाहता था कि उसकी पत्नी काम करे? क्या वह परिवार के साथ नहीं रहना चाहता था ? वह किससे कहे।
चलने वाले दिन बहुत सुबह ही उसकी गाड़ी थी। बेटा अभी सो ही रहा था। वह धीरे से उसके पास गया। काफी देर प्यार से उसका हाथ पकड़े खड़ा रहा। फिर हौले से उसको सहलाकार उसके पास बाँसुरी और माउथ आॅर्गन रख दिया। वह इतने हौले से जाना चाहता था कि बेटा की नींद न खुले पर शायद वह जगा हुआ था।
उसने धीरे से आँख खोलकर पिता को जाते हुए देखा। वह भागकर उनसे लिपट जाना चाहता था। कहना चाहता था कि पिताजी हमलोगों को अकेला छोड़ मत जाओ, जिन्दगी से डर लगता है। पर नहीं, वह कमजोर नहीं पड़ेगा।
वह अब बड़ा हो गया है। और अब बहादुर भी। वह उनको नहीं रोकेगा। जाना है तो जायें। जब उन्हे हमारी परवाह नहीं तो हम क्यूँ करें।
पिताजी के जाने के बाद उसने बाँसुरी और माउथ आॅर्गन बैग में रख लिया। वह अपने स्कूल में बच्चों को दिखाएगा कि उसके पिताजी उसको दिलाकर गये हैं। स्कूल में बच्चे अक्सर चिढ़ाते थे। वह उनके जैसा अच्छा पेन्सिल बाॅक्स या टिफिन लेकर नहीं आ पाता था। वह हमेशा अपमानित महसूस करता था। दो-चार बार तो प्रिंसिपल ने बुलाकर उसका नाम काटने की धमकी भी दी क्योंकि फीस वक्त पर जमा नहीं हो पाती थी। तब उसे कितनी घृणा होती, उस पिता से जो इन सबसे लापरवाह अपनी जिन्दगी में खोए हैं। तब माँ से ही पैसा लेकर फीस चुकानी पड़ती थी। अक्सर माँ को कहा भी कि वह किसी दूसरे स्कूल में पढ़ लेगा पर माँ कभी मानने के लिए तैयार न हुई।
’’बेटा मेरा एक ही सपना है कि तू बहुत बड़ा आदमी बने। तेरी ऊचाईयाँ मेरी अपनी जिन्दगी के नीचेपन को ढक देंगी। मैं उनको पाकर अपना समस्त दुख-दर्द भूल जाऊँगी।’’
और वह दोस्तों के सारे अपमान भूल, मेहनत करने में लग जाता। एक दिन वह माँ को वह स्थान देगा जहाँ लोग उसकी माँ की तरफ सम्मान से देखें।
वक्त बीतने पर एक दिन अचानक माँ दर्द से तड़पती रही। माँ का कष्ट देखकर उसको अपने पिता के ऊपर बेहद क्रोध आ रहा था। माँ को क्या कष्ट है यह उसकी दादी उसको बता भी नहीं रही थी। माँ काम पर भी नहीं गयी थी। न माँ चिन्तित दिख रही थी और न ही उसकी दादी। वह बार-बार बोला कि मैं डाॅक्टर को ले आता हूँ। पर उसकी दादी ने डाँटकर भगा दिया। वह फोटोग्राफर चाचा के यहाँ गया। वही जानते होंगे कि माँ को क्या हुआ। वह काफी देर उसको बहलाते रहे फिर बोले तुमको भाई आनेवाला है। तभी मुनिया ने आकर खबर दी।
’’भइया दादी बुला रही हैं। बहन आयी है।’’ उसने चाचा की तरफ देखा। चाचा कितना झूठ बोलते हैं। अभी तो बोल रहे थे कि भाई आने वाला है पर यहाँ तो बहन है। उसे अपनी बहन से नफरत हो गयी। उसकी तो सिर्फ एक ही बहन है मुनिया, बाकी कोई नहीं। वह मुनिया का हाथ पकड़कर माँ के पास भागा।
माँ आराम कर रही थी। अब उसको इतनी तकलीफ नहीं थी। उसकी बगल में एक छोटी-सी बच्ची लेटी हुई थी। दादी और माँ दोनों ही खुश नहीं थी।
दादी बोलीं, ’’ उसको फोन करवा दिया है। वह आकर भी क्या करेगा। कौन-सा बेटा जना है तूने जो वह भागा-भागा आये। अरे जब औलाद करनी ही थी तो जान के करती कि बेटा हो।’’
माँ चुपचाप आँखें बंद किए सुने जा रही थी। आखिर उससे कोई भारी गलती तो हुई ही है। क्यों लेकर आयी वह एक और बहन को ? वह उसको नहीं रखेगा। पर माँ ने उसे अपने पास सुलाया, ’’देख बिट्टू गुड़िया, तुम्हारे और मुनिया के खेलने के लिए। इसको प्यार करेगा न ? ’’और वह चाहकर भी कुछ न कर पाया। उसके पिता न आये यह बात उसको बेहद अखरी। शायद अपने पिता की कमी के अहसास को वह कहीं गहरे तक और काफी शिद्दत से महसूस करता था। असमय ही वह बहुत बड़ा हो गया था। जिन्दगी बहुत तीज रफ्तार से भागती गई और जैसे-जैसे वह भाग रही थी दूरियाँ भी बढ़ती चली गयीं।
बिट्टू अब बड़ा हो गया था। मेहनती और मेधावी तो था ही किस्मत ने भी साथ दिया।
’’माँ देखो मुझे कलकत्ता में नौकरी मिल गई है।’’
’’बहुत अच्छा बेटा!’’ वह माँ के चेहरे पर असीम खुशी देखना चाहता था।
’’माँ मुझे दिवाली से पहले वहाँ ज्वाइन करना है। कम्पनी की तरफ से फ्लैट मिलेगा। अब तुम्हें काम करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। तुम मेरे साथ चलकर रहोगी।’’
जो शब्द सावित्री अपने पति के मुँह से सुनना चाहती थी आज उसका बेटा कह रहा था। बेटे के घर में जाकर रहने का सपना शायद सावित्री ने कभी देखा ही नहीं था। वह तो हमेशा से यही चाहती थी कि उसका पति एक बार ही सही उसे, उसके अपने घर में ले जाये। उन की गृहस्थी हो। वह अपने विचारों को बुनती जा रही थी और बिट्टू बोले जा रहा था।
’’माँ तैयारी कर लो हमें जल्दी ही चलना होगा। ’’
पर बेटा मेरा काम...।’’ वह बहुत कुछ बेटे को बोलना चाहती थी। आज उसके लिए सबसे खुशी का दिन था। उसका एकलौता बेटा जिन्दगी में एक मुकाम पर पहुँच गया था। एक मुकाम जिसके लिए उसने और बेटे ने जीतोड़ मेहनत की थी। शायद उस मुकाम पर पहुँचकर भी वह अकेली थी। उसका साथ देने वाला साथी बेखबर दूर उनके लिए सिर्फ पैसे मात्र भेज रहा था। वह भी पूरे घर की जरूरत को पूरा नहीं कर पाते थे। उसे घर से बाहर जाकर दूसरों के घरों का चैका-बरतन करके घर को चलाना पड़ता था।
एक बेटी की शादी उसने अपने बलबूते पर की। नहीं, सहसा उसे अहसास हुआ कि वास्तव में वह थक गयी थी। वह अब और नहीं सह सकती। अब और मेहनत नहीं कर सकती। शरीर के साथ-साथ उसका मन भी टूट गया था। वह जायेगी, बिट्टू के साथ जायेगी और जिन्दगी का नया सपना बुनेगी। वह अपनी जिन्दगी से ऊब गयी थी। शायद वह था तो उसका पति पर क्या...नहीं...हाँ... उसको उससे कोई प्यार नहीं था। पर नफरत भी नहीं थी। ’’बिट्टू पिता को खबर कर देना हम जा रहे हैं।’’
बिट्टू ने सुनकर भी अनसुनी कर दी। नयी जिन्दगी की शुरूआत में उनकी क्या जरूरत थी।
उसको स्टेशन पर पहुँचाने वाली ट्रेन अब रफ्तार पकड़ स्टेशन को छोड़ रही थी। ट्रेन के रूकते ही जो कोलाहल था अब धीरे-धीरे थम रहा था। सभी यात्री अपने गंतव्य के लिए बढ़ चले थे। वही शायद अकेला रह गया था।
उसको एक आदमी ने हिलाया। ’’लो बाबा खाना खा लो।’’
वह वाकई भूखा था। आँखों से जिन्दगी की चमक जाती रही थी। बढ़ी हुई दाढ़ी, मैले-कुचैले कपड़े। खाना लेकर वह धीरे-धीरे खाने लगा। भूख की क्षुधा की वह धीरे-धीरे शान्त करना चाहता था।
कोई अमीर, भिखमंगो को खाना बाँटकर पुण्य कमा लेना चाहता था।
पेट की आग शान्त कर वह उठा। उसकी ट्रेन जा चुकी थी। निगाहों से ओझल हो गयी थी। उसी पटरी पर दूसरी ट्रेन आने वाली थी। उससे फिर कुछ अनजान चेहरे उतरेंगे, अनजान चढ़ेंगे। यह सिलसिला तो चलता ही रहेगा, अनवरत।
घर पहुँचा तो बड़ा सा ताला लटका हुआ था।
वह भागा-भागा फोटोग्राफर दोस्त के पास पहुँचा। शायद इतनी तीजी से वह पिछले कई दिनों में नहीं भागा था।
’’कहाँ गये सब ?’’
’’अरे तुम्हें नहीं पता ? सब तो कलकत्ता चले गये।’’
’’चले गये....।’’
’’मुझे छोड़कर.....क्यों ?’’
और वह चेहरे को ढाँपकर सिसकियाँ ले रोने लगा।
’’अच्छा उठो! रो नहीं... मुझे बिट्टू पता देकर गया है। मैं ढूँढता हूँ।’’
वह सिर पकड़े बैठा रहा और रोता रहा। फोटोग्राफर दोस्त ने अलमारी से पुराना एलबम निकाला। ’’यह देखो तुम्हारे परिवार का फोटो।’’
वह उसको लेकर घूर-घूरकर देखता रहा। हाँ उसका पूरा परिवार फ्रेम के अन्दर कैद था। वह फिर सिसक पड़ा।
बड़ी मुश्किल से बिट्टू का पता मिला। एक दराज में मुड़ा-तुड़ा पड़ा हुआ था।
’’लो तुम्हारे बेटे का पता मिल गया।’’
उसने ऐसे झपट के पकड़ा जैसे कोई खजाना मिल गया था।
’’दोस्त एक मदद और कर दो।’’
’’बोलो!’’
’’यह मेरे ऊपर तुम्हारा उपकार रहेगा।’’ बुझी हुई आवाज में बोला। आवाज भी एक गहरे कुएँ से आती प्रतीत हो रही थी।
’’उपकार, अरे दोस्त बोलते हो और उपकार की बात करते हो। बोलो मैं तुम्हारे किस काम आ सकूँ।’’
’’बस कलकत्ता का टिकट कटा दो और दो-तीन सौ रूपये दे दो। पचास-सौ रूपए मेरी जेब में हैं। मैं अपने बेटा और बीबी को ढूँढने जाऊँगा। बेटे को समझाऊँगा कि उड़ीसा में मैं खुश नहीं था। मैं भी अकेला था। इन्हीं लोगों के लिए मेहनत कर रहा था। यहाँ तो पूरा परिवार साथ था दुख-दर्द बाँटने के लिए, वहाँ तो मैं बिल्कुल अकेला था।’’ उसकी आँखे शून्य में कुछ खोजने लगीं। आवाज भर्रा गयी। अकेलेपन की त्रासदी और अपनों से बिछुड़ने का गम उसकी आवाज में स्पष्ट आ गया।
’’और अगर वे न मिले तो...।’’ दोस्त नहीं चाहते हुए भी पूछ बैठा।
वह काफी देर तक फोटो को देखता रहा फिर बोला,’’मैं वापस उड़ीसा चला जाऊँगा। मेरी नौकरी है।-एक छोटी-सी चाल है। रामू मेरा पुराना साथी जिसके साथ मैं शुरू से रहता हूँ। उसी के पास चला जाऊँगा। और कौन है मेरा।’’ और बात करते-करते वह खो गया।
स्टेशन पर काफी भीड़ थी। अनजान चेहरे अनजान जिन्दगियाँ, अनजान मुलाकातें। इन सबके बीच वह दुबककर बैठ गया। ऐसे भी उसको अपने आप पर और अपने कपड़ों पर शर्म आ रही थी। टिकट को उसने कसके पकड़ा हुआ था। एक उड़ती-उड़ती निगाह उसने शहर की तरफ डाली। उचाट-सी निगाह में खामोशी और उदासी थी। अचानक आँसू ढलके मानो उसके अन्तर्मन के दुख को बहा ले जाना चाहते थे, पर अन्दर की पीड़ा को उसने बड़े हुनर से सहेजकर समेट लिया।
वह यह शहर हमेशा के लिए छोड़कर जा रहा था। यहाँ का घर अब उसके पीछे छूट गया था। शहर से क्या मोह जब कोई अपना वहाँ न हो। वह जरूर अपनी बीवी को खोजेगा। उसको समझाएगा। अपने साथ लेकर आयेगा।
ट्रेन ने सीटी दी। उसका अतीत पीछे छूटता जा रहा था। ट्रेन धीरे-धीरे आगे बढ़ती जा रही थी। कल फिर यहाँ से यही ट्रेन गुजरेगी पर वह न होगा।
ट्रेन मजार के सामने से गुजरी। फकीर बैठा गा रहा था-
’’तमाम उम्र ही बीती खाक छानने में, दुख तो तब हुआ जब खाक भी न मिली।’’
उसकी आँखों से बड़े-बड़े आँसू ढुलक आए। वह उस जज्बात को न थाम पाया। लोग पीछे छूटते गये। शहर पीछे छूटता गया। जिन्दगी ही थी जो अपनी रफ्तार से आगे बढ़ती गयी। वक्त बीतता गया और थके-हारे इंसान की तरह वह हताश उसे अपने हाथ से फिसलते हुए महसूस करता गया। मानो कहीं चुपके से उसका हाथ खाली हो रहा था और एक मुट्ठी रेत उसमें से सरककर कहीं दूर, बहुत दूर गिरकर अनन्त में विलीन हो गयी थी।