एक कोने में बैठकर सब्जी काटते हुए वह बेदम प्रतीत हो रही थी। बूढ़ी की खाँसी बढ़ती जा रही थी। बाबूजी चारपाई पर बैठकर अखबार पढ़ रहे थे। अम्माँ कोई ऐसी बूढ़ी नहीं थी कि कोई खास उम्र हो गई हो। यही कोई चैंसठ-पैंसठ साल की रहीं होगी। घर की गृहस्थी ढोते-ढोते जीवन के अनुभव मानो शरीर के हर अंग पर स्पष्ट प्रतीत होने लगे थे। बाल पक गये थे। शक्ल पर झुरियाँ दूर से प्रतीत होती थीं। दुबला-पतला, छरहरा बदन, उस पर एक अपाहिज टाँग।
बाबूजी को रियाटर हुए सात-आठ या उससे भी अधिक कोई दस एक साल हो गये थें उसके बाद कहीं काम-धाम ढूँढा नहीं और मजे से घर में बैठकर रिटायर्ड जिन्दगी बिता रहे थें। ऐसे भी वह जीवन भर घर की जिम्मेदारियों से फारिग रहे। एक कुशल बीवी के चलते कभी उस ओर झाँकने का मौका नहीं मिला। सरकारी नौकरी होने के कारण आदत भी आरामतलबी की पड़ गयी थी।
कभी उनका कोई काम वक्त पर पूरा नहीं होता था तो अब्वल आसमान जरूर सिर पर उठा लेते थे। अम्माँ को निजी और सार्वजनिक जीवन में अनेकानेक बार वह अपमानित कर चुके थे। अम्माँ पर तो मानो कभी उनके इस व्यवहार से जूँभी न रंेगती थी। शायद बाबूजी को झेलते-झेलते आदत-सी हो गयी थी।
उनकी दो बेटियाँ थीं, जो ब्याह दी गई थीं। बेटा मैट्रिक पास कर आई0ए0 में आया था। बेटा अविनाश ट्यूशन कर जैसे ही लौटा तो माँ की खाँसी उसने देखी न गई। अम्मा को खाँसी क्या आती थी मानो बस अब प्राण ही निकलने को होते थे।
“चलो माँ तुमको डाॅक्टर को दिखा लाऊँ।” स्वर में उसके थोड़ा तत्रती थी। वह बाबू को सुनाकर थोड़ा सहानुभूति भी लेना चाहता था।
अखबार पढ़कर बाबूजी अब आँगन में तीज कदमों से टहल रहे थे।
“कहाँ जाने की बात हो रही है?”
“बाबूजी, माँ की खाँसी पिछले दो महीने से बराबर बनी हुई है। दवा-दारू भी नहीं कर रही है।”
बाबूजी थोड़ा रोष में बोले, “दवा-दारू से किसने रोका हुआ है। अपना ध्यान खुद ही नहीं रखती। सुबह उठकर जब देखो तब ठंडे पाने से सर धोकर नहा लेती है। यह भी कोई उम्र है इस तरह की ठिठोली की। शरीर का ख्याल रखे। पर नहीं, दुनिया को तो यह दिखाने में आनन्द आता है कि कैसे पति से शादी हो गई है जो ठीक से इलाज भी नहीं करवाता, देखभाल तो दूर है। क्या मैं जानता नहीं हूँ, यह चाल उसकी पिछले तीस बरस से झेलता आ रहा हूँ।”
अम्माँ की आँखों से आँसू छलक आये।
अविनाश बोला, “अब आप तो अच्छा-खासा भाषण देने पर मानो तुल गयें है।”
“अच्छा अब बेटा इतना बड़ा हो गया है कि माँ के लिए बोलेगा। जो खुद ही नहीं बोला जाता, वह बेटे के मुँह से कहलवाती है।”
और बाबू ने चाल तीज कर दी। अकेले पड़ गये थे। जवान-जहान होते बेटे से मुँह लगाना उचित नहीं था। थोड़ी देर व्यग्र रहे फिर वहीं से चिल्लाकर बोले, “ओ अविनाश की माँ चाय तो देना।”
अविनाश अपनी माँ के गिरते हुए स्वास्थ्य को देखकर चिन्तित था।
“बाबू थोड़े पैसे दे दो।”
“पैसा! अरे पैसा कहीं पेड़ पर फलता है? रिटायरमेंट के बाद तो ऐसे ही आधा मिलता है। तुम माँ-बेटे जब देखो तब पैसे का ही रोना रोते रहते हो।”
अविनाश को भी गुस्सा आ गया, “अब बस भी कीजिए बाबूजी। मेरे पास कुछ बचत के पैसे हैं, उन्हीं से माँ को दिखा आता हूँ।”
“पैसा तो मैंने ही तुमको दिया है वही न तुमने बचाकर रक्खा है और शेखी तो ऐसे बघार रहे हो मानो अपना कमाया हुआ धन हो।”
अविनाश कुछ न बोला। साइकिल बरामदे में लगाकर अन्दर चला गया।
अम्माँ भी पूरे घटनाक्रम में चुप बैठ सब्जी काटती रही। बाबूजी शुरू से कंजूस और लापरवाह आदमी थे, पर रिटायरमेंट के बाद तो जैसे वह पूर्णतः ही बदल गये थे, बात-बात पर झुँझला जाना उनकी आदत में शुमार हो गया था।
अविनाश ने अम्माँ से काफी मिन्नतें कीं कि चलकर दिखा लो, पर वह राजी नहीं हुई।
“कुछ नहीं हुआ है बेटा। बस थोड़ी-सी खाँसी ही तो है। फिर देख, दवा तो ले रही हूँ। कुछ दिनों में सब ठीक हो जायेगा। तू ऐसा कर यह वाली दवा लाकर दे दे। इससे आराम हो जाता है।”
बात आई-गई हो गयी। अम्माँ की हालत में ज्यादा सुधार न हुआ। अब तो उनको बुखार भी रहने लगा था। पहले से काफी कमजोर भी हो गई थी। एक दिन सुबह अम्माँ बिस्तर से नहीं उठी। इधर वैसे तो भोर होते ही उनका काम-काज चालू हो जाता। मटके में पानी भरना, कपड़े धोना आदि पर आज सूरज पूर्णतः अपना साम्राज्य फैला चुका था पर वह बेसुध पड़ी थी। बाबूजी को सुबह से ही चाय की तलब लगी हुई थी। आँगन में चहलकदमी कर रहे थे। चैके में कभी अम्माँ ने जाने का सुअवसर न दिया था। उसके प्रति ठहरे निरे अनाड़ी। मरता क्या न करता! बार-बार झाँक के देख जाते कि अम्माँ उठी कि नहीं फिर मन मारकर घूमने लगते।
“पता नहीं आज क्या हो गया है तुम्हारी अम्माँ को, अभी तक सोई पड़ी है। चल जरा चाय तो बना दे।”
“बाबूजी आप भी हद करते हैं। अम्माँ ऐसे ही नहीं न आराम फरमा रही है। जरूर तबियत बिगड़ गयी होगी।” अविनाश भागते हुए अन्दर आया।
अम्माँ के सर पर हाथ रखा तो बहुत तीज बुखार था। खाँसी पहले की तरह यथावत थी। बाबूजी से पैसे के लिए कहना व्यर्थ था। उसने अपनी दराज खोली और पैसे निकाल कर आनन-फानन में पड़ोस के डाॅक्टर को ले आया।
डाॅक्टर ने हर प्रकार से मुआइना किया और एक कागज पर कुछ लिखकर अविनाश को पकड़ा दिया।
“पहले यह सब टेस्ट करवा लीजिए, तब कुछ कहा जा सकता है।”
एक्सरे और खून की जाँच तो बगल के सरकारी अस्पताल में करवा लाना था। उनका नतीजा आने के बाद बाकी परीक्षण करवाना था। इस बीच बगल वाली शीला मौसी ने घर को सँभाल लिया था। बीच-बीच में आकर माँ की भी सेवा-पानी कर जाती थी। शीला मौसी और अम्माँ आगे-पीछे ब्याहकर इस मुहल्ले में आयी थीं। अम्माँ के स्वभाव के कारण दोनों में घनिष्ठता काफी बढ़ गयी थी। जब शीला मौसी विधवा हुई थी तो अम्माँ ने उनको सँभाला था। आज उसी का ऋण वह अदा कर रही थी।
रिपोर्टस लेकर शाम को डाॅक्टर के पास गया। देखकर डाॅक्टर थोड़ी देर सकते में आ गये फिर अविनाश का चेहरा पढ़ने की कोशिश करने लगे। थोड़ी देर बाद संयत स्वर में उन्होंने कहना शुरू किया-
“बेटा जो सोचा था उससे भी भयंकर अंजाम सामने आया है। मैंने तो बहुत सोचा तो भी टी0बी0 के आगे की कल्पना न कर पाया। पर एक्सरे तो.....” वह ठिठक गये। अविनाश के चेहरे पर से उन्होंने आँखें हटा लीं। सर झुकाकर बोले, “आखिरी अवस्था में....” और कमरे के गमगीन माहौल के साथ वह भी मौन साध गये।
अविनाश के ऊपर तो जैसे वज्रपात हुआ। कभी दूर-दूर तक भी उसने इस बात की कल्पना नहीं की थी कि उसकी माँ हर पल जिन्दगी और मौत की लड़ाई लड़ रही है।
सकते की स्थिति से उबरने के बाद वह धीरे से पूछ पाया, ’’कोई उम्मीद?’’
’’बस ईश्वर ही कुछ कर सकता है। नहीं तो एक महीना से अधिक का वक्त नहीं है उनके पास।’’
अविनाश भारी मन से डाॅक्टर के कक्ष से निकला। जी कैसा-कैसा हो गया था।
घर पहुँचा तो बाबूजी का अपना ही राग चल रहा था। माँ अपनी चारपाई पर पड़ी कुछ बुदबुदा रही थी। कमरे में जाकर माँ का हाथ पकड़कर बैठ गया। शायद बहुत कस के पकड़ने से माँ छुड़ा नहीं पायेगी। माँ मे भी उसके स्पर्श से स्पन्दन हुआ।
’’बेटा तू आ गया। जा, जाकर खाना खा ले। पिताजी कब से तेरे लिए परेशान घूम रहे हैं, भूखे भी हैं। अब मैंने ही न उनकी आदत बिगाड़ दी है। बच्चे-सा व्यवहार करते हैं।’’
’’भूख तो उन्हें बर्दाश्त नहीं। मौसी खाना पकाकर रख गयी है।....’’ माँ बोले जा रही थी और वह सुने जा रहा था। आज वह माँ से ढेरों बातें कर लेना चाहता था, पता नहीं कल क्या लेकर आये।
थोड़ी देर में जब संयत हुआ तो उठकर बाबूजी के कमरे में गया।
’’कहाँ था अब तक?’’ कड़ककर पूछा, ’’बोलो कहाँ था?’’
’’डाॅक्टर के पास ’’, बड़ी मुश्किल से स्वर निकला।
’’क्या बोला डाॅक्टर?’’
अविनाश बाबूजी की शक्ल देखने लगा। फिर बिना कुछ भूमिका बाँधे बोला, ’’फेफड़े का कैंसर।’’ और सर झुका लिया जैसे उससे कोई बहुत बड़ा अपराध हो गया हो।
बाबूजी शायद समझे नहीं या समझकर अनजान बने रहे, ’’फेफड़े का कैंसर!’’ फिर शायद अपने ही स्वर से उनकी तन्द्रा टूटी और शब्दों की गम्भीरता का ज्ञान हुआ।
’’इलाज....?’’ टूटे हुए स्वर में पूछा।
’’कुछ नहीं आखिरी वक्त है। सिर्फ दुआ ही काम करेगी।’’
शायद बीमारी की भयावहता बाबूजी के मन-स्थल में धीरे-धीरे प्रवेश कर रही थी। भारी मन से वह भी चहलकदमी करने लगे। उठकर अम्माँ को छूने का साहस नहीं हो रहा था। पास की ही कुर्सी पर पूरी रात बैठे रहे।
उस दिन परिवार में किसी ने भी खाना नहीं खाया।
सुबह जब अविनाश की आँख खुली तो अम्माँ सो रही थी पर बाबूजी का कहीं अता-पता नहीं था।
उठने पर माँ ने भी सबसे पहले बाबूजी के विषय में पूछा।
’’बस माँ आते ही होंगे पास ही में गये हैं.....’’ अविनाश झूठ बोल गया।
अम्माँ कुछ न बोली।
बाबूजी कपड़े की दुकान के बाहर बैठे हुए थे। सुबह से ही दुकान खुलने का इंतजार कर रहे थे। कल शाम से उनके अन्दर एक शून्यता ने प्रवेश कर लिया था। उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। अम्माँ के साथ बिताये हुए क्षण उन्हें रह-रहकर कचोट रहे थे। वह अम्माँ को कभी भी पूरा वक्त नहीं दे पाये इसकी उनको आत्मग्लानि हो रही थी।
काफी समय से अम्माँ को एक साड़ी खरीदने का मन था। सुन्दर-सी भारी साड़ी। सूती धोती के सिवा वह उसको कुछ भी खरीद न पाये थे और अम्माँ ने इसके आगे कभी कोई फरमाइश भी नहीं की थी। एक संतोषी सुघड़ गृहिणी की तरह वह घर के कार्याें में खुश रहती थी, पर इधर उसने पहली बार मुँह खोला था वह भी कीमती साड़ी के लिए और उन्होंने उसे झिड़क दिया था।
’’अपनी औकात देखकर पैर पसारना चाहिए।’’ और अब जब अम्माँ हमेशा के लिए चुप हो जाय इससे पहले वह लाल चुनरी के गोटे वाली साड़ी उनको पहनाना चाहते थे। पहनाकर उसको खुश देखना चाहते थे।
जैसे ही दुकान खुली, वह साड़ी खरीदकर तीज कदमों से घर की ओर लपके। अम्माँ की जाती हुई हर साँस के साथ कदम तीज करते गये। साड़ी को काफी कस कर पकड़े हुए थे कि कहीं छूट न जाय। आज उन्हें अनुभव हुआ कि जिन्दगी के आगे बाकी सब बेमोल है। सिर्फ जीवन ही बहुमूल्य है। उधर शायद अम्माँ भी आखिरी बार खाँसी थीं।