मैं क्या लिख रही हूँ और क्यों, शायद इसका मुझको ज्ञान नहीं है। कभी-कभी वक्त ऐसा आता हे कि इंसान हतप्रभ रह जाता हैं नाटक का पटाक्षेप इतना जल्दी होता है इसका अनुभव कभी इतनी अचानक ओर अकिंचित होता कि समस्त चक्षु सिर्फ हृदय पर केन्द्रित हो सोच को विराम दे थरा्रने लगते हैं। फिर यह घटना थी भी ऐसी। नरेन मामा ने खुदखुशी कर ली थी। उस दिन शाम से ही कुत्तों के रोने का समवेत स्वर सुनाई पड़ रहा था। शायद जानवरों की मौन संवेदनाएँ इंसानों की तकलीफ बहुत पहले ही समझ लेती हैं। एक अच्छा-भला इंसान भला क्यों अपनी इहलीला समाप्त कर लेगा, इसका अनुभव भी कर पाना असहनीय है। जब हम सुख से अपने घरों में बैठे होते हैं तो किसी की घुटन को महसूस कर पाना असंभव ही है। जीवन की भेंट को इतनी आसानी से खत्म कर देना एक असाधारण कदम है।
कोई क्यों कर लेता है ऐसा?
मौत शाश्वत् है और एक हकीकत।
पंखे से लाश लटकी हुई थी। गला एक तरफ लुढ़क गया था। पैर जमीन से थोड़ा ऊपर हवा में झूल रहे थे। पास ही मेज पर पन्ने फड़फड़ा रहे थे। दस पन्ने। और पूरी जिन्दगी की कहानी, उससे जुड़ी अपेक्षाएँ, आकांक्षाएँ, संघर्ष, असफलताओं की एक छोटी दास्तान। तमाम जिन्दगी जैसे कुछ पन्नों और थोड़े से शब्दों में सिमटकर रह गयी थी। जिन्दगी का अस्तित्व कागज के पन्नों में फड़फड़ा रहा था। शायद वह भी जिन्दगी की तरह हवा में उड़ जाना चाहता हैं अब कुछ शेष रहा नहीं। शेष रह गयीं वह कुछ जिन्दगियाँ जो उनसे जुड़ी थीं। शेष रह गये उनके संघर्ष।
उम्र कोई ज्यादा नहीं रही होगी। यही कोई चालीस-पैंतालीस साल। दुबला-पतला जीर्णकाय शरीर जो कभी हट्टा-कट्टा रहा होगा। उड़े-उड़े बाल पर चेहरे पर अपूर्व शान्ति। वहीं शान्ति जिसकी तलाश में पूरी उम्र गुजर गयी। तमाम उम्र गुजार दी पर मिली न खुशी। अब जब मिली तो उम्र से वास्ता ही न रहा।
आज से करीब पन्द्रह-सोलह साल पहले उनकी शादी संगीता नाम की लड़की से हुई थी। लड़की थी बेहद सुन्दर। छोटी उम्र, सुन्दर रूप-रंग और अच्छे पैसे वाले घर में शादी ने उसके दिमाग को उछाल दिया। सास की इकलौती बहू होने के कारण सास ने धरती पर उसके मानो पैर ही पड़ने नहीं दिए। मायके में संगीता के कुछ खास न था अतः यहाँ का पैसा उसको लुभाता । उसके पिता को पैरालिसिस था अतः उन्होंने पूरी जिन्दगी ही खाट पर काट दी। कभी भी पैसा असीम नहीं हुआ। जब आकांक्षाएँ असीमित होने लगती हैं तो धन की अपनी सीमाएँ बँध जाती हैं और फिर उसका क्षय होने लगता है। धन सिर्फ दान या भोग के लिए ही निमित्त है। अगर उसका संचय होता तो वह नष्ट होने लगता हैं इसलिए धन का सदुपायोग होना चाहिए। पर नरेन मामा के पिता ने अति की कंजूसी की, अपने नाते-रिश्तेदारों को काटकर पैसा एकत्रित किया कि वह उसके एकमात्र पुत्र के लिए पर्यापत होगा। वह उसके लिए इतना छोड़ जाना चाहते थे कि सात पुश्तें उसका उपभोग कर सकें। पर लक्ष्मी तो ठहरी चंचला, कब किसी के पास स्थिर हुई है। बड़े-बड़े राजघराने चैपट हो गये और महल-असबाब आज या तो धूल चाट रहे है या फिर भूतहा बंगला बने उनमें चमगादड़ लोट रहे हैं। राजे-महाराजे तो मिट गये फिर छोटे-मोटे आदमी की क्या बिसात।
भीड़ बढ़ती जा रही थी। जो सुनता एक बार तो हतप्रभ हो जाता। इतनी बड़ी घटना, खानदान में कभी भी हुई थी। फिर सबकी आँखों के सामने उनका चेहरा और बिताये हुए क्षण घूम जाते। कोई न कोई याद मीठी या खट्टी जेहन में जुड़ जाती और मन को कचोटती।
सुबह करीब बारह बजे वह घर से निकले थे। बोल के निकले कि मैं इनकम टैक्स आॅफिस जा रहा हूँ, देर हो जायेगी। परेशान न होना। रोजगारी आदमी को सेल्स टैक्स, इनकम टैक्स से तो बराबर सामना करना पड़ता ही है। घर में किसी को संदेह न हुआ। फिर जैसे कोई लंबी यात्रा के पहले की तैयारी से निकलते हैं वैसे ही वह भी बकायदा जूते मोजे पहनकर बढ़िया शर्ट-पैंट चढ़ाकर अपनी लंबी यात्रा की तैयारी के लिए निकले। यात्रा लंबी थी उस लिहाजन तैयारी काफी न थी पर उस यात्रा का अन्त निश्चित था। न कोई पड़ाव न कोई ऊबड़-खाबड़ रास्ते, न प्राकृतिक दृश्य, न बच्चों का खेलना-खिलखिलाना, युवतियों का इठलाना-मचलना, सिर्फ एक मंजिल एक सीधा-सरल मार्ग। एक अपूर्व शान्ति।
उनका नाम नरेन था। अपने माँ-बाप की इकलौती संतान। बचपन से लाड़-दुलार से पले-बढ़े थे। पिता के पास पैसे की कमी न थी। संयुक्त परिवार था अतः पूरा दिन ऊधम, धमाचैकड़ी में निकल जाता था। माँ चूँकि रईस परिवार से आई थी अतः काम में उनका अधिक मन लगता न था। वैसे भी संयुक्त परिवार में उसी बहू की इज्जत है जिसका मायका मजबूत है। अपने मायके के बल पर वह ससुराल में राज करती है। बड़े बाप की बेटी होने के कारण उनसे कोई ज्यादा काम-काज भी नहीं होता था। पुत्र की परवरिश भी जैसे उनके ऊपर बोझ थी। जब उम्र अच्छी शिक्षा देने की थी तो माँ अपना वक्त त्रिया-चरित्र में बिताती थी। बेटा हाथ से निकलता गया। पढ़ने के वक्त वह मटरगश्ती करता था। बेटा इस तरीके से हाथों से निकलेगा यह बात जब माँ को नाकाफी लगी तो उसने शुरू किया उसका सबसे कम मिलना जुलना। घर वालों के खिलाफ भड़काना शुरू किया जिससे उसका बालपन ऊँचे उठने के बदले संकीर्णताओं और पारिवारिक कलह में लग गया। और नरेन वास्तव में एक अयोग्य नरेन होकर रह गया।
“अरे यह सब कैसा हुआ?”
“बात कब की है?”
बाहर परिचितों की भीड़ बढ़ गयी थी। सहूलियत से लाश को नीचे उतारा गया। उन्होंने अपने अच्छे कपड़े एक तरफ रख दिये थे, घड़ी और अँगूठी तो वह सहूलियत से घर पर ही रख आये थे। शायद अंदेशा था कि कहीं घर वालों से पहले किसी और की निगाह उन पर पड़ गयी तो वह ले सकता है। लोगों का क्या, अगर उनका बस चले तो वह मुर्दों को भी बेच खायें। दुकान में वह बारह सवा बारह बजे दिन में पहुँच गये थे। पर जान देने की उन्होंने ग्यारह बजे रात को ठानी क्योंकि जब लाश पुलिस को मिली तो वह 10-12 घण्टे पुरानी थी। पुलिस का क्या, उसके लिए तो बस एक ठूँठ का ढेर था पर घर वालों के लिए कोई अपना। बेहद करीबी, प्यारा और अजीज। बारह बजे दिन से वह अपनी दुकान में बैठे रहे और तब कहीं जाकर 11 बजे रात में आत्महत्या की है। मरता हुआ आदमी भी मौत से बचना चाहता है। फिर उस आदमी के अन्दर मौत को आत्मसात् करने की इतनी व्यग्रता, इतना जुनून कि उसने बहुत ठहरकर उसको गले से लगाया। मौत से नरेन को कितना प्यार था, या फिर जिन्दगी से नफरत। आखिरी साँसे गिनता हुआ आदमी भी एक छोटी सी जिन्दगी की उम्मीद करता है। पर नरेन तो जीवन का मोह ही त्याग बैठा था और यहाँ बैठकर वह सिर्फ और सिर्फ मौत का इंतजार करता रहा और आखि रवह सब रिश्तों, भावनाओं, संवेदनाओं के ऊपर भारी पड़ी। वह रात को फाँसी लगाकर झूल गया।
उफ कितनी पीड़ा और जिन्दगी से घोर घृणा। उस घृणा ने मौत की फतह कर दी। मरने के पहले वह दस पन्नों की चिट्ठी लिख गये जिसको पुलिस ने अपने कब्जे में ले लिया। उन चिट्ठियों में जिन्दगी का दर्द और हताशा सिमटकर आ गयी थी।
“मैं खुदकुशी अपनी इच्छा से कर रहा हूँ। इसके लिए कोई भी जिम्मेदार नहीं है। मेरे परिवार को परेशान न किया जाये।”
एक चिट्ठी सास के नाम-
“मैं आपकी बेटी को सँभाल नहीं पाया।”
एक चिट्ठी कर्जदारों के नाम-
“जिस तरह से मेरी जिन्दगी बरबाद की है वैसे फिर कभी आइन्दा किसी की न करना।”
एक चिट्टी बच्चों के नाम-
“मैं हार गया। मैं तुम्हें सन्तुष्टि न दे पाया। तुम्हारे लिए इस जिन्दगी में कुछ नहीं कर पाया। मैं तुम्हारा दोषी हूँ। मुझे माफ करना।”
एक चिट्ठी पत्नी के नाम-
“आर्थिक तंगी से तंग आ, घरेलू कलह से परेशान हो मैं यह कदम उठा रहा हूँ। मैं आत्महत्या कर रहा हूँ। मैं तुम्हारी जिन्दगी से जा रहा हूँ। अब तुम आजाद हो हमेशा-हमेशा के लिए।”
दशहरा का दिन था। नरेन के लिए संगीता को घर वालों ने पसंद किया था। बेहद सुन्दर और स्मार्ट। पर एक तरह से बेमोल और इच्छाओं के अनुरूप नहीं ठीक विपरीत स्वभाव। जैसा कि पहले भी कथानक बोल चुका है, एक अपरिपक्व बुद्धि जिसको उछालना और बरगला लेना बेहद आसान है। उसी दिन संयोग से उसका जन्मदिन पड़ता था। सास-ससुर ने काफी व्यापक पैमाने पर आयोजन किया था।
“अरे बहू का रूप तो देखो। नरेन के लिए ईद का चाँद ढँूढकर लायी है।”
“हाँ लड़की भी तो जेवरों से लदी राजरानी लग रही है जैसा रूप वैसा भाग्य है।”
“क्या किस्मत पाई है। लगता है ईश्वर ने सब-कुछ देकर संगीता को भेजा है।”
लोग जलन मिश्रत ईष्र्या से भाग्य और रूप का बखान करते गये वह हर बखान पर घमण्ड की एक-एक सीढ़ी चढ़ती गई। नरेन उसके समक्ष गौण हो गया और गौण हो गया उसका भाग्य। सास भी नाते-रिश्तेदारों को उलाहने दे रही थी-
“अरे सब लोग मेरी बहू का करो।”
जब भाग्य मुस्कुराता है तो यह भूल जाते हैं कि जिन्दगी का चक्र अनवरत चलता रहता है। सुख और दुख, खुशी और गम तो आते-जाते हैं। जैसे रात के बाद दिन और दिन के बाद रात होते हैं वैसे ही यह तुच्छ जीवन है। जो खेल खेलता है, वह तो ऊपर बैठा ईश्वर, सृष्टा और कत्र्ता बन एक जीवन का तमाशा देखता रहता है। कब कौन अभागा और कोन भाग्यशाली इसको समझना न केवल विचित्र है अपितु छुपा हुआ भी है।
और वह गर्वित नारी रूप और धन के अंधकार में राजरानी की पदंवी पर आसीन भूल गयी कि नीचे एक वास्तविकता की जमीन भी है जो कठोर है और जब इंसान हवा में उड़ता है तो हवा निकल जाने के बाद औंधे मुँह जमीन पर गिरता है। जब कठोर धरातल पर मनुष्य के कदम होते हैं तो अगर ठोकर भी लगती है तो वह सँभल जाता है और अगला कदम सोचकर उठाता है। गर्वित नारी कहीं भी पाताल की पहली सीढ़ी होती है। और जिस नारी को रूप का घमण्ड हो उसकी तो जिन्दगी में पुरूषों द्वारा भोग्या बनने में वक्त नहीं लगता। अपने मुँहबोले देवरों के मीठे संभाषणों ने उसके अन्दर उच्छृंखल नारीत्व का पोषण कर दिया। और इसी में उसके संपर्क में एक देवर आया नीरज। जे भाभी की चाटुकारिता में अपना वक्त व्यतीत करता था।
पुलिस आ गयी थी। लाश को नीचे उतारा जा रहा था। अभी तो पोस्टमार्टम होना चाहिए। वास्तव में हर जिन्दगी का एक पोस्टमार्टम होना चाहिए। क्यों उसके साथ ऐसा घटित होता गया। क्योंकि जैसे रिपोर्ट हमें यह अवगत कराती है कि इस बेजान लाश के साथ क्या कुछ किया गया होगा वैसे ही हर लाश उस बीती हुई
जिन्दगी के सही और गलत कार्यों के निर्णयों को भी बताती है। कभी-कभी जिन्दगी का कोई निर्णय हमें सफलता के कगार पर पहुँचा देता है और कोई असफलता की गहन और घोर निराशा के भँवर में, जिससे निकलने का कोई भी रास्ता नहीं सूझता। जिन्दगियों को क्षत-विक्षत करने से उससे उपजे अनुभव हमें ज्ञानी न सही पर सीख तो अवश्यक दे सकते हैं और किसी दूसरे इंसान की जिन्दगी सँभल सकती है। जिन्दगी न्यूटन के सिद्धांत पर बीतती है कि हमारे हर कर्म का एक प्रतिफल होता है जो जिन्दगियों की धारा को बदल देता है।
शादी के साल के अन्दर संगीता को पुत्र हो गया और अब तो जैसे उसके भाग्य की खूबसूरती पर भी ठप्पा लग गया।
“अरे बहू ने आते ही आते पुत्र को जन्म दिया।”
“क्या कहा जाये कितनी भाग्यशाली बहू है।”
“इस बुढ़ापे में इंदिरा के तो भाग्य खुल गये।”
“अरे संगीता अब झटपट दूसरा भी कर लो।”
“नहीं मामीजी।“ संगीता ने अहंकार बश कहा-“दूसरा कम से कम लड़का तो नहीं चाहिए। दूसरी बेटी हो तो ठीक।”
“अब बच्चा तो ईश्वर की देन है देखो क्या लिखा है किस्मत में। जीवन और मरण तो ऊपर वाले के हाथ में है। पर मेरे लिहाज से दो हो जाते तो परिवार में रौनक लगती। फिर नरेन तो इकलौता है। दो होने से उसको व्यापार में दो मददगार हाथ मिल जायेंगे।”
पर होता वही है ईश्वर लिख भेजता है। उसने एक सुन्दर-सी बेटी को जन्म दिया। इस बीच में संगीता के श्वसुर का देहान्त हार्ट अटैक से हो गया था। अपनी बहू के चाल-चलन उनको पसन्द नहीं आते थे। पर बहू को इस हद तक बढ़ावा दे दिया था कि अब पीछे हटना भी ठीक नहीं था।
यही गम उन्होंने दिल से लिया और दिल का रोग उनके जीवन को लील गया। नरेन की माँ पति की मृत्यु के सदमे को बर्दाश्त न कर पायीं। वह बीमार रहने लगीं। उनका स्वास्थ्य भी गिरता चला गया।
“अरे कितनी देर लगेगी। रिपोर्ट मिल जाये तो क्रियाकर्म करें।”
“सही बात है। शायद मौत रात के करीब 11 बजे के आसपास हुई।”
“हाँ समझ में नहीं आता कि क्या से क्या हो गया। अरे 11 बजे तक मौत को गले लगा पाना कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। कितनी यंत्रण सही होगी। अपनों को हमेशा के लिए छोड़ने का मोहत्याग, जिन्दगी में उपजी गहन निराशा। अरे बड़ा जिगर वाला ही कर सकता था।”
“अरे कुछ नही ंतो कम से कम अपने बच्चों को ख्याल करना चाहिए था।”
“अरे कभी हमसे बैठकर अपनी समस्याएँ बतानी चाहिए थी। कोई न कोई हल निकलता।”
“हाँ थोड़ा-बहुत सुगबुगाहट थी कि आर्थिक तंगी है पर इतनी विकट समस्या होगी यह नहीं सोचा था।”
“हाँ यार, इंसान क्या सोचता है कि क्या हो जाता है। देखो न, चाचाजी ने शायद कभी सोचा भी न होगा कि वारिश इतनी कम उम्र में मर जायेगा।”
“हाँ क्या उसने एक मिनट भी मरने के पहले किसी के विषय में नहीं सोचा।”
“शायद स्वार्थी था।”
जितने मुँह उतनी बातें उसी समय पुलिस आकर उसकी चिट्ठियाँ माँगती है। उनमें से नीरज की लिखी हुई चिट्ठी नाते-रिश्तेदार हटा देते हैं कि नाहक उसको पुलिस परेशान करेगी।
पर शायद संगीता को पिछले एक साल से कुछ-कुछ आभास था कि नरेन ये कर लेगा। होता भी क्यों न! वह बार-बार आत्महत्या की धमकी देता था। सास को गुजरे भी एक अरसा हो गया। सर पर हाथ रखने वाला कोई न था।
छोटी उम्र थी और पति से उसको कोई विशेष लगाव न था। वह समझती थी कि वह रूप के बल पर इस घर में आयी है नही ंतो नरेन की औकात ही क्या कि वह उस जैसी अप्सरा को पा पाता। इसी के कारण वह नरेन की अवहेलना करती थी। नरेन भी अपनी पत्नी को बेहद चाहता था। लोग जब कहते कि देखो लंगूर को हूर। तो थोड़ी दुखी होने के साथ-साथ वह भाग्य पर इठलाता। पूरे खानदान में उसकी बीवी से ज्यादा सुन्दर कोई नहीं था। और वह उसको भाग्य मानता था। यही भाग्य उसका दुर्भाग्य बन गया।
अच्छे वक्त में ईश्वर इंसान को सब तरफ से देता है और इतना देता है कि वह समेटना चाहकर भी अपने अच्छे भाग्य को सहेज नहीं पाता। उसको यह अच्छा भाग्य अपने गुणों और पुण्य-प्रताप का नतीजा प्रतीत होता है। तब वह औरों के दुर्भाय की जम के व्याख्या करता है। उनकी मदद करने की अपेक्षा उनका मजाक उड़ता है। अगर वह अच्छे वक्त को ईश्वर की कृपा माने और दुःखी की सेवा करे तो जिन्दगी का संतुलन ज्यादा सही होगा। उसकी तकलीफ में भी कोई आकर मदद करेगा। क्योंकि गीता में कहा गया है कि ईश्वर ही स्वयं भोक्ता है और स्रष्टा है। और अपने हर पात्र की तकलीफ में शायद वह कहीं न कहीं दुःखी हो रहा होता है। ईश्वर की अनन्त कृपा होती है हम मूर्ख उसको अनुभव ही नहीं कर पाते और जो कुछ हमारे पास नहीं होता उसके लिए दुःखी होते हैं और उस सुख को भूल जाते हैं जो हमारे पास विद्यमान है।
संगीता के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ होगा। गरीब परिवार से आकर वह यहाँ ऐश्वर्य को न भोग पायी। जो जिन्दगी उसको नहीं मिली थी उसकी तड़प उसे उस मार्ग की ओर प्रेरित कर ले गयी जहाँ वह रूप का सदुपयोग सही तरीके से न कर पायी।
उसको लगा कि जिन्दगी में उसके पास अथाह धन-सम्पत्ति है पर अथाह तो किसी के पास नहीं होता। आमदनी से अधिक जब खर्चे बढ़ जाते हैं तो मुश्किल होने लगती है। आदमी अपना संचित धन खाने लगता है। यही कुछ इस दंपति के साथ हुआ। जीवन शैली ऐसी अपना ली जिसको पूरा करने के लिए धन नाकाफी हो गया। इस कारण व्यापार में भी स्थिरता न आ पायी। जब एक बार पैर उखड़ने लगता है तो फिर उसको सँभाल पाना मुश्किल होता हैं वही हुआ। रोजगार पर से ध्यान हटा तो वह मंदा चलने लगा। गलत वक्त में गलत लोगों का साथ मिल जाता है। नीरज संगीता के रूप-लावण्य से चिढ़ता था। उसको वह अपना नहीं बना पाया। लिहाजा उसको तबाह करने पर वह उतारू हो गया।
नीरज के पिता का देहांत जब वह कक्षा दस में था तभी हो गया था। नीरज भी अपने पिता का इकलौता पुत्र था। उसकी तीन बहनें थीं। पिता अथाह सम्पत्ति छोड़ गये थे। अपने पिता की मौत से उस लड़के का जी काफी कड़ा हो गया। फैली हुई सम्पति को सँभालना और व्यापार आगे बढ़ाने का हुनर वह सीख गया। वैसे भी विकट परिस्थिति अल्पायु में पड़ती है तो इंसान को जिन्दगी जीने की कला सिखा देती है। यही कुछ इसके साथ हुआ। वह कुछ अनुभवी हो गया। अपनी बहनों का अच्छे घरों में विवाह कर और व्यापार को आगे बढ़ाकर एक कामयाब इंसान के रूप में परिवार में स्थापित हो गया। उसने जिन्दगी को गंभीरता से लिया लिहाजन जिन्दगी ने उसको गंभीरता से लिया। नरेन सतही होकर रह गया। बचपन में माँ-बाप और जवानी में बीवी के हाथ की कठपुतली मात्र बनकर रह गया। और इस कठपुतली की डोर संगीता के पास थी जो नीरज के प्रति हल्का-सा आसक्त थी क्योंकि वह प्रगतिशील युवक था। और उसकी प्रगति इनकी जिन्दगी में बाधक हो गयी। वह कर्जों में इनको डुबोता गया और इसका नफा नीरज को हुआ और नुकसान नरेन का। नरेन जिन्दगी का सौदा बुरी तरह हार गया। और इस संग्राम में पीठ दिखाकर भाग गया।
नरेन ने मरते हुए लिखा कि मेरी लाश न जलायी जाय। सीधे विद्युत शवगृह में अंतिम संस्कार किया जाये।
“अरे ऐसा कैसे हो सकता है। घर चलकर उसकी लाश को एक बार बीवी-बच्चों को दिखा देते हैं, उन्हें आत्मिक शान्ति मिलेगी।”
“सही बात है। अन्तिम वक्त में उन्हें एक दिलासा हो जायेगी।”
और नरेन की इच्छा का सम्मान न करते हुए लोग कुछ देर के लिए उसे घर ले आये।
संगीता तड़पकर रो रही थी। उसके हाथ से सब-कुछ निकल गया था। जिन्दगी में कुछ पाने की खुशी क्षणिक होती है पर जिन्दगी में जितना मिला है उसके खोने का दुख असीम। संन्यासी शायद इसलिए इतना बेफिक्र घूम लेता है क्योंकि उसके पास सांसारिक वस्तु ही क्या जिसको खोने का भय सतायेगा। वह तो परमानन्द की स्थिति में घूमता रहता है। गृहस्थ अपनों की मृत्यु उपरान्त जीवन का मोल समझ पाता है।
“अरे अगर इंसान सलामत रहता तो सौ नियामतें हैं। जब पाला-पोसा इंसान चला गया तो बचा ही क्या।”
आज संगीता समझ पायी कि जिन्दगी के समस्त रंग पति से हैं। पति का अर्थ जीवनसाथी है। चाहे जैसा भी था, था तो पति ही। आज उसकी अर्थी पर रोते हुए वह अपने बीते हुए वक्त की गलतियों का स्मरण कर रही थी। शायद वह जिन्दगी को लेकर इतना हाय-तौबा न करती तो इतना कुछ जल्दी न होता। उसकी आकांक्षाएँ असीमित थीं और जिन्दगी की परिधि सीमित। उसमें उनको पूरा कर पाना शायद असंभव ही था। शीशे के सामने रंगहीन श्वेत वस्त्रों में उसको अपने जीवन का सार समझ में आया। जीवन कितना बहुमूल्य और ख्वाहिशें कितनी गौण।
काश उसने पति को समझाने का प्रयत्न किया होता, बात-बेबात झगड़ा न किया होता तो उसकी जिन्दगी की दिशा ही कुछ और होती। दुख अभिव्यक्त करने आया समाज सबके सब जा चुके थे, कोरी संवेदनाएँ थीं जो बची रह गयी थीं उसके पास। लोग शायद सब-कुछ भूलकर फिर से जीवन में लग गये होंगे। कुछ दिन बीतते-बीतते लोग उसको भी पूरी तरह से भुला देंगे। दूसरे कमरे में बेटी पलंग पर बैठकर खाँस रही थी। उसको दमा हो गया था। माता-पिता की कलह से बच्चों के स्वास्थ्य को प्रभावित करना शुरू कर दिया था। बेटा शायद इस सदमे से उभरने का प्रयत्न कर रहा था।
नरेन इस दुनिया से जाने के बाद भी हताश था। कहते हैं कि मरने के समय आत्मा का ध्यान जिनमें अटका रहता है आत्मा मृत्युपरंत उन्हीं में भटकती रहती है। और उसकी आत्मा बच्चों की दुर्दशा पर कचोट रही थी।
उस पूरा दिन वह अपनी दुकान में बैठा विवेचना करता रहा। जिन्दगी और मौत के द्वन्द्व में झूलता रहा। कभी जिन्दगी के मूल्य मौत पर हावी हो जाते कभी मौत सारी समस्याओं का एकमात्र विकल्प के रूप में प्रस्तुत हो जाती। काल जैसे उसके सर पर ताण्डव कर रहा था। उसको जिन्दगी के समीप जाने नहीं दे रहा था। उसके माता-पिता दूसरी दुनिया में उसको बुला रहे थे। इस लोक में बच्चे पीछे रो-गा रहे थे।
न ही अपने बच्चों को कुछ दे पाया। वह उनका सामना नहीं कर पा रहा था। एकबारगी उसको लगा कि उसका परिवार उसको बचाने के लिए अवश्यक आयेगा। वह उस कमरे में बैठ उनका इंतजार करता रहा। फिर निराशाओं का दौर शुरू हो गया। जिन्दगी और समस्त घर उसके सम्मुख एक चुनौती बनकर खड़ा हो गया। वह अब अकेले इसका मुकाबला नहीं कर सकता। एक समझदार पत्नी शायद उसको सँभाल ले जाती। पर....नहीं, अब कुछ नहीं हो सकता था।
सब-कुछ चला गया। एक तरफ पत्नी रूठी रहती थी तो दूसरी तरफ बच्चों की आँखों में सूनापन, पीड़ा छायी रहती थी। पत्नी का जब पहला जेवर उसने गिरवी रखा था तब उफ् कितनी पीड़ा.......नहीं अब और नहीं.......वह हार गया है......पूर्णता......बस.....सामने मौत थी पर पीछे ....एक बेकार-सी लचर-पचर जिन्दगी जिसका वह सामना नहीं कर सकता। वह सोना चाहता है......सामने उसकी माँ आ गयी। हाथ बढ़ाकर उसको बुला रही थी, “आ जा बेटा....मेरे पास आ.....मैं तेरा सहारा हूँ......भूल जा सब-कुछ.....आ जा। तू कैसे बचपन में जब हार जाता था तो मेरी गोद में सर छुपाकर पनाह लेता था। अब तुझे क्या हुआ! काफी बड़ा हो गया है रे। आ मेरे बच्चे आ......।”
नरेन वहाँ देखता रहा। माँ की आँखों में वात्सल्य था। हाँ, माँ का सहारा ही तो वह खोज रहा था। पर एक क्षण को बीवी और बच्चों को चेहरा उसकी आँखों के सामने से घूम गया। बीवी तीन दिन से नाराज थी। उसने खाना नहीं बनाया था। बच्चे तो अगल-बगल खाकर निश्चिन्त हो गये थे पर वह......उसको भूख कसकर लगने लगी.......जी घबराने लगा। अब तो भूखे रहने की आदत हो गयी थी। ’माँ मैं आ रहा हूँ, मुझे हलवा पूरी बनाकर खिलाओगी ना।’ और वह फाँसी पर लटक गया।
बाहर आकाश में लामिला फैलाने लगी थी। सूरज ने कब अपनी गति बदली है। सृष्टि तो चलती रहती है। चिड़ियाँ चीं.....चीं....कर उड़ रही थीं। सब लोग नरेन के कमरे में संगीता को घेरे में बैठे थे। नरेन को गये महीना हो गया था। नाते-रिश्तेदार संगीता और बच्चों के भविष्य की चिन्ता कर रहे थे। केसे उनकी गुजर-बसर होगी, इस पर सब विचार कर रहे थे।
“जाने वाला तो चला गया।”
“हाँ जो होना था सो हो गया।”
“जैसी ईश्वर की इच्छा।”
वक्त थमता नहीं है। जिन्दगी रूकती नहीं है। जो चला गया वह कल बन गया। जो जीवित है वर्तमान में सब उसी की चिन्ता करते हैं। जो मर गया वह तर गया।
संगीता अपने बच्चों के साथ दुकान के बाहर खड़ी थी। नरेन की मौत के बाद आज पहला दिन था जब वह अपनी दुकान आयी है। शायद नयी शुरूआत। जीवन शायद कभी रूका नहीं है। यही सृष्टि का नियम है और दुकान के शटर खुल गये। संगीता ने अपने बच्चों के साथ उसमें अपनी जगह बना ली।