संघर्ष

     मैं क्या लिख रही हूँ और क्यों, शायद इसका मुझको ज्ञान नहीं है। कभी-कभी वक्त ऐसा आता हे कि इंसान हतप्रभ रह जाता हैं नाटक का पटाक्षेप इतना जल्दी होता है इसका अनुभव कभी इतनी अचानक ओर अकिंचित होता कि समस्त चक्षु सिर्फ हृदय पर केन्द्रित हो सोच को विराम दे थरा्रने लगते हैं। फिर यह घटना थी भी ऐसी। नरेन मामा ने खुदखुशी कर ली थी। उस दिन शाम से ही कुत्तों के रोने का समवेत स्वर सुनाई पड़ रहा था। शायद जानवरों की मौन संवेदनाएँ इंसानों की तकलीफ बहुत पहले ही समझ लेती हैं। एक अच्छा-भला इंसान भला क्यों अपनी इहलीला समाप्त कर लेगा, इसका अनुभव भी कर पाना असहनीय है। जब हम सुख से अपने घरों में बैठे होते हैं तो किसी की घुटन को महसूस कर पाना असंभव ही है। जीवन की भेंट को इतनी आसानी से खत्म कर देना एक असाधारण कदम है।

     कोई क्यों कर लेता है ऐसा?

     मौत शाश्वत् है और एक हकीकत।

    पंखे से लाश लटकी हुई थी। गला एक तरफ लुढ़क गया था। पैर जमीन से थोड़ा ऊपर हवा में झूल रहे थे। पास ही मेज पर पन्ने फड़फड़ा रहे थे। दस पन्ने। और पूरी जिन्दगी की कहानी, उससे जुड़ी अपेक्षाएँ, आकांक्षाएँ, संघर्ष, असफलताओं की एक छोटी दास्तान। तमाम जिन्दगी जैसे कुछ पन्नों और थोड़े से शब्दों में सिमटकर रह गयी थी। जिन्दगी का अस्तित्व कागज के पन्नों में फड़फड़ा रहा था। शायद वह भी जिन्दगी की तरह हवा में उड़ जाना चाहता हैं अब कुछ शेष रहा नहीं। शेष रह गयीं वह कुछ जिन्दगियाँ जो उनसे जुड़ी थीं। शेष रह गये उनके संघर्ष।

     उम्र कोई ज्यादा नहीं रही होगी। यही कोई चालीस-पैंतालीस साल। दुबला-पतला जीर्णकाय शरीर जो कभी हट्टा-कट्टा रहा होगा। उड़े-उड़े बाल पर चेहरे पर अपूर्व शान्ति। वहीं शान्ति जिसकी तलाश में पूरी उम्र गुजर गयी। तमाम उम्र गुजार दी पर मिली न खुशी। अब जब मिली तो उम्र से वास्ता ही न रहा।

आज से करीब पन्द्रह-सोलह साल पहले उनकी शादी संगीता नाम की लड़की से हुई थी। लड़की थी बेहद सुन्दर। छोटी उम्र, सुन्दर रूप-रंग और अच्छे पैसे वाले घर में शादी ने उसके दिमाग को उछाल दिया। सास की इकलौती बहू होने के कारण सास ने धरती पर उसके मानो पैर ही पड़ने नहीं दिए। मायके में संगीता के कुछ खास न था अतः यहाँ का पैसा उसको लुभाता । उसके पिता को पैरालिसिस था अतः उन्होंने पूरी जिन्दगी ही खाट पर काट दी। कभी भी पैसा असीम नहीं हुआ। जब आकांक्षाएँ असीमित होने लगती हैं तो धन की अपनी सीमाएँ बँध जाती हैं और फिर उसका क्षय होने लगता है। धन सिर्फ दान या भोग के लिए ही निमित्त है। अगर उसका संचय होता तो वह नष्ट होने लगता हैं इसलिए धन का सदुपायोग होना चाहिए। पर नरेन मामा के पिता ने अति की कंजूसी की, अपने नाते-रिश्तेदारों को काटकर पैसा एकत्रित किया कि वह उसके एकमात्र पुत्र के लिए पर्यापत होगा। वह उसके लिए इतना छोड़ जाना चाहते थे कि सात पुश्तें उसका उपभोग कर सकें। पर लक्ष्मी तो ठहरी चंचला, कब किसी के पास स्थिर हुई है। बड़े-बड़े राजघराने चैपट हो गये और महल-असबाब आज या तो धूल चाट रहे है या फिर भूतहा बंगला बने उनमें चमगादड़ लोट रहे हैं। राजे-महाराजे तो मिट गये फिर छोटे-मोटे आदमी की क्या बिसात।

      भीड़ बढ़ती जा रही थी। जो सुनता एक बार तो हतप्रभ हो जाता। इतनी बड़ी घटना, खानदान में कभी भी हुई थी। फिर सबकी आँखों के सामने उनका चेहरा और बिताये हुए क्षण घूम जाते। कोई न कोई याद मीठी या खट्टी जेहन में जुड़ जाती और मन को कचोटती।

     सुबह करीब बारह बजे वह घर से निकले थे। बोल के निकले कि मैं इनकम टैक्स आॅफिस जा रहा हूँ, देर हो जायेगी। परेशान न होना। रोजगारी आदमी को सेल्स टैक्स, इनकम टैक्स से तो बराबर सामना करना पड़ता ही है। घर में किसी को संदेह न हुआ। फिर जैसे कोई लंबी यात्रा के पहले की तैयारी से निकलते हैं वैसे ही वह भी बकायदा जूते मोजे पहनकर बढ़िया शर्ट-पैंट चढ़ाकर अपनी लंबी यात्रा की तैयारी के लिए निकले। यात्रा लंबी थी उस लिहाजन तैयारी काफी न थी पर उस यात्रा का अन्त निश्चित था। न कोई पड़ाव न कोई ऊबड़-खाबड़ रास्ते, न प्राकृतिक दृश्य, न बच्चों का खेलना-खिलखिलाना, युवतियों का इठलाना-मचलना, सिर्फ एक मंजिल एक सीधा-सरल मार्ग। एक अपूर्व शान्ति।

     उनका नाम नरेन था। अपने माँ-बाप की इकलौती संतान। बचपन से लाड़-दुलार से पले-बढ़े थे। पिता के पास पैसे की कमी न थी। संयुक्त परिवार था अतः पूरा दिन ऊधम, धमाचैकड़ी में निकल जाता था। माँ चूँकि रईस परिवार से आई थी अतः काम में उनका अधिक मन लगता न था। वैसे भी संयुक्त परिवार में उसी बहू की इज्जत है जिसका मायका मजबूत है। अपने मायके के बल पर वह ससुराल में राज करती है। बड़े बाप की बेटी होने के कारण उनसे कोई ज्यादा काम-काज भी नहीं होता था। पुत्र की परवरिश भी जैसे उनके ऊपर बोझ थी। जब उम्र अच्छी शिक्षा देने की थी तो माँ अपना वक्त त्रिया-चरित्र में बिताती थी। बेटा हाथ से निकलता गया। पढ़ने के वक्त वह मटरगश्ती करता था। बेटा इस तरीके से हाथों से निकलेगा यह बात जब माँ को नाकाफी लगी तो उसने शुरू किया उसका सबसे कम मिलना जुलना। घर वालों के खिलाफ भड़काना शुरू किया जिससे उसका बालपन ऊँचे उठने के बदले संकीर्णताओं और पारिवारिक कलह में लग गया। और नरेन वास्तव में एक अयोग्य नरेन होकर रह गया।

     “अरे यह सब कैसा हुआ?”

     “बात कब की है?”

     बाहर परिचितों की भीड़ बढ़ गयी थी। सहूलियत से लाश को नीचे उतारा गया। उन्होंने अपने अच्छे कपड़े एक तरफ रख दिये थे, घड़ी और अँगूठी तो वह सहूलियत से घर पर ही रख आये थे। शायद अंदेशा था कि कहीं घर वालों से पहले किसी और की निगाह उन पर पड़ गयी तो वह ले सकता है। लोगों का क्या, अगर उनका बस चले तो वह मुर्दों को भी बेच खायें। दुकान में वह बारह सवा बारह बजे दिन में पहुँच गये थे। पर जान देने की उन्होंने ग्यारह बजे रात को ठानी क्योंकि जब लाश पुलिस को मिली तो वह 10-12 घण्टे पुरानी थी। पुलिस का क्या, उसके लिए तो बस एक ठूँठ का ढेर था पर घर वालों के लिए कोई अपना। बेहद करीबी, प्यारा और अजीज। बारह बजे दिन से वह अपनी दुकान में बैठे रहे और तब कहीं जाकर 11 बजे रात में आत्महत्या की है। मरता हुआ आदमी भी मौत से बचना चाहता है। फिर उस आदमी के अन्दर मौत को आत्मसात् करने की इतनी व्यग्रता, इतना जुनून कि उसने बहुत ठहरकर उसको गले से लगाया। मौत से नरेन को कितना प्यार था, या फिर जिन्दगी से नफरत। आखिरी साँसे गिनता हुआ आदमी भी एक छोटी सी जिन्दगी की उम्मीद करता है। पर नरेन तो जीवन का मोह ही त्याग बैठा था और यहाँ बैठकर वह सिर्फ और सिर्फ मौत का इंतजार करता रहा और आखि रवह सब रिश्तों, भावनाओं, संवेदनाओं के ऊपर भारी पड़ी। वह रात को फाँसी लगाकर झूल गया।

     उफ कितनी पीड़ा और जिन्दगी से घोर घृणा। उस घृणा ने मौत की फतह कर दी। मरने के पहले वह दस पन्नों की चिट्ठी लिख गये जिसको पुलिस ने अपने कब्जे में ले लिया। उन चिट्ठियों में जिन्दगी का दर्द और हताशा सिमटकर आ गयी थी।

     “मैं खुदकुशी अपनी इच्छा से कर रहा हूँ। इसके लिए कोई भी जिम्मेदार नहीं है। मेरे परिवार को परेशान न किया जाये।”

     एक चिट्ठी सास के नाम-
     “मैं आपकी बेटी को सँभाल नहीं पाया।”

     एक चिट्ठी कर्जदारों के नाम-
     “जिस तरह से मेरी जिन्दगी बरबाद की है वैसे फिर कभी आइन्दा किसी की न करना।”

     एक चिट्टी बच्चों के नाम-
     “मैं हार गया। मैं तुम्हें सन्तुष्टि न दे पाया। तुम्हारे लिए इस जिन्दगी में कुछ नहीं कर पाया। मैं तुम्हारा दोषी हूँ। मुझे माफ करना।”

     एक चिट्ठी पत्नी के नाम-
     “आर्थिक तंगी से तंग आ, घरेलू कलह से परेशान हो मैं यह कदम उठा रहा हूँ। मैं आत्महत्या कर रहा हूँ। मैं तुम्हारी जिन्दगी से जा रहा हूँ। अब तुम आजाद हो हमेशा-हमेशा के लिए।”

     दशहरा का दिन था। नरेन के लिए संगीता को घर वालों ने पसंद किया था। बेहद सुन्दर और स्मार्ट। पर एक तरह से बेमोल और इच्छाओं के अनुरूप नहीं ठीक विपरीत स्वभाव। जैसा कि पहले भी कथानक बोल चुका है, एक अपरिपक्व बुद्धि जिसको उछालना और बरगला लेना बेहद आसान है। उसी दिन संयोग से उसका जन्मदिन पड़ता था। सास-ससुर ने काफी व्यापक पैमाने पर आयोजन किया था।

     “अरे बहू का रूप तो देखो। नरेन के लिए ईद का चाँद ढँूढकर लायी है।”

     “हाँ लड़की भी तो जेवरों से लदी राजरानी लग रही है जैसा रूप वैसा भाग्य है।”

     “क्या किस्मत पाई है। लगता है ईश्वर ने सब-कुछ देकर संगीता को भेजा है।”

      लोग जलन मिश्रत ईष्र्या से भाग्य और रूप का बखान करते गये वह हर बखान पर घमण्ड की एक-एक सीढ़ी चढ़ती गई। नरेन उसके समक्ष गौण हो गया और गौण हो गया उसका भाग्य। सास भी नाते-रिश्तेदारों को उलाहने दे रही थी-

      “अरे सब लोग मेरी बहू का करो।”

      जब भाग्य मुस्कुराता है तो यह भूल जाते हैं कि जिन्दगी का चक्र अनवरत चलता रहता है। सुख और दुख, खुशी और गम तो आते-जाते हैं। जैसे रात के बाद दिन और दिन के बाद रात होते हैं वैसे ही यह तुच्छ जीवन है। जो खेल खेलता है, वह तो ऊपर बैठा ईश्वर, सृष्टा और कत्र्ता बन एक जीवन का तमाशा देखता रहता है। कब कौन अभागा और कोन भाग्यशाली इसको समझना न केवल विचित्र है अपितु छुपा हुआ भी है।

     और वह गर्वित नारी रूप और धन के अंधकार में राजरानी की पदंवी पर आसीन भूल गयी कि नीचे एक वास्तविकता की जमीन भी है जो कठोर है और जब इंसान हवा में उड़ता है तो हवा निकल जाने के बाद औंधे मुँह जमीन पर गिरता है। जब कठोर धरातल पर मनुष्य के कदम होते हैं तो अगर ठोकर भी लगती है तो वह सँभल जाता है और अगला कदम सोचकर उठाता है। गर्वित नारी कहीं भी पाताल की पहली सीढ़ी होती है। और जिस नारी को रूप का घमण्ड हो उसकी तो जिन्दगी में पुरूषों द्वारा भोग्या बनने में वक्त नहीं लगता। अपने मुँहबोले देवरों के मीठे संभाषणों ने उसके अन्दर उच्छृंखल नारीत्व का पोषण कर दिया। और इसी में उसके संपर्क में एक देवर आया नीरज। जे भाभी की चाटुकारिता में अपना वक्त व्यतीत करता था।

     पुलिस आ गयी थी। लाश को नीचे उतारा जा रहा था। अभी तो पोस्टमार्टम होना चाहिए। वास्तव में हर जिन्दगी का एक पोस्टमार्टम होना चाहिए। क्यों उसके साथ ऐसा घटित होता गया। क्योंकि जैसे रिपोर्ट हमें यह अवगत कराती है कि इस बेजान लाश के साथ क्या कुछ किया गया होगा वैसे ही हर लाश उस बीती हुई

जिन्दगी के सही और गलत कार्यों के निर्णयों को भी बताती है। कभी-कभी जिन्दगी का कोई निर्णय हमें सफलता के कगार पर पहुँचा देता है और कोई असफलता की गहन और घोर निराशा के भँवर में, जिससे निकलने का कोई भी रास्ता नहीं सूझता। जिन्दगियों को क्षत-विक्षत करने से उससे उपजे अनुभव हमें ज्ञानी न सही पर सीख तो अवश्यक दे सकते हैं और किसी दूसरे इंसान की जिन्दगी सँभल सकती है। जिन्दगी न्यूटन के सिद्धांत पर बीतती है कि हमारे हर कर्म का एक प्रतिफल होता है जो जिन्दगियों की धारा को बदल देता है।

     शादी के साल के अन्दर संगीता को पुत्र हो गया और अब तो जैसे उसके भाग्य की खूबसूरती पर भी ठप्पा लग गया।

     “अरे बहू ने आते ही आते पुत्र को जन्म दिया।”

     “क्या कहा जाये कितनी भाग्यशाली बहू है।”

     “इस बुढ़ापे में इंदिरा के तो भाग्य खुल गये।”

     “अरे संगीता अब झटपट दूसरा भी कर लो।”

     “नहीं मामीजी।“ संगीता ने अहंकार बश कहा-“दूसरा कम से कम लड़का तो नहीं चाहिए। दूसरी बेटी हो तो ठीक।”

     “अब बच्चा तो ईश्वर की देन है देखो क्या लिखा है किस्मत में। जीवन और मरण तो ऊपर वाले के हाथ में है। पर मेरे लिहाज से दो हो जाते तो परिवार में रौनक लगती। फिर नरेन तो इकलौता है। दो होने से उसको व्यापार में दो मददगार हाथ मिल जायेंगे।”

     पर होता वही है ईश्वर लिख भेजता है। उसने एक सुन्दर-सी बेटी को जन्म दिया। इस बीच में संगीता के श्वसुर का देहान्त हार्ट अटैक से हो गया था। अपनी बहू के चाल-चलन उनको पसन्द नहीं आते थे। पर बहू को इस हद तक बढ़ावा दे दिया था कि अब पीछे हटना भी ठीक नहीं था।

यही गम उन्होंने दिल से लिया और दिल का रोग उनके जीवन को लील गया। नरेन की माँ पति की मृत्यु के सदमे को बर्दाश्त न कर पायीं। वह बीमार रहने लगीं। उनका स्वास्थ्य भी गिरता चला गया।

     “अरे कितनी देर लगेगी। रिपोर्ट मिल जाये तो क्रियाकर्म करें।”

     “सही बात है। शायद मौत रात के करीब 11 बजे के आसपास हुई।”

     “हाँ समझ में नहीं आता कि क्या से क्या हो गया। अरे 11 बजे तक मौत को गले लगा पाना कोई छोटी-मोटी बात नहीं है। कितनी यंत्रण सही होगी। अपनों को हमेशा के लिए छोड़ने का मोहत्याग, जिन्दगी में उपजी गहन निराशा। अरे बड़ा जिगर वाला ही कर सकता था।”

     “अरे कुछ नही ंतो कम से कम अपने बच्चों को ख्याल करना चाहिए था।”

     “अरे कभी हमसे बैठकर अपनी समस्याएँ बतानी चाहिए थी। कोई न कोई हल निकलता।”

     “हाँ थोड़ा-बहुत सुगबुगाहट थी कि आर्थिक तंगी है पर इतनी विकट समस्या होगी यह नहीं सोचा था।”

     “हाँ यार, इंसान क्या सोचता है कि क्या हो जाता है। देखो न, चाचाजी ने शायद कभी सोचा भी न होगा कि वारिश इतनी कम उम्र में मर जायेगा।”

     “हाँ क्या उसने एक मिनट भी मरने के पहले किसी के विषय में नहीं सोचा।”

     “शायद स्वार्थी था।”

     जितने मुँह उतनी बातें उसी समय पुलिस आकर उसकी चिट्ठियाँ माँगती है। उनमें से नीरज की लिखी हुई चिट्ठी नाते-रिश्तेदार हटा देते हैं कि नाहक उसको पुलिस परेशान करेगी।

     पर शायद संगीता को पिछले एक साल से कुछ-कुछ आभास था कि नरेन ये कर लेगा। होता भी क्यों न! वह बार-बार आत्महत्या की धमकी देता था। सास को गुजरे भी एक अरसा हो गया। सर पर हाथ रखने वाला कोई न था।

छोटी उम्र थी और पति से उसको कोई विशेष लगाव न था। वह समझती थी कि वह रूप के बल पर इस घर में आयी है नही ंतो नरेन की औकात ही क्या कि वह उस जैसी अप्सरा को पा पाता। इसी के कारण वह नरेन की अवहेलना करती थी। नरेन भी अपनी पत्नी को बेहद चाहता था। लोग जब कहते कि देखो लंगूर को हूर। तो थोड़ी दुखी होने के साथ-साथ वह भाग्य पर इठलाता। पूरे खानदान में उसकी बीवी से ज्यादा सुन्दर कोई नहीं था। और वह उसको भाग्य मानता था। यही भाग्य उसका दुर्भाग्य बन गया।

     अच्छे वक्त में ईश्वर इंसान को सब तरफ से देता है और इतना देता है कि वह समेटना चाहकर भी अपने अच्छे भाग्य को सहेज नहीं पाता। उसको यह अच्छा भाग्य अपने गुणों और पुण्य-प्रताप का नतीजा प्रतीत होता है। तब वह औरों के दुर्भाय की जम के व्याख्या करता है। उनकी मदद करने की अपेक्षा उनका मजाक उड़ता है। अगर वह अच्छे वक्त को ईश्वर की कृपा माने और दुःखी की सेवा करे तो जिन्दगी का संतुलन ज्यादा सही होगा। उसकी तकलीफ में भी कोई आकर मदद करेगा। क्योंकि गीता में कहा गया है कि ईश्वर ही स्वयं भोक्ता है और स्रष्टा है। और अपने हर पात्र की तकलीफ में शायद वह कहीं न कहीं दुःखी हो रहा होता है। ईश्वर की अनन्त कृपा होती है हम मूर्ख उसको अनुभव ही नहीं कर पाते और जो कुछ हमारे पास नहीं होता उसके लिए दुःखी होते हैं और उस सुख को भूल जाते हैं जो हमारे पास विद्यमान है।

     संगीता के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ होगा। गरीब परिवार से आकर वह यहाँ ऐश्वर्य को न भोग पायी। जो जिन्दगी उसको नहीं मिली थी उसकी तड़प उसे उस मार्ग की ओर प्रेरित कर ले गयी जहाँ वह रूप का सदुपयोग सही तरीके से न कर पायी।

     उसको लगा कि जिन्दगी में उसके पास अथाह धन-सम्पत्ति है पर अथाह तो किसी के पास नहीं होता। आमदनी से अधिक जब खर्चे बढ़ जाते हैं तो मुश्किल होने लगती है। आदमी अपना संचित धन खाने लगता है। यही कुछ इस दंपति के साथ हुआ। जीवन शैली ऐसी अपना ली जिसको पूरा करने के लिए धन नाकाफी हो गया। इस कारण व्यापार में भी स्थिरता न आ पायी। जब एक बार पैर उखड़ने लगता है तो फिर उसको सँभाल पाना मुश्किल होता हैं वही हुआ। रोजगार पर से ध्यान हटा तो वह मंदा चलने लगा। गलत वक्त में गलत लोगों का साथ मिल जाता है। नीरज संगीता के रूप-लावण्य से चिढ़ता था। उसको वह अपना नहीं बना पाया। लिहाजा उसको तबाह करने पर वह उतारू हो गया।

     नीरज के पिता का देहांत जब वह कक्षा दस में था तभी हो गया था। नीरज भी अपने पिता का इकलौता पुत्र था। उसकी तीन बहनें थीं। पिता अथाह सम्पत्ति छोड़ गये थे। अपने पिता की मौत से उस लड़के का जी काफी कड़ा हो गया। फैली हुई सम्पति को सँभालना और व्यापार आगे बढ़ाने का हुनर वह सीख गया। वैसे भी विकट परिस्थिति अल्पायु में पड़ती है तो इंसान को जिन्दगी जीने की कला सिखा देती है। यही कुछ इसके साथ हुआ। वह कुछ अनुभवी हो गया। अपनी बहनों का अच्छे घरों में विवाह कर और व्यापार को आगे बढ़ाकर एक कामयाब इंसान के रूप में परिवार में स्थापित हो गया। उसने जिन्दगी को गंभीरता से लिया लिहाजन जिन्दगी ने उसको गंभीरता से लिया। नरेन सतही होकर रह गया। बचपन में माँ-बाप और जवानी में बीवी के हाथ की कठपुतली मात्र बनकर रह गया। और इस कठपुतली की डोर संगीता के पास थी जो नीरज के प्रति हल्का-सा आसक्त थी क्योंकि वह प्रगतिशील युवक था। और उसकी प्रगति इनकी जिन्दगी में बाधक हो गयी। वह कर्जों में इनको डुबोता गया और इसका नफा नीरज को हुआ और नुकसान नरेन का। नरेन जिन्दगी का सौदा बुरी तरह हार गया। और इस संग्राम में पीठ दिखाकर भाग गया।

     नरेन ने मरते हुए लिखा कि मेरी लाश न जलायी जाय। सीधे विद्युत शवगृह में अंतिम संस्कार किया जाये।

     “अरे ऐसा कैसे हो सकता है। घर चलकर उसकी लाश को एक बार बीवी-बच्चों को दिखा देते हैं, उन्हें आत्मिक शान्ति मिलेगी।”

     “सही बात है। अन्तिम वक्त में उन्हें एक दिलासा हो जायेगी।”

     और नरेन की इच्छा का सम्मान न करते हुए लोग कुछ देर के लिए उसे घर ले आये।

     संगीता तड़पकर रो रही थी। उसके हाथ से सब-कुछ निकल गया था। जिन्दगी में कुछ पाने की खुशी क्षणिक होती है पर जिन्दगी में जितना मिला है उसके खोने का दुख असीम। संन्यासी शायद इसलिए इतना बेफिक्र घूम लेता है क्योंकि उसके पास सांसारिक वस्तु ही क्या जिसको खोने का भय सतायेगा। वह तो परमानन्द की स्थिति में घूमता रहता है। गृहस्थ अपनों की मृत्यु उपरान्त जीवन का मोल समझ पाता है।

     “अरे अगर इंसान सलामत रहता तो सौ नियामतें हैं। जब पाला-पोसा इंसान चला गया तो बचा ही क्या।”

     आज संगीता समझ पायी कि जिन्दगी के समस्त रंग पति से हैं। पति का अर्थ जीवनसाथी है। चाहे जैसा भी था, था तो पति ही। आज उसकी अर्थी पर रोते हुए वह अपने बीते हुए वक्त की गलतियों का स्मरण कर रही थी। शायद वह जिन्दगी को लेकर इतना हाय-तौबा न करती तो इतना कुछ जल्दी न होता। उसकी आकांक्षाएँ असीमित थीं और जिन्दगी की परिधि सीमित। उसमें उनको पूरा कर पाना शायद असंभव ही था। शीशे के सामने रंगहीन श्वेत वस्त्रों में उसको अपने जीवन का सार समझ में आया। जीवन कितना बहुमूल्य और ख्वाहिशें कितनी गौण।

     काश उसने पति को समझाने का प्रयत्न किया होता, बात-बेबात झगड़ा न किया होता तो उसकी जिन्दगी की दिशा ही कुछ और होती। दुख अभिव्यक्त करने आया समाज सबके सब जा चुके थे, कोरी संवेदनाएँ थीं जो बची रह गयी थीं उसके पास। लोग शायद सब-कुछ भूलकर फिर से जीवन में लग गये होंगे। कुछ दिन बीतते-बीतते लोग उसको भी पूरी तरह से भुला देंगे। दूसरे कमरे में बेटी पलंग पर बैठकर खाँस रही थी। उसको दमा हो गया था। माता-पिता की कलह से बच्चों के स्वास्थ्य को प्रभावित करना शुरू कर दिया था। बेटा शायद इस सदमे से उभरने का प्रयत्न कर रहा था।

     नरेन इस दुनिया से जाने के बाद भी हताश था। कहते हैं कि मरने के समय आत्मा का ध्यान जिनमें अटका रहता है आत्मा मृत्युपरंत उन्हीं में भटकती रहती है। और उसकी आत्मा बच्चों की दुर्दशा पर कचोट रही थी।

     उस पूरा दिन वह अपनी दुकान में बैठा विवेचना करता रहा। जिन्दगी और मौत के द्वन्द्व में झूलता रहा। कभी जिन्दगी के मूल्य मौत पर हावी हो जाते कभी मौत सारी समस्याओं का एकमात्र विकल्प के रूप में प्रस्तुत हो जाती। काल जैसे उसके सर पर ताण्डव कर रहा था। उसको जिन्दगी के समीप जाने नहीं दे रहा था। उसके माता-पिता दूसरी दुनिया में उसको बुला रहे थे। इस लोक में बच्चे पीछे रो-गा रहे थे।

     न ही अपने बच्चों को कुछ दे पाया। वह उनका सामना नहीं कर पा रहा था। एकबारगी उसको लगा कि उसका परिवार उसको बचाने के लिए अवश्यक आयेगा। वह उस कमरे में बैठ उनका इंतजार करता रहा। फिर निराशाओं का दौर शुरू हो गया। जिन्दगी और समस्त घर उसके सम्मुख एक चुनौती बनकर खड़ा हो गया। वह अब अकेले इसका मुकाबला नहीं कर सकता। एक समझदार पत्नी शायद उसको सँभाल ले जाती। पर....नहीं, अब कुछ नहीं हो सकता था।

सब-कुछ चला गया। एक तरफ पत्नी रूठी रहती थी तो दूसरी तरफ बच्चों की आँखों में सूनापन, पीड़ा छायी रहती थी। पत्नी का जब पहला जेवर उसने गिरवी रखा था तब उफ् कितनी पीड़ा.......नहीं अब और नहीं.......वह हार गया है......पूर्णता......बस.....सामने मौत थी पर पीछे ....एक बेकार-सी लचर-पचर जिन्दगी जिसका वह सामना नहीं कर सकता। वह सोना चाहता है......सामने उसकी माँ आ गयी। हाथ बढ़ाकर उसको बुला रही थी, “आ जा बेटा....मेरे पास आ.....मैं तेरा सहारा हूँ......भूल जा सब-कुछ.....आ जा। तू कैसे बचपन में जब हार जाता था तो मेरी गोद में सर छुपाकर पनाह लेता था। अब तुझे क्या हुआ! काफी बड़ा हो गया है रे। आ मेरे बच्चे आ......।”

     नरेन वहाँ देखता रहा। माँ की आँखों में वात्सल्य था। हाँ, माँ का सहारा ही तो वह खोज रहा था। पर एक क्षण को बीवी और बच्चों को चेहरा उसकी आँखों के सामने से घूम गया। बीवी तीन दिन से नाराज थी। उसने खाना नहीं बनाया था। बच्चे तो अगल-बगल खाकर निश्चिन्त हो गये थे पर वह......उसको भूख कसकर लगने लगी.......जी घबराने लगा। अब तो भूखे रहने की आदत हो गयी थी। ’माँ मैं आ रहा हूँ, मुझे हलवा पूरी बनाकर खिलाओगी ना।’ और वह फाँसी पर लटक गया।

     बाहर आकाश में लामिला फैलाने लगी थी। सूरज ने कब अपनी गति बदली है। सृष्टि तो चलती रहती है। चिड़ियाँ चीं.....चीं....कर उड़ रही थीं। सब लोग नरेन के कमरे में संगीता को घेरे में बैठे थे। नरेन को गये महीना हो गया था। नाते-रिश्तेदार संगीता और बच्चों के भविष्य की चिन्ता कर रहे थे। केसे उनकी गुजर-बसर होगी, इस पर सब विचार कर रहे थे।

     “जाने वाला तो चला गया।”

     “हाँ जो होना था सो हो गया।”

     “जैसी ईश्वर की इच्छा।”

     वक्त थमता नहीं है। जिन्दगी रूकती नहीं है। जो चला गया वह कल बन गया। जो जीवित है वर्तमान में सब उसी की चिन्ता करते हैं। जो मर गया वह तर गया।

     संगीता अपने बच्चों के साथ दुकान के बाहर खड़ी थी। नरेन की मौत के बाद आज पहला दिन था जब वह अपनी दुकान आयी है। शायद नयी शुरूआत। जीवन शायद कभी रूका नहीं है। यही सृष्टि का नियम है और दुकान के शटर खुल गये। संगीता ने अपने बच्चों के साथ उसमें अपनी जगह बना ली।

समाप्त

प्रतिशोध

     फिल्मों में ऐसा होता आया है, पर कभी-कभार ऐसा अपने आसपास भी घटित होता है, पास ही के सूदूर गाँव में कुछ ऐसा ही घटित हो गया जिसकी कल्पना भी रोमांचित कर देती है। नाटकों के पात्र अचानक जीवंत हो उठते हैं और ऐसा दृश्य उत्पन्न कर देते हैं कि असंभव भी संभव हो जाता है। इन घटनाओं को हम कितनी भी अनदेखी कर लें पर हम महसूस कर लेते हैं कि जीवन ही नाट्य रूपांतर होकर वास्तविकता का मुखौटा चढ़ा लेता है और कहीं किसी कोने में छुपा हुआ हमारा मजाक उड़ा रहा होता है और हम उससे अनजान हर क्षण दूर-कहीं दूर जीवन से भाग रहे होते हैं। हमारा सम्पूर्ण जीवन ही भागने की एक लंबी कड़ी है, क्योंकि कहीं न कहीं भयाक्रान्त हम उसको जी पाने का दुस्साहस नहीं कर पाते हैं।

जीवन अनमोल है पर भावनाओं के आवेश में हम सदैव उसकी गुणवत्ता और महत्व से अनभिज्ञ रहते हैं।

     शायद कथानक हमें भारी पड़ रहा है और भाषण सुनते-सुनते हम आजिज हो गये हैं, भाषण को हम बन्द फाइल में लपेटकर आलमारी में डाल देते हैं या फिर एक कान से सुन दूसरे कान से निकाल देते हैं।

     ज्यादा बोर न करते हुए तथ्यों पर आ जाएँ क्योंकि शायद कहानी पढ़कर आप इसे नाटक से अधिक कुछ भी न समझेंगे और शायद अनायास मुँह से निकल जाए कि ऐसा भी कहीं होता है ! पर अभी भी यहाँ-वहाँ अक्सर ऐसा ही होता है।

     पटना के बहुत ही समीप भोजपुर नाम के जिला में एक गाँव है, अभी भी वहाँ सामंती प्रवृत्ति बीच-बीच में उफान मार देती है। डोला प्रथा गाँवों में अपना अस्तित्व पूर्णरूपेण जमाए हुए है और बीच-बीच में वीभत्स रूप में अपना तांडव दिखा देती

है। ऐसा ही कुछ यहाँ हुआ और कहानी बन गयी।

     गाँव क्या था खंड-खंड में बँटा, इंसान को ही बाँट दो और समाज तैयार। कहीं रंग का मुद्दा उठा दे, कहीं जाति, कहीं संस्कार तो कहीं देश का। इंसान का बँटना मजबूरी है। धर्म के ठेकेदारों ने तो पहले ही अपना प्रभुत्व जमा रखा है, बाकी रही-सही कसर अमीरी और गरीबी की महीन रेखा ने खींच रखी है। उससे भी काम न चला तो औरत को पुरूष से अलग कर दिया ओर ठठाकर जिंदगी हँस दी। इंसान एक-दूसरे के खून का प्यासा हो गया कि इंसानियत ही खो गयी और हैवानियत की चादर ओढ़कर वह गर्वित हो समाज में शान से घूमने लगा।

     सदियों से ऐसा ही होता आया है, और अफसोस ऐसा ही होता रहेगा क्योंकि इंसान अपने बनाए हुए मूल्यों से स्वयं हारता है और वक्त एक चुनौती बन जवाब माँगता है।

     कितना कुछ घटित हो जाता है और एक कहानी बन जाती है। ऐसा ही यहाँ भी हुआ और पूरा जीवनवृत्त एक नाटक में तब्दील हो गया।

     बहू को विदा करने की तैयारी जोरों पर थी। रात में पूरी पूजा हो गयी थी। बारात विदा होने का समय होता जा रहा था। बारात क्या थी कुछ एक बड़े-बूढ़ों का जमघट था। कोई भी औरत उनके साथ ही न थी। गाँव की बारातों में ऐसा ही होता है। कुछ एक लोग ट्रैक्टर में बैठकर शादी में आ गये थे। उसी में बहू विदा होनी थी। हरदयाल की पत्नी बन रूपा नया रूप पा गयी हो पर माँ-बाप से बिछुड़ने का गम भी कुछ कम तीखा न था। सखी-सहेलियाँ सब हमेशा के लिए बिछुड़ जायेंगी। उसका तो रो-रोकर बुरा हाल था। वधू पक्ष में सब गमगीन थे। उदासी का माहौल पसरा पड़ा था। बधू पक्ष विदाई को ’थोड़ी देर और’ करके टाले जा रहा था पर बाराती हड़बड़ी में थे।

     “अरे भाई थोड़ा जल्दी करो। नहीं तो गाँव पहुँचते-पहुँचते रात हो जायेगी। रास्ता भी ठीक नहीं है।” और थोड़ा बेचैन होकर सब बाहर घूम रहे थे। पिछली बार राधेश्याम की बारात का दृश्य अभी तक सबकी आँखों के सामने कल की घटना बन घूम रहा था। एक अजीब-सी सिहरन सबके शरीर में फैलती जा रही थी।

     उचित मुहूर्त देखकर बारात निकली। रो-रोकर रूपा का हाल बेहाल था। पर जैसे-जैसे डोली उसके घर से दूर जाती जा रही थी वैसे-वैसे दुख रोमांच में तब्दील हो रहा था। पर गाँव की सीमा पार करते-करत सबका चित्त थोड़ा हल्का हुआ। एक तो इतने मर्दों के बीच में उसका यात्रा करना, उसे थोड़ा अजीब महसूस हो रहा था, पति भी तो उसके लिए अनजान ही था। उसकी सूरत उसने विवाह मंडप में पहली बार देखी थी। और उसका आकर्षक चितवन उसके मन को मोह गया था। ऊबड़-खाबड़ रास्तों को पार करते हुए ट्रैक्टर रफ्ता-राफ्ता चला जा रहा था। बहू बड़े बूढ़ो को लाने से अधिक गाँव सकुशल पहुँचने की दुश्चिन्ता मन में सता रही थी।। घर पहुँचने के पहले रास्ते में ऊँची जाति वालों का टोला पड़ता था। सेठ की हवेली के सामने से बारात को होकर गुजरना था। गाँव में किसी को भी कानों-कान इस विवाह की खबर नहीं थी। हरदयाल शहर में नौकरी करता था। यही बात सब तरफ फैलायी गई थी। गाँव आया था तो पिता ने शादी की बात कर दी। आनन-फानन में विवाह हो गया। और अब बहू के दुरागमन का भी वक्त आ गया था।

     जैसे-जैसे गाँव नजदीक आ रहा था सबके होंठ सिल गये थे। कोई किसी से कुछ भी न बोलता था। आँखों ही आँखों में सारी बातें मानो हो जा रही थीं पर होनी को कौन टाल सकता है, वही हुआ जिसका अंदेशा सबको था। सेठ के घर के समीप दो मुस्टंडों ने गाड़ी को रोक लिया। हाथों में बड़े-बड़े लट्ठ थे।

कमर में चाकू घुसा हुआ था। देखते ही देखते इस तरफ से भी लट्ठ निकल आये। दोनों पार्टी भिड़ गयीं। बारात में एक-दो घायल हुए। बाराती सिर पर पाँव रखकर भाग गये। हरदयाल भी भाग पाने में सफल हो गया। बहू की डोली को उठाकर सेठ की कोठी के अन्दर प्रवेश करा दिया गया। रूपा ने पहला कदम बड़ी हवेली में रखा।

     हरदयाल छोरा था। कोई दस-बार साल का रहा होगा। पिता के साथ दिन भर खेतों में काम करता था। रात कौ चैन की बंसी बजा चारपाई पर औंधे पड़ जाता था। अच्छी नींद आती थी। दुनिया की चिन्ता न थी। आज के भरोसे सब चल रहा था, कल का ठिकाना न था पर इज्जत से बीत रही थी। एक दिन ऐसे ही खेत में काम कर रहा था कि सेठ के आदमी आ सामने खड़े हो गये।

     “तुम्हारा बापू कहाँ है?”

     हरदयाल ने एक निगाह उसके ऊपर डाली। फिर अपने काम में व्यस्त हो गया। जूतों की खड़खड़ उसके ज्यादा पास आकर रूक गयी। लाठी की एक मार उसके कंधों पर पड़ी और वह पीछे की तरफ झुक गया।

     “शायद जोश ज्यादा आ गया है या हिम्मत ज्यादा बढ़ गयी है जो ऐसे तेवर दिखा रहे हो। कहाँ है तुम्हारा बाप। बताते हो कि जान से जाओंगे।”

     हरदयाल की आँखों में खून उतर आया। मन किया कि सीधा उठे और उसकी जान ले ले। पर अपनी औकात देख चुप रहा। वह दोनों लठबाज डरा-धमकाकर लौट पड़े। एकबारगी वह उठा और उनको मारने के लिए उनके पीछे फिर खड़ा रह गया। उसकी निम्न जाति उसके रास्ते की रूकावत बन गयी।

     शाम को जब बापू से बात हुई तो सेठ के आदमियों की बाबत बात उसने बताई। थोड़ा रोष भी जताया, “तुम क्यों उनसे मुँह लगाते हो। अपनी उम्र और औकात देखकर बात करो। नहीं तो तुम भी डूबोगे और मुझे भी डुबाओगे।” फिर चिन्ता की साँस खींचते हुए बोला, “क्यों आये थे?”

     “स्पष्ट कारण तो नहीं बताया पर शायद कुछ जमीन के बकाये की बात कर रहे थे।” फिर बापू के घुटनों के बीच सर रखकर बोला, “बापू, ये बात क्या है। वह बार-बार क्यों आते हैं?”

     हरदयाल के पिता कुछ देर चुप रहे फिर गहरी सोच के बाद बोले, “बेटा मेरी जमीन बंधक है। तुम्हारी दोनों बड़ी बहनों की शादी के वक्त जब पैसे की जरूरत पड़ी तो सेठजी से कुछ पैसा कर्ज के तौर पर लिया था, जो अब तक नहीं चुका पाया हूँ। इसीलिए यह खेत तब तक उनके पास हैं, जब तक हम कर्ज की रकम सूद सहित वापस नहीं कर देते हैं।” फिर दुखी होता हुआ बोला, “बेटा तब तक खेत के साथ हम सब बंधक हैं। हमारी साँसें भी सेठ की गुलाम हैं। वह जब चाहे बंद कर दे।”

     हरदयाल के तन-बदन में जैसे आग लग गयी। “हमको जब ईश्वर ने स्वतंत्र बनाया है तो वह कौन होते हैं बंधक बनाने वाले। मैं उनको देख लूँगा।” बेटे के तेवर देखकर पिता थोड़ा सहम गये। सदियों से चली जा रही परंपरा को चुनौती देने की हिम्मत का अंजाम वह जानता था। दमन-निरंकुश हो जीने के लिए उसके बेटे को कौन छोड़ेगेा। उनकी व्यवस्था ही टिकी थी प्रहार पर। शासक अगर गरम न हो तो उसकी बात कौन मानेगा। और उसका दिल दहल उठा। अपने बेटे का मुँह देख उसे अपने भाग्य पर रोना आ गया।

     रात को अभी बाप बेटे भोजन करके आराम करने की तैयारी कर ही रहे थे दि दरवाजे पर ठक-ठक हुई।

     “कोई है।” एक कड़कदार आवाज सुनाई दी। काँपते हुए बूढ़े ने दरवाजा खोला-“कौन?”

     “पूछते हो कौन! सुबह खेत पर आकर बुला गये थे उसके बाद भी इतनी हिम्मत कि सेठजी के दर पर माथा टेकने नहीं आये।”

     “बस आ रहा था हुजूर। बाहर चला गया था। अभी लौटा हूँ। बेटे ने आते ही बताया बस भोजन करके हुजूर आने ही वाला था। गलती हो गई साब।” वह काँपने लगा। पिता को इस तरह कमजोर पड़ता देख हरदयाल का खून खौल उठा। उसके पिता को कोई कमजोर समझे, सताये उसकी इतनी हिम्मत-पिता की ताकत तो वह है। वह एक-एक का मुँह नोच लेगा। उसके अन्दर प्रतिशोध धधकने लगा। उसका मन किया कि वह आगे बढ़कर उनका मुँह नोच ले पर वह सिर्फ थूक निगलकर पिता के साथ हो लिया।

     सेठजी बड़ी हवेली के दीवानखाने में बैठे मुजरा देख रहे थे। आम बात थी। पुरखों का रिवाज तोड़ पाने का उनमें कोई विशेष शौक न था। बाप-बेटा दोनों उस अश्लील प्रदर्शन का अनायास हिस्सा बन बैठे थे। हरदयाल तो रह-रहकर घृणा से सेठ की ओर घूरता फिर जमीन को ताकने लगता।

     भौंडा प्रदर्शन पूरा हुआ। हरदयाल के पिता की पेशी सेठजी के सामने हुई। भगवान् स्वरूप सेठजी ऊँची जाति ओर खानदान के ऊँचे पाये पर बैठे ईश्वर सदृश ही प्रतीत होते थे। ईश्वर तो रहमदिल है पर सेठ......तौबा।

     “क्यों धनपत राय। कुछ ज्यादा ही गरमी चढ़ रही है।” बहुत ही नरम स्वर में पूछा गया प्रश्न भी मानो बकरी को हलाल करने के पहले की-सी स्थिति के समान था।

     “नहीं सेठजी...।मैं यहाँ न था।” वह काँपने लगा।

     “यहाँ नहीं थे तो कहाँ थे।” फिर वही मीठी आवाज। सेठजी धीरे-धीरे सोफे की मूठ को सहला रहे थे।

     “जी...जी...। बेटी को ....बच्चा हुआ है, वहीं गया था।” उसका हलक सूखने लगा।

     “बेटी का बच्चा!” आवाज में व्यंग्य था। उसको सुन उसके लगधे बगधे हँसने लगे। “और यहाँ जो हमारे खेतों में ढेर काम पड़ा है उसको कौन करेगा तुम्हारा बाप।” और सेठजी को क्रोध आने लगा। “हिम्मत तुम लोगों की अब काफी बढ़ गयी है। अवज्ञा का अंजाम जानते हो।”

     धनपत ने दौड़कर सेठजी के पैर पकड़ लिए। “क्षमा हुजूर क्षमा।”

     सेठजी क्षमा-वमा के मिजाज में नहीं थे। “खोल दो धोती। गरम-गरम लोहे से दाग दो जाँघ।” और हरदयाल के देखते ही देखते उसके पिता की जाँधों को दागते देख उसका खून खौलने लगा। क्रोध में लोहे की छड़ हाथ में पकड़ सेठ के चेहरे से चिपका दिया। इससे पहले कि सेठ सँभल पाते वह भाग खड़ा हुआ। सेठ के आदमी भाग कर सेठ को सँभालेन लगे। इस हड़बड़ में किसी का भी ध्यान हरदयाल पर न गया। वह बेतहाशा जंगल की तरफ भागा जा रहा था। मौत उसका पीछा कर रही थी ओर वह जिन्दगी की मोहलत चाह रहा था। हरदयाल का पिता बेहोश हो गया।

     रात की तीव्रता थी जंगल में, गहनता बिल्कुल हरदयाल के जीवन की तरफ तीखी और अंधकार की तरह गहरी। उसे खुद होश न था कि वह किस दिशा में आगे चलता जा रहा है। जीवन कभी-कभी दिशाहीन हो जाता है। हवा के झोंके उसे जिधर मोड़ना चाहें उसके तो आगे मौत दिख रही थी और पीछे भी। मौत से लड़ना और चुनौती देना ज्यादा महत्वपूर्ण होता है न कि उसके गले लगकर वरण करना। क्योंकि मौत को हराकर जो जिन्दगी मिलती है उसमें तो पूरा जीवन का रहस्य छिपा रहता है। मौत तो पराजित होकर लजाती हैं जीवन उससे कहीं ज्यादा कीमती है।

     और वह अदृश्य शेर और चीतों के बीच बढ़ता गया। पर अब कहाँ शेर कहाँ चीते। मनुष्यों के बढ़ते कदम ने काफी प्राणियों को धारा की छाँव से विलोपित कर दिया है। हर तरफ मनुष्य। और हरदयाल बेहोश होकर गिर पड़ा। वह कितनी देर बेसुध पड़ा इसका उसको भी भान न था। जब होश आया तो कुछ युवकों को कानाफूसी करते हुए पाया।

     जंगल गहरा था। सन्नाटा और अंधकार और भी गहरा। शेर और चीते से भरे जंगल में सिर्फ गीदड़ों की आवाज सुनाई पड़ रही थी। धीरे-धीरे मशालों का हुजूम और पास आ गया। हरदयाल को लगा कि अब गया कि तब। अंधकार इतना गहरा कि हाथ को हाथ नहीं सूझता था और उसी में सिर्फ मशालों की रोशनी का प्रकाश चेहरे पर पड़ रहा था। युवक मजबूत कदकाठी के गठीले बदन के थे। उनका जत्था एक गाँव की तरफ आगे बढ़ रहा था।

     “कौन है।” एक कड़कदार आवाज ने उसका स्वागत किया। आवाज में इतनी बेरूखी और तल्खी थी कि उसके पूरे शरीर में सिहरन दौड़ गयी।

     हिम्मत करके बोल पाया-“जी हरदयाल।”

     और हिम्मत बटोकर अपनी पूरी कहानी सुनाने में सक्षम हो गया।

     उस नेता टाइप आदमी की आँखों में खून उतर आया। हरदयाल एक कदम पीछे हटकर आँख बंद करके मौत का इंतजार करने लगा। इसी क्रम में उसने ईश्वर का स्मारण भी करना शुरू कर दिया। जब काफी देर तक कुछ न हुआ तो उसने धीरे से आँख खोली पर नेता पर चेहरा डरावना प्रतीत हो रहा था। उसकी पकड़ अपने तमंचे पर कसी हुई थी। शायद अपनी भावनाओं को बटोरकर नियंत्रित करने का प्रयास कर रहा था।

     एक भद्दी-सी गाली से उसने अपना भाषण शुरू किया-“क्या समझ रखा है इन ठेकेदारों ने। अब भी हम लोगों को इतना सता लेंगे......साले कहीं के। ऐसी खबर लेंगे कि जीवन-पर्यन्त होश ठिकाने लगा रहेगा।” और वह क्रोधवश बोलता रहा। क्रोध में उसका शरीर काँप रहा था। हरदयाल भी डर के मारे काँपने लगा। किसी बड़ी अनहोनी की आशंका में उसका कलेजा मुँह को आ गया। हिम्मत बटोरकर पूछा-“क्या मैं घर जा सकता हूँ।”

     वह नेता टाइप आदमी जिसका नाम संपत है बाद में पता चला, उसको घूरकर बोला-

     “घर.....!कायरों के घर। शोषितों के घर। गुलामों के घर। अरे ऐसे घर जाकर क्या करोगे? हिम्मत है तो आओ अपने बाप-दादाओं की यन्त्रणा का बदला लो। इज्जत की मौत गुलामी की जिन्दगी से लाख गुना बेहतर है। अरे वहाँ रहकर जीवन भर घास काटते रहोगे। हमारे साथ रहोगे तो संघर्ष कर अपने लिए एक नया जीवन बनाओगे। सोच लो फिर बोलो।”

     हरदयाल जमीन की तरफ देखता रहा। रह-रहकर पिता का चेहरा, उनका अपमान आक्रोश बन उसके अन्दर फूटने लगा। वह जोर से चीखा-“नहीं मेरे पिता का सर अब नहीं झुकेगा। मैं उनको अब अपमानित जीवन नहीं जीने दूँगा। मैं लडूँगा तब तक जब तक अपना हक नहीं पा लूँगा। बोलिए क्या काम करना होगा।”

     सम्पत हँस पड़ा-“पता चल जायेगा।” और बहुत जल्दी ही उसको भी पता चला।

     सामने लाशों का ढेर लगा हुआ था। बड़े थे, बूढे़ थे। एक आध बच्चे भी थे। सम्पत के लोगों ने पूरे गाँव के अन्दर प्रवेश किया था। एक वर्ण विशेष, को मारकर चलता बना था। सोते हुए लोगों को सुलाने में ज्यादा वक्त नहीं लगा था। पर हरदयाल की समझा में नहीं आया कि जिन लोगों को मारा गया था उनकी गलती क्या थी। शायद किसी जाति का होना था तो भी वह सब बेबस उसकी तरह ही गरीब थे। पर वह यह प्रश्न सम्पत से न पूछ पाया। कुसूरवार तो कोई और था फिर सजा इन निरीह को क्यों? पर उसने सम्पत से इतना जरूर पूछा-

     “बाबा मैं वापस जाना चाहता हूँ......जाऊँ! इतना खून देखकर मन डर गया है।”

     संपत बाबा उसको देखते रहे फिर पास बुलाकर बोले, “बेटा इतिहास गवाह है बड़े-बड़े युद्ध, बड़ी-बड़ी क्रांतियाँ बिना खून के क्या कभी पूरी हुई हैं। आज तुमने कत्ल किया है कल तो तुमको भी अपने खून का बलिदान करना पड़ सकता है। ये मत भूलो तुम पूरी कौम की आजादी की लड़ाई लड़ रहे हो। तुम्हारी वीरता पर हम सबकी स्वतंत्रता टिकी है। कायरों की तरह से बात नहीं करो।” फिर थोड़ा सोचकर बोले, “तु तब भी जाना चाहो तो जा सकते हो पर मत भूलो तुम्हारा प्रतिशोध अभी पूरा नहीं हुआ है।”

     हरदयाल के सामने उन औरतों का बिलखना घूम गया, जिन्होंने अपना पति खोया था। उन माताओं का रूदन जो अपने बेटे की अर्थी पर गश खा-खाकर गिरी जा रही थीं। उसकी अपनी माँ का चेहरा उसकी आँखों के सामने घूम गया। कितने प्यार से वह भोजन बना उसको खिलाती थी। बीमार पड़ने पर वह उसकी देखभाल करती थी। वह माँ को याद कर रोने लगा। उसके कदम अनायास ही माँ की तरफ बढ़ गये। वह इस संघर्ष को नहीं झेल पायेगा। उसके अन्तर्मन ने उसको धिक्कारा। किन भावनाओं में वह बह गया। भूल गया पिता का संघर्ष, कौम का

संघर्ष, अपना संघर्ष। तू भगोड़ा कहलायेगा, भगोड़ा......। और वह अन्दर से आती हुई आवाजों से भागने लगा। वह भाग रहा था अनजान राहों पर, पर वह भागते-भागते फिर सम्पत बाबा के चरणों में गिर पड़ा।

     “बाबा मैं लडूँगा। आजादी की लड़ाई लडूँगा। इन्कलाब जिन्दाबाद। सेठ-साहूकार मुर्दाबाद।”

     और सम्पत ने उसको गले से लगा लिया।

     संपत बाबा बूढ़े हो चले थे और हरदयाल जवान। किसी भी क्रांति को नौजवानों के खून की आवश्यकता होती है। लिहाजन हरदयाल बाबा की जगह लेता गया। पर बाबा के साथ क्रांति भी बूढ़ी हो रही थी। वह पहले-सा जज्बा अब कहाँ था। धीरे-धीरे समूह में संगठन और धन दोनों ही आने लगे थे। धन उद्देश्य को कमजोर करता है और वही हुआ जो धन के आने से होता है। इस क्रांति के नेता अमीर हो गये और कार्यकत्र्ता फटी बनियान में मात्र सेवक। हरदयाल की जीवन शैली में भी काफी फर्क आने लगा था। गाँव में उसका दबदबा काफी बढ़ गया। कच्ची-मिट्टी का मकान पक्का हो गया। जीवन के स्तर में भी सुधार आ गया। कार्यकर्ताओं को जब भी फुरसत मिलती उसके खेतों पर भी आकर काम कर लेते थे। अब तो खेत भी बंधक से छूट गये थे।

     एक दिन हरदयाल गाँव में मोटरसाइकिल से जा रहा था। रास्ते में उसकी भेंट साहूकार की बेटी से हो गयी और हरदयाल उसके रूप-लावण्य पर मोहित हो गया। वापस जाकर अपने विश्वासी हीरा से बोल, “साली बहुत ही सुन्दर है। किसकी बेटी है।”

     “साबजी साहूकार की।”

     “जा उठा ला।”

     “साबजी......।” हीरा आगे कुछ कहना चाहता था पर......।

     और कार्यकर्ताओं में असंतोष बढ़ गया।

     धन और प्रतिष्ठा अपने साथ दर्प लाती है और गुणों हा ह्रास। धन के मद को पचा पाना कठिन हो जाता है। और वही हुआ। हरदयाल अपने मार्ग से भटक गया। वह जिन सेठों से उनके अवगुणों के कारण चुनौती के लिए खड़ा हुआ था उसी पाताल में स्वयं गिर गया और उसके खिलाफ असंतोष प्रबल हो गया पर शीर्षस्थ के डर से कोई भी मुकाबला कर पाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा थां पर गुपचुप ढंग से उनके बीच ही एक नेता तैयार हो रहा था जो नेतृत्व की क्षमता रखता था। वह सही मौके की तलाश में था और आज मानो सही मौका आ ही गया। सेठ के साथ मिलकर उसने हरदयाल की पत्नी की डोली सेठ के यहाँ उतरवा ली। हरदयाल क्रोध और अपमान की ज्वाला में धधक उठा और दूसरे दिन सेठ के यहाँ अपने लाव-लश्कर के साथ धावा बोल दिया। काफी खून-खराब हुआ। पर चूँकि सेठ के आदमी इसके लिए तैयार थे अतः हार हरदयाल की हुई और वह मारा गया।

     नेता जिसका नाम मंटू था मृतकों के सीने पर तांडव कर रहा था। यह उसकी जीत थी। अब वह जातिगत लड़ाई का शीर्षस्थ नेता था।

     “हरदयाल की पत्नी का क्या करें?” सेठ ने पूछा।

     “अरे कुड़ी है, वही करो जो कुड़ी के साथ करते हैं।” रूपा का रूप-सौन्दर्य छिन्न-भिन्न हो गया। वह स्त्रीत्व की लड़ाई हार गई।

     वक्त यूँ ही चलता रहता है। संघर्ष होता रहता है। पर इंसान लड़ाई स्वयं से ही हारता है और बाजी वक्त ले जाता है। आज भी हम अपनी जाति का दंम भर रहे है। सदियों की परंपरा यूँ नहीं टूटती।

समाप्त

प्रोफेशनल

     इस देश की तबियत विचित्र है। यहाँ पुलिस का अर्थ भगवान् से लगाया जाता है, पुलिस कप्तान तो अपने-आप को विष्णु के अवतार से कम नहीं ही आँकते हैं। अब जैसे विष्णुजी चाहकर भी समस्त प्राणियों के कष्ट नहीं हर सकते तो उनके बनाये इंसानों की क्या मजाल जो वह समस्त लोगों की दुख-तकलीफ सुनकर उसका तुरन्त निदान दे दें! अरे भाई लोगों को समझना चाहिए कि भगवान् से ऊपर किसी की कल्पना करना भी कोरी मूर्खता है। राम-राम! कितना पाप लगेगा! हमारा देश ठहरा अत्यन्त धर्मपरायण देश, तभी तो इस देश में ईश्वर के नाम पर बड़े-बड़े कत्लेआम हो जाते हैं।

     लेकिन पुलिस तो पुलिस है। सर्वोपरि अविनाशी, अप्रतिम, महिमामंडित, आनन्ददाता, दुखहर्ता!! अरे-अरे रहम करना वह तो सर्वज्ञाता भी है। कहीं पर कुछ भी बुरा होने वाला हो इसकी खबर पुलिस को रहती है जैसे ईश्वर को भी सारी घटनाओं की खबर रहती है, अब यदि ईश्वर कुछ नहीं कर पाता तो भला पुलिस कैसे कर पायेगी।

     हाँ, पर हमारे देश की पुलिस भूतकाल में किसने क्या किया और भविष्य में कौन क्या करेगा सबका इल्म रहता है।

     भगवान्-पुलिस और उसके भक्त की एक कथा याद आ रही है।

     राजेन्द्र नगर काॅलोनी में एक दादा है, नाम है मुख्तार सिंह। बड़ी-बड़ी मूँछें उससे भी बड़ी आँखें। चेहरे पर चेचक के दाग, ले-देकर छोटा-मोटा डरावना चेहरा। मूँछों को पिलाने और घना बनाने में काफी तेल चाहिए, इसके लिए पैसा तो चाहिए ही। दिन बीत जाता था कसरत करने में, अब बची रात। बिन पैसे जिन्दगी

बेकार है, यह उसको पता था। समय कितना मूल्यवान है इसका उसको पूरा-पूरा ज्ञान था। इसी लिए दिन का सदुपयोग वह गाढ़ी कमाई उगाहने में करता था। जिन लोगों ने गाढ़ा कमा-कमाकर रखा है और रात निद्रा देवी की गोद में खर्राटा भरकर सोते हैं तो भला उस धन की सुरक्षा कौन कर पाएगा। दीवाली के दिन भी तो रात भर पहरा देना होता है तब जाकर लक्ष्मी मैया की कृपा होती है। लक्ष्मीजी का तो वाहन भी उल्लू है ठेठ निशाचर, उसको तो रात में ही दिखता हैं अगर लक्ष्मी को रात में सुरक्षा की जरूरत न पड़ती तो वह काहे ऐसा वाहन चुनती। वह ठहरी चंचला-एक जगह ज्यादा मन नहीं लगता है।

     वह इन्सान जिसके यहाँ लक्ष्मी आ जाती है वह यह भूल जाता हे कि कितना योग्य वाहन लक्ष्मीजी को प्राप्त है। अगर मूड किया तो रात में भी चल दे सकती हैं।

     मुख्तार सिंह राम में लक्ष्मीजी को ढ़ूँढने में व्यतीत करता और दिन में वह कांटेक्ट बढ़ाता। वह बड़े-बड़े लोग से गप्पें लगाता और मित्रता बढ़ाता। कांटेक्ट का जमाना था, पता नहीं कब कौन काम आ जाय। इसीलिए मुख्तार सिंह बड़े-बड़े लोगों से संपर्क रखता था। उसी में से एक उस इलाके का दारोगा था। था तो अक्खड़ और मुँहफट, थोड़ा-थोड़ा सिरफिरा भी पर इन सबसे क्या फर्क पड़ता है, आदमी काफी काम का ही था। इधर मुख्तार सिंह का बिजनेस मंदा चल रहा था, आमदानी भी ठीक-ठाक नहीं थी। इलाके में सभी सतर्क हो गये थे, कुछ एक ने तो कुत्ते-बिलली पाल लिए।

     इनमें कुत्ते तो काफी इफेक्टिव थे घर की पहरेदारी में, पर बिल्ली थोड़ा भारी थी। घर की रखवाली में जीरो, उलटे चोरी से दूध भी पी जाती थी। एक दिन दारोगा ने आकर पूछा, “क्या मुख्तार दिन भर पड़े-पड़े खाट तोड़ते रहोगे यार।”

     “क्या करें साब! कुछ समझ में नहीं आ रहा। इधर तो हफ्ता से ही काम चलाना पड़ रहा है। कहीं चोरी करने का मौका ही नहीं हाथ आ रहा।”

     “अरे हाउस नं0 सात का चैकीदार कल ही तो आकर कह रहा था कि उसके साहब परसों शादी में गये, बहू का काफी सारा जेवर लाॅकर से निकालकर ले गये थें अभी तक अन्दर नहीं रखा है। हाथ साफ कर दो, मोटा आसामी है। कुछ दिन ऐश से कट जायेंगे।”

     मुख्तार सिंह को लगा कि दारोगा अच्छा दोस्त है। दोस्त हो तो ऐसा जो बुरे वक्त में काम आये, वर्ना बेकार।

     “आज रात ही तैयारियाँ कर लेते हैं।”

     “हाँ, मैंने चैकीदार से सब पता कर लिया है। सेठ दुकान से शाम को कोई आठ-नौ बजे आता है। घर में सिर्फ दो औरतें और एक छोटा बच्च रहता है।”

     “यह रहा घर का नक्शा” दारोगा बोला।

     “आप तो साब बड़े काम के हैं। मैं भी बाई और दूध वाले से बात कर लूँगा। आप निश्चिन्त रहें, सब हो जायेगा। इस काम में मेरा पन्द्रह साल का अनुभव है।”

     दारोगा मूँछों पर ताव देता हुआ चला गया और मुख्तार सिंह काम में लग गया।

     गीता का श्लोक है, ’कर्मण्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’ काम की तैयारी वह जी-तोड़ से कर रहा था। दिन भर रिसर्च किया गया। मकान का अन्दर-बाहर से अध्ययन किया गया।

     शाम होते-होते मुख्तार सिंह के दो-तीन परम मित्र भी इस काम के लिए तैयार हो गये। हर चीज, जैसे रस्सी, कट्टा, ओपनर सबकी तैयारी कर ली गयी। जैसी जरूरत पड़ी वही करने का निश्चय किया गया। अगर एक-आध को हलाल भी करना पड़े तो कोई बड़ी बात नहीं। वैसे मुख्तार सिंह ने अभी तक कोई खून-वून नहीं किया था पर उसको करने में हिचकिचाहट नहीं थी। इतनी जनसंख्या में अगर उसके योगदान से दो-चार खल्लास भी हो जायें तो देश का भला ही होगा। जनसंख्या नियंत्रण में वह कुछ मदद कर पायेंगे।

     अँधेरा घिरते-घिरते वे लोग गंतव्य पर पहुँचे। बाहर गाड़ी नहीं खड़ी थी और एक मोटा -सा ताला लटका हुआ था। उसको समझते देर नहीं लगी कि सब लोग कहीं बाहर गये हुए हैं। चलो अच्छा हुआ काम आसान हो गया। वैसे मुख्तार का शरीर जरूर हाथी-सा था पर दिल चुहिया से ज्यादा बडा नहीं था। वह तो जीवित चुहिया से भी डरता था। किसी तरीके से ऊपर से कूद-फाँदकर घर के अन्दर पहुँच गया। इस पहुँचने के क्रम में एक दरवाजा भी शहीद हो गया, ज्यादा मजबूत नहीं था, शायद मकान मालिक अदूरदर्शी थे और किसी भी इस तरीके के हादसे के लिए समुचित मोर्चाबंदी नहीं कर पाये थे।

     जो कमरा बहू का था उसके ताले को कट्टे से तोड़ा गया। अन्दर पहुँचने पर नजारा काफी उत्साहवर्धक था, शायद हनुमानजी की मनौती काम कर रही थी। उसने हनुमानजी को भी सवा किलो लड्डू खिलाने का वायदा किया था। हनुमानजी का परम भक्त था वह, तो ऐसा वक्त संकटमोचन की कृपा होना अनिवार्य था।

     आलमारी खुली हुई थी। कपड़े अस्त-व्यस्त पलंग पर पड़े हुए थे। उसे सास पर बहुत गुस्सा आया कि बहू को जरा भी नहीं डाँटती है, कुछ भी सऊर नहीं सिखाया है, ऐसी फूहड़ बहू का क्या काम?

     एकाएक उसकी बुद्धि जागी। वह यहाँ शिक्षा या प्रवचन देने नहीं आया है। वह तो धर्म के कार्य से आया है, जो काला धन सेठ ने तिजोरी के अन्दर भरा है उसको कुछ हल्का करने। आखिकरार टैक्स देने का कानून तो इनका पालन करना था। टैक्स नहीं दिया, अब पछताएँ।

     यही सब सोचते-सोचते वह तिजोरी के पास पहुँच गया। तिजोरी की चाबी पास की खूँटी पर लटकी हुई थी। तिजोरी खोली, सामने का नजारा देखकर तो उसकी हृदय गति रूकते-रूकते बची, वैसे रूक भी जाती तो कोई बड़ी बात नहीं थी।

इतना जेवरात इतना जेवरात देखकर तो बड़े-बड़े बेहोश हो जाते। अब दो-चार महीने उसको काम करने की जरूरत नहीं पड़ेगी, लम्बा हाथ साफ किया था।

     सब-कुछ आसानी से बटोरकर वह बाहर बाया। इसी बीच उसके कान में मेन गेट खुलने की आवाज आयी, लगाता है मकान मालिक आया। वह छत से दूसरे घर में कूद गया।

     बहू ने घर के अन्दर कदम रखा तो अपने घर का हाल देख चिल्लाई, ’माँ मेरे कमरे की लाईट जल रही है।” उसका दिल अब कुछ धक-धक करने लगा। वह भाग के अपने कमरे में गयी और तिजोरी का नजारा देख गश खाकर गिर गयी।

     उसके मुँह से बस इतनी-सी चीख निकली ’माँ’ और आवाज गले में अटक गयी।

     सास दौड़ी-दौड़ी आयी। बहू का जेवर चला गया यह सोचकर पहले-पहल तो थोड़ी स्त्री-जन्य प्रसन्नता हुई।

     चलो अच्छा हुआ-सब माँ का था। बड़ा घमण्ड था न उन जेवरों पर, चोर ले गये। कितना समझाया कि दिखावेबाजी कम कर, पर माने तब न!

     फिर अफसोस हो आया। आखिर है तो मेरी ही बहू। उसका नुकसान मेरा भी तो नुकसान है।

     हिम्मत करके पुलिए को फोन लगाया। उधर पुलिस का फोन टनटनाया। कड़कती आवाज आयी, “कौन, यह पुलिस स्टेशन हैं खामख्वाह लोग परेशान कर देते हैं।”

     दारोगा फोन रखने ही वाला था कि आवाज आयी, “सर, मेरे घर में चोरी हो गयी है।”

     “तो?”

     “रपट लिखवानी थी।”

     “पहले नहीं लिखवा सकती थीं। अब जब चोरी हो गयी हमारा वक्त बरबाद कर रही हो। चोर है कि भाग गया?”

     “अगर चोर होता सर तो आपको फोन ही क्यों करते? काफी जेवर लेकर भाग गया है।”

     “ओ अच्छा, पता।”

     पता सुनते ही दरोगा की बाँछें खिल उठीं। मन ही मन सोचा, चलो काम ठीक से हो गया। मुख्तार सिंह भी भाग गया।”

     “हम अभी पहुँचते हैं।”

     इस बीच में बहू को भी होश आ गया। वह बाहर दौड़ी हुई गई और ’चोर-चोर’ चिल्लाने लगी।

     उसकी आवाज सुनकर पूरा मुहल्ला इकटठा हो गया। मदद के लिए तो कोई आगे नहीं आया, पर अब सबके सब मजा ले रहे थे। इतनी मसालेदार घटना हो गयी थी कि उन्हें महीनों तक बात करने का शीर्षक मिल गया।

     इसी बीच कोई आधा घण्टा विलंब से पुलिस आ गई, साथ में दो बड़े-बड़े कुत्ते थे। आते ही दारोगाजी के कड़े निर्देश शुरू हो गये-किसी चीज को हाथ नहीं लगाना। सब बाहर खड़े हो जायें। इसी बीच उसकी पारखी निगाह हर उस चीज पर जा रही थी कि कहीं मुख्तार सिंह कोई सुराग तो नहीं छोड़ गया है। जब वह सब तरफ से निश्चिन्त हो गया तो आराम से उसने कार्रवाई शुरू कर दी। एक-एक चीज को डण्डा चलाकर ठोंका। वह तो गनीमत थी कि डण्डा धीरे से चला नही ंतो इतने भारी नुकसान के बाद दो-चार चींजे और टूटतीं। बहू की सास अपने को दिलासा दे रही थी कि शुक्र है जो गया सो गया, अब उसके आगे कुछ न टूटे।

     अनुसांधान कार्य तीजी से चल रहा था! खोजी कुत्ते अन्दर घूम-घूमकर चीजें सूँघ रहे थे। अब पता नहीं वह खाने को सूँघकर भौंक रहे थे या फिर उनको सोफे के

नीचे कोई चूहा नजर आ गया था जिसको पकड़ने की फिराक में थे। ये अच्छे-खासे तन्दुरूस्त कुत्ते थे माशा अल्लाह, क्या कदकाठी से ईश्वर ने उनको नवाजा था। दो-चार आदमियों का तो खाना वह इकट्ठे ही खा जाते थे। उनको देखकर अच्छे-अच्छे आदमी की सिट्टी-पिट्टी गुम हो जाती थी, पर चोरों को कोई फर्क नहीं पड़ता था। पड़े भी कैसे, कुत्ते तो अच्छे-खासे कदरदान प्राणी हैं, जिसका खाते हैं उसी का बजाते हैं। अब चोरों की कमाई खायेंगे तो प्यार से दुम हिलायेंगे ही!

     जब दारोगाजी काफी घूम-फिर लिए, हर चीज को टटोल लिया और उन्हें यकीन हो गया कि लोगों को अच्छे तरीके से बेवकूफ बना लिया है तथा अब तक मुख्तार सिंह इलाके से भाग गया होगा तो बोले-

     “चोर कोई बड़ा शातिर आदमी था। रपट लिखवा दीजिए पर चिन्ता मत कीजिए, बच के जायेगा कहाँ साला पकड़ा जायेगा, जेल मेें चक्की पीसेगा तब अक्ल आयेगी, साले चोरी करते हैं।”

     खानापूर्ति करके दारोगाजी बाहर निकले साथ में दोनों बुलडाॅक भी थे। दारोगाजी गाड़ी में बैठे, सबने उनको घेर लिया। दारोगाजी को लगा कि इतनी भीड तो नेताजी के आगे-पीछे रहती है। उनको अपना कद थोड़ा और ऊँचा लगा। सबको समझा-बुझाकर गाड़ी में बैठ गये।

     मालकिन से बोले “आप निश्चित रहें। चोर बच के जाने नहीं पायेगा। अपने आपको ज्यादा स्मार्ट समझता है। बीच-बीच में मिलते रहियेगा और अगर आपको किसी पर शक जा रहा हो तो जरूर बताइएगा। हमें खोजबीन में मदद मिलेगी।”

     दुआ-सलाम करके गाड़ी आगे बढ़ गयी।

     थाने में गाड़ी पहुँची तो सारे मोबाइल सिपाही को उतार दिया दारोगाजी ने, “जरा मैं रात में गश्ती कर लूँ। शायद कुछ सुराग लगे। यह केस स्टेशन-डायरी में लिख तो, मैं आकर देख लूँगा।”

     “जी सर।”

     दारोगाजी ने गाड़ी गली के कोने की तरफ मोड़ दी। भगवान चल पड़े भक्त के द्वार। मुख्तार सिंह के अड्डे पर सन्नाटा था। दारोगा का दिल धड़का।

     मन में ख्याल आया कि कहीं इतना बड़ा हाथ मारकर नीयत तो नहीं खराब हो गई। नहीं, ऐसा नहीं होगा। आदमी तो ईमानदार है। चोरी करता है तो क्या, पर ईमान का ठीक है। निगाह में गैरत है। फिर भाग के जायेगा कहाँ। आगे भी तो जरूरत पड़ेगी। पास पहुँचकर मुख्तार सिंह को देखकर उनकी साँस में साँस आयी। वह खटिया पर बेसुध पड़ा था। लगता है ज्यादा चढ़ा ली थी। वैसे भी धन और मदिरा का नशा होता ही ऐसा है जो इन्सान की सुध-बुध खत्म करके अपने ही आगोश में ले लेता है और इन्सान बाहरी दुनिया से कट जाता है, रह जाती है सिर्फ पिपासा-धन और सिर्फ धन की। दरोगा जी भी टेबल पर पड़ी हुई बची कुची गट्क गये। लंबा हाथ मारा था। रात मो अभी बाकी थी।

समाप्त

तीज

     वह शायद यह कहानी बचपन में सुनकर बड़ी हुई थी। शादी के पहले माँ और दादी यह कहानी एक-दूसरे को कहतीं और वह घुटने के बल गुटुर-गुटुर बैठकर कहानी सुना करती। शिव-पार्वती बनते और गणेशजी के साथ उनकी पूजा होती। उसकी माँ उस घर की इकलौती बहू थी और वह इकलौती पोती। उससे छोटा एक भाई था। अतः वह भी काफी लाड़-प्यार से पली-बढ़ी थी। उसकी दादी सुहागिन गई। जरूर इस व्रत का प्रताप होगा। अन्त समय में उनको बिछिया, चूड़ी पहनाकर और बाबा ने माँग में सिंदूर भरकर लालिमा से विदा किया था। सब कितना रश्क कर रहे थे अम्माँ के भाग्य से। उनके अर्थी के ऊपर से पैसे न्यौछावर कर सबको बाँटे गये थे प्रसाद स्वरूप।

     पंडितजी शिव-पार्वती की स्थापना कर उनका महिमामंडन कर रहे थे। और जो स्त्री ऐसा नहीं करती वह सात जन्मों तक वैधव्य का भोग करती है। उनके जितने पुत्र होते हैं सब के सब अकाल मृत्यु को प्राप्त होते हैं। और पंडितजी आगे कहे जा रहे थे और उसका दिमाग घूमने लगा और वह गिरकर बेहोश हो गयी।

     उसकी दादी की तीन ननद थीं। सबसे बड़ी ननद के पति का देहावसान तभी हो गया था जब उनकी एकमात्र पुत्री ग्यारह साल की थी। बहुत पुरानी बात है। वह तो किस्से-कहानियों की तरह से दादी के मुँह से उनके विषय में सुनती थी। दादी का नाम शान्ति था और नन्द का श्यामला। श्यामला की बेटी थी कमला। अब जैसा कि पहले जमाने में होता आया था एक विधवा उसकी छोटी-सी पुत्री को कौन ससुराल वाले रखने की जहमत करते। करते भी क्यों जब उनका बेटा ही न रहा तो बहू और पोती से क्या वास्ता। लिहाजा साजो-सामान सहित बहू मायके

भेज दी गई। आज से पचास साल पहले विधवाओं की जिन्दगी काफी कष्टदायक थी। हम दोनों भाई-बहन छुपकर देखते कि हर महीने नाई आता और उनके बाल उतारकर चला जाता। पहले-पहल तो गौरवपूर्ण मुखमंडल का केशविहीन होना दहला देता पर शायद वह पतिव्रता साध्वी की तरह से इस नियम का अनवरत पालन करती रहीं। किसी में भी न यह पूछने का साहस हुआ न इस दिशा में उनको रोकने का। एक बार उसने डरते-डरते पूछा भी था तो दादी अपने पोपले मुँह से बोलीं, ’बेटा जब कमला के बापू नहीं रहे तो फिर यह केश रहे न रहे.......मेरी तो जिन्दगी ही उसके साथ खत्म हो गयी।” और वह काँप गयी थी। अपने बालों पर हाथ फेरते हुए भाग खड़ी हुई। काफी दिनों तक रात में उसे जलती हुई चिता दिखलायी देती। वह घबड़ाकर आँख बन्द कर लेती और दादी से कस के चिपक जाती। मृत्यु का भय और उससे भी सर्वोपरि अपनों को खोने का भय उसको हिला देता।

     गुड्डे-गुड़ियों का खेल खेलकर ओर स्कर्ट, फ्राॅक पहनने की उम्र पार कर अब वह बड़ी हो गयी थी। रूप और सौन्दर्य ने उसके मुख को पूरा निखार दिया था। एक पार्टी में देख उसको ससुराल वालों ने पसन्द कर लिया। लड़का पुलिस में अच्छे औहदे पर था। लिहाजा आपत्ति का कोई सवाल न था, पर आपत्ति आकर टिक गयी जन्मपत्री पर। दोनों के मात्र साढ़े तेरह गुण मिले थे।

     अरे ये सब बेकार के वहम हैं। जिनकी नहीं मिलती या जो प्रेम विवाह कर लेते हैं क्या वह खुश नहीं रहते हैं या सब के सब मर जाते हैं उसका विवाह शान्तनु से हो गया।

     कल तीज है। छोटी देवरानी की पहला तीज है। शादी के दस दिन बाद ही पड़ रहा है। पूरे घर में खुशी है पर सिर्फ वह उदास है। उदास माँ भी है-शांतनु की माँ उसकी माँ। पर कभी -कभी अपने दिल के अन्दर दुखों को काफी गहरे कहीं

दफन कर देना पड़ता हैं दूसरों के लिए मुस्कुराना पड़ता है, उनकी खुशी में न चाहते हुए भी शरीक होना पड़ता है। अभी घर पूरा शादी के माहौल में रँगा था। काफी रिश्तेदार जा चुके थे और थोड़े-बहुत आत्मीय या नजदीकी कहना ज्यादा उचित होगा, रह गये थे। देवर विदेश में नौकरी करता था। यहाँ से इंजीनियरिंग करके अमरीका में नौकरी कर रहा था। उसके जाने के बाद इतने बड़े कोठीनुमा घर में फिर सन्नाटा पसर जायेगा। मौत का सन्नाटा जिसको अभी इस शादी के बाहरी आडम्बर ने बखूबी छिपा लिया था। जिन्दगी भी कितना मसखरापन करती है, मौत के खेल में गम को ये अपने अन्दर समेट लेती है। मौत वह एक खूबसूरत औरत है जो दूर तक दौड़ के मनुष्य को मरूस्थल में ले जाती है और वहाँ अपनी कुरूपता का अहसास कराकर वापस ला पटक देती है और मूर्ख मनुष्य पर अट्टहास करती है-धत् मूर्ख.....तू यह भी न कभी समझ पाया कि मेरी खूबसूरती छलावा थी। और वह उसे निगल जाने के लिए विदु्रपता अपना लेती है और यह मनुष्य उसमें समा जाता है। एक अदृश्य खेल और उससे भी अधिक अनोखी लीला में विलीन हो जाता है।

     देवरानी कल पहली बार सुहाग का व्रत रखेगी। पर उसकी तैयारी जोर-शोर से आज से ही हो रही थी। बड़े घर की बहू थी कि कोई छोटी-मोटी बात। उसके माता-पिता भी सासाराम से आ गये थे। बेटी के लिए नई साड़ी-कपड़े एवं ढेरों सामान था। माँ ने भी उसको नया जोड़ा बक्से में से निकालकर दिया था। उसके ससुर सेठ हीरादास बक्सर के कांग्रेजी कार्यकर्ता थे। कुछ साल पहले तक सक्रिय राजनीति में उनकी भागीदारी थी। दो बार विधानसभा की कुर्सी तक जा चुके थे। लिहाजा इलाके में काफी दबदबा था। शाम को पुरानी नाइन आकर आलता-महावर लगा गई थी।

     “मम्मी पैरों को लाल रँगने वाली बाई आई है। सबके पैर रँगे जा रहे हैं। चलो न यहाँ क्यों बैठी हो।’

     एकदम से उसका दुख परम क्रोध में बदल गया। बेटी को उसने तड़ाक से एक थप्पड़ मारा और चीखी......“जाओ जाकर तुम भी पैर रँगवाओ....घर में सब के सब मस्ती कर रहे हैं। किसी को मेरी परवाह नहीं है। जब उनमें से किसी का कुछ जायेगा तब पता चलेगा कि खोना किसको कहते हैं।” और जोर से उठाकर पास में रखा पाउडर का डिब्बा ड्रेसिंग टेबल के शीशे पर मारा। वह टूटकर चकनाचूर हो गया। बिलकुल उसकी अपनी जिन्दगी की तरह शीशा चूर-चूर होकर बिखर गया था।

     बेटी अप्रत्याशित रूप से घटित इस घटना को अपलक देखती रही थी। अपनी माँ का यह रूप उसके लिए बिलकुल नया था।

     इसके बाद माँ बदहवास उसके पापा का नाम लेकर रोने लगी।

     “शान्तनु.....शान्तनु.....”

     उनकी चीख सुन नीचे से सब लोग भागकर ऊपर आ गये। माँ ने नयी बहू और देवर को नीचे भेज दिया।

     हाँ वह तो मनहूस है, उसके सामने पड़ने से तो उसकी जिन्दगी कहीं उसकी जैसी न हो जाय। और मन में छुपे यह शब्द कब वाणी से बाहर आ गये इसका उसको पता नहीं चला।

     “जाओ तुम सब जाओ। मुझ मनहूस बदनसीब को अकेला छोड़ दो।” वह पागलों की तरह व्यवहार करने लगी। उसको खुद नहीं समझ आ रहा था कि वह क्यों ऐसी हो गयी है। सामने खड़ी सामिया का चेहरा देख-देखकर वह अपने ऊपर नियंत्रण रखना चाह रही थी पर ऐसा हो नहीं पा रहा था। थोड़ी देर माँ उसको सँभालती रही पर वह असंतुलित रही। होश तब आया जब डाॅक्टर ने उसको सुई

लगाई। थोड़ी देर बीतते-बीतते शान्त हो गई। बाहर से तो वह शान्त हो गई थी पर अन्दर दुख का सागर हिचकोले ले रहा था। रात भर दोनों बेटियों को चिपकाकर सिसक-सिसककर रोती रही।

     उसने व्रत में क्या त्रुटि की थी जो उसका शान्तनु उसको छोड़कर चला गया।

     शान्तनु और वह जिन्दगी में काफी खुश थे। अच्छी पोस्ट, अच्छा परिवार और किसी को जिन्दगी में क्या चाहिए होता है। शान्तनु उसको चाहता भी बहुत था। एक तरह से कहा जाय उसके रूप-सौन्दर्य पर जैसे फिदा था। जाने किसकी नजर उसकी प्यारी-सी गृहस्थी को लग गयी। शान्तनु की पोस्टिंग गया जिले में हुई। गया का कोंच उग्रवाद प्रभावित था। शान्तनु की कार्यप्रणाली से सब ही संतुष्ट थे। कत्र्तव्यनिष्ठ, चुस्त-दुरूस्त पुलिस अधिकारी। होली के एक दिन पहले खबर आयी कि कोंच गाँवों में कुछ आपसी तनाव व्याप्त हो गया है। उसके काफी रोकने के बाद भी वह यह कहकर निकल गया कि ’बस मैं यूँ गया और यूँ आया।’ पर उसका मन अनहोनी की आशंका में धड़क उठा। वह गया तो यूँ ही था, पर वैसे आ न सका। उग्रवादियों द्वारा बिछायी हुई बारूदी सुरंग पर उसकी गाड़ी के जाते ही गाड़ी के साथ-साथ शान्तनु के भी चीथड़े-चीथड़े उड़ गये। वह विश्वास ही न कर पायी। फिर बेहोश होने के पहले सिर्फ इतना कह पायी कि “तुम सब गलत सोच रहे हो। यह शान्तनु हो ही नहीं सकते। वह तो जीवित हैं। वह बोलकर गये थे कि अभी आ रहे हैं....वह आ ही रहे होंगे।”

     काफी दिन तक वह गेट पर खड़े होकर उनके आने का इंतजार करती रही थी पर वह नहीं आये।

     उसकी यानी शुभांगी की दादी की ननद यानी श्यामला का जीवन मायके में गुजर रहा था। कमला का विवाह भी बाप-भाई ने ही किया था। अच्छे में तो ससुराल वाले काम भी आ जाते हैं। पर हाडे-हटके मायके वाले ही निपटाते हैं।

फिर जिस औरत का पति ही न रहा हो उसका ससुराल में कोई स्थान ही नहीं। मायके में भी कोई मजे से नहीं गुजर रही थी। शान्ति से अक्सर कलह हो जाती थी। वह वैधव्य जीवन ऊपर से कुछ नहीं तो दिन भर या तो वह बड़बड़ाती रहती नही ंतो हर काम में मीनमेख निकालती रहती। ऐसे भी सुबह चार बजे उठकर मंदिर में खिटर-पिटर चलती रहती। कभी अगर शुभांगी की नींद खुल जाती तो देखती वह अपने लड्डू गोपाल से बातें कर रहीं हैं। कमरे में आवाज सुनकर उसको अभी भी डर लगता पर जीवन में कोई सहारा तो इंसान खोजता है। जीवन जीने के लिए कोई न कोई अविलम्ब चाहिए, उन्होंने शायद ईश्वर में खोज लिया था।

     इस जिन्दगी में उनकी खोज परिवार में बराबर चलती थी। परिवार में जिस किसी के यहाँ बच्चा होता तो गद्दी-पोथड़ा पोंछने-धोने के लिए उनको बुला लिया जाता। अब शुभांगी की बुआ के तीनों बेटों को उन्हीं ने पाल-पोसकर बड़ा किया। कहीं भी बीमारी हो तो श्यामली दादी की तलब होती। वह डेढ़ हड्डी की काया-थोड़ा-सा सामान अटैची में डाल भेज दी जाती जहाँ भी उनकी जरूरत होती। उन्होंने कभी प्रतिकार न किया। शायद करती भी किससे। निरर्थक जीवन को छोटा ही सही पर शायद अर्थ देने की कोशिश करती थीं। उनके ससुराल में भी जब सास बीमार पड़ी तो देवर लेने के लिए आ जाता।

     “भाभी चलो माँ ने बुलाया है.....बीमार है। आखिरी वक्त में आपका सान्निध्य चाहती है।” साथ क्यों चाहती थीं यह वह अच्छे से जानती थीं। एक अर्थपूर्ण निगाह अपने भाई पर डाली। वह कुछ न बोला। वैसे भी ससुराल के बीच में बोलकर वह वहाँ बुरा नहीं बनना चाहता था या फिर कुछ दिन के लिए अपनी जिम्मेदारी के बोझ से निवृत होना चाहता हो। जो भी हो श्यामली सास की सेवा में लग गयीं। सुबह-शाम रामायण बाँचकर सुनाती थीं और दिन भर गौमूत्र साफ करती थीं। सास थी मरते-मरते ढेरों आशीष दे गई।

     “बेटा जो कष्ट हमने ढाये वह तो तेरी किस्मत का दोष था। क्या हम या तुम ऐसा चाहते थे। जैसी उसकी इच्छा। जब वही तुमसे रूष्ट रहा तो हरि इच्छा। पर तूने बड़ी सेवा की है। जा तुझे अगले जन्म में खूब सुख मिले।”

     और श्यामली उनके देहान्त पर खूब फूट-फूटकर रोई थीं। ससुराल से जो एक नाता था आज उसकी एक डोर भी टूट गयी। और फिर देवरों और जेठों से भरे घर में उन्होंने दुबारा कदम न रखा।

     बेटी कमला के घर भी काफी कम जाती थीं वही अक्सर आ जाती। बेटी के घर पर खाना वह वर्जित मानती थीं। नाती होने के बाद भी संस्कारों ने बाँध दिया था।

     शांति के बेटे की जब शादी हुई तो उन्होंने अपने जेवर तुड़वाकर उसकी बहू के लिए बनवाया था।

     “बहू.......रानी बहू ने तुम्हें जो लम्बा वाला हार पहनाया है वह मेरे सोने का बना है। तुम किसी से कहना नहीं पर यह मेरी तुमको भेंट है।” उनके स्वर में गहन पीड़ा थी। वह अपनी ही चीज को शौक से किसी को दे भी न पायी थीं। सारे अरमान उनके अन्दर दब गये थे।

     अब वह बूढ़ी हो चलीं थी। एक दिन बस वह खाट पर से उठी ही थीं कि जोर से चिल्लाकर बैठ गई।

     काफी देर तक जब वह खाट पर से नहीं उठीं तब लोंगो का ध्यान उधर गया। कूल्हे की हड्डी का फ्रैक्चर था। उनकी बेटी आकर उनको ले गयी थीं इसी बीमारी में उनका अन्त भी आ गया। क्रिया-कर्म के समय नाती साफ मुकर गया। तब श्यामली के भाई ने ही आगे आकर उनका क्रिया-कर्म किया।

     “माँ नहीं थी बड़ी बहन थी। क्या हुआ अगर मैं उनका बेटा नहीं हुआ पर वह थीं तो माँ दाखिल। जब पूरी जिन्दगी सेवा की तो अन्त समय में क्या पीछे हटना।” और उन्होंने उनकी बेसहारा-सी जिन्दगी को किनारे लगा दिया। उनका जेवर भी बाँधकर बेटी को दे दिया।

     शान्तनु के मरने पर शुभांगी के माता-पिता आये थे। एक कोने में दुख और अपमान को पीते हुए बैठे थे। बेटी का चेहरा देख-देखकर कलेजा जी को आ रहा था। छोटी-छोटी बेटियों को देख दिल दहल जाता।

     “अरे पूरी जिन्दगी पड़ी है कैसे होगा। कम से कम अपनी जिम्मेदारियाँ तो पूरी कर जाते।”

     “ईश्वर कैसे इतना अन्यायी हो सकता है। कम से कम छोटे बच्चों का तो ख्याल करता।”

     मिथ्या वचन, कोरी संवेदनाएँ। पर शुभांगी को रह-रहकर ख्याल आता वह कैसे बच्चे पालेगी। इनका भविष्य बिलकुल अनिश्चित-सा हो गया था।

     शान्तनु की मृत्यु के बाद शुभांगी की माँ उसको कुछ दिनों के लिए मायके ले गई थी। सबका थोड़ा मन बदल जायेगा और इन सबसे ध्यान हट जायेगा पर शुभांगी रह न पायी। रह-रहकर अपना घर याद आता था। वहाँ से जुड़ी हर चीज में उसको शान्तनु का स्पर्श लगता था। यादें थीं और उन यादों में स्पन्दन था।

     शान्तनु उसका कितना ख्याल रखता था। जब भी घर में रहता तो हँसता रहता। हमेशा साथ खाता। उसकी आँखों का इशारा ही खाने की मेज पर बुलाने के लिए काफी था। उसकी पूरी आलमारी ही शान्तनु के पसंदीदा कपड़ों से भरी थी। उसकी जिन्दगी की धुरी था शान्तनु। और वह उसको ही खा गई।

     बीच-बीच में उसकी माँ ने यदा-कदा शादी की बात चलाई भी पर शुभांगी के ससुर ने साफ शब्दों में कह दिया-

     “समधनजी.....हमारे घर में ऐसा कोई रीति-रिवाज नहीं है। अगर उसने अपना पति खोया है तो हमने भी अपना बेटा खोया है। रात-रात भर जागकर में भी उसकी याद में तड़पता हूँ। मैं बाप-दादाओं की कमायी हुई इज्जत यूँ ही नहीं गँवा दूँगा। दुबारा ऐसा सोचिएगा भी नहीं.....।’

     वह भी शादी करके शान्तनु की स्मृतियों के साथ छलावा नहीं करना चाहती थी। पर जाते-जाते माँ एक काली बिन्दी लगा गई। “बेटा मेरे सामने तुम्हारा माथा खाली रहे और माँग सूनी यह मैं देख नहीं सकती।”

     आज तीज थी। सब महिलायें उत्साह से व्रत की तैयारी कर रही थीं। अखबार में धू-धू कर कुछ जल रहा था। सारे अखबार रूपकँवर के सती होने की घटना से भरे थे। पति की चिता पर एक और सती। शुभांगी सिर्फ चिता की जलती हुई लपटों को देख रही थी। रूपकँवर के चर्चे सबकी जुबान पर थे। हों भी क्यों न, एक और महिला मार डाली गयी। अच्छा है जिन्दगी भर घुट-घुटकर मरने से तो एक बार मर जाना बेहतर है। शुभांगी उठी.....शीशे के सामने जाकर खड़ी हो गयी। रूपकँवर का सुहागिनों वाला चेहरा उसकी आँखों के सामने घूम गया। वह भी तो तिल-तिल कर मर ही रही है। एक निगाह उसने ऊपर से नीचे तक अपने ऊपर डाली। सफेद लिबास और उसे भी स्याह सफेद बेरौनक चेहरा। जोर से हँसना भी उसके लिए गुनाह था। वह मनहूस थी। उसका यही चेहरा सुबह देखना अपशगुनी था। उसके अन्दर भी कुछ जलने लगा तथा अपने प्रति उपजी घृणा जलने लगी। वह कायर थी......बेहद कायर। अपने बच्चों के कारण वह मर भी नहीं सकती थी। पर अब यह मरेगी नहीं जियेगी। शान्तनु की यादों के सहारे जियेगी। शान्तनु भी यही चाहता है। उसने अपनी आलमारी खोली। पिछले साल तीज पर शान्तनु ने हल्के गुलाबी रंग की साड़ी दी थी। उसको पहनकर और हल्का मेकअप करके वह फिर से शीशे के सामने आकर खड़ी हो गयी। नीचे से उसकी दोनों बेटियाँ दौड़ती हुई आ गई।

     “माँ.......कहाँ हो माँ......।”

     उनकी माँ बाँहें फैलाये नवजीवन का स्वागत करने के लिए तैयार खड़ी थी। दोनों उस बाँहों के संसार में आकर दुबक गयीं।

     शुभांगी की आँखों में आँसू थे पर पीछे शान्तनु खड़ा मुस्कुरा रहा था। अब उसकी आत्मा शान्ति से रह सकेगी। उसने आकर हौले से शुभांगी के कंधों को सहलाया। अब शुभांगी को कोई तीज करने की आवश्यकता नहीं थी। न रात भर रतजगा करके अजगरी योनि से बचने का कोई स्वाँग रचना पड़ेगा। उसका शान्तनु तो उसके पास था। एक नया संसार स्वागत में पलकें बिछाये खड़ा था।

     “तो चलो।” शान्तनु बोला। और उसने मौन स्वीकृति दे दी।

समाप्त

मोल

     एक कोने में बैठकर सब्जी काटते हुए वह बेदम प्रतीत हो रही थी। बूढ़ी की खाँसी बढ़ती जा रही थी। बाबूजी चारपाई पर बैठकर अखबार पढ़ रहे थे। अम्माँ कोई ऐसी बूढ़ी नहीं थी कि कोई खास उम्र हो गई हो। यही कोई चैंसठ-पैंसठ साल की रहीं होगी। घर की गृहस्थी ढोते-ढोते जीवन के अनुभव मानो शरीर के हर अंग पर स्पष्ट प्रतीत होने लगे थे। बाल पक गये थे। शक्ल पर झुरियाँ दूर से प्रतीत होती थीं। दुबला-पतला, छरहरा बदन, उस पर एक अपाहिज टाँग।

     बाबूजी को रियाटर हुए सात-आठ या उससे भी अधिक कोई दस एक साल हो गये थें उसके बाद कहीं काम-धाम ढूँढा नहीं और मजे से घर में बैठकर रिटायर्ड जिन्दगी बिता रहे थें। ऐसे भी वह जीवन भर घर की जिम्मेदारियों से फारिग रहे। एक कुशल बीवी के चलते कभी उस ओर झाँकने का मौका नहीं मिला। सरकारी नौकरी होने के कारण आदत भी आरामतलबी की पड़ गयी थी।

     कभी उनका कोई काम वक्त पर पूरा नहीं होता था तो अब्वल आसमान जरूर सिर पर उठा लेते थे। अम्माँ को निजी और सार्वजनिक जीवन में अनेकानेक बार वह अपमानित कर चुके थे। अम्माँ पर तो मानो कभी उनके इस व्यवहार से जूँभी न रंेगती थी। शायद बाबूजी को झेलते-झेलते आदत-सी हो गयी थी।

     उनकी दो बेटियाँ थीं, जो ब्याह दी गई थीं। बेटा मैट्रिक पास कर आई0ए0 में आया था। बेटा अविनाश ट्यूशन कर जैसे ही लौटा तो माँ की खाँसी उसने देखी न गई। अम्मा को खाँसी क्या आती थी मानो बस अब प्राण ही निकलने को होते थे।

     “चलो माँ तुमको डाॅक्टर को दिखा लाऊँ।” स्वर में उसके थोड़ा तत्रती थी। वह बाबू को सुनाकर थोड़ा सहानुभूति भी लेना चाहता था।

     अखबार पढ़कर बाबूजी अब आँगन में तीज कदमों से टहल रहे थे।

     “कहाँ जाने की बात हो रही है?”

     “बाबूजी, माँ की खाँसी पिछले दो महीने से बराबर बनी हुई है। दवा-दारू भी नहीं कर रही है।”

     बाबूजी थोड़ा रोष में बोले, “दवा-दारू से किसने रोका हुआ है। अपना ध्यान खुद ही नहीं रखती। सुबह उठकर जब देखो तब ठंडे पाने से सर धोकर नहा लेती है। यह भी कोई उम्र है इस तरह की ठिठोली की। शरीर का ख्याल रखे। पर नहीं, दुनिया को तो यह दिखाने में आनन्द आता है कि कैसे पति से शादी हो गई है जो ठीक से इलाज भी नहीं करवाता, देखभाल तो दूर है। क्या मैं जानता नहीं हूँ, यह चाल उसकी पिछले तीस बरस से झेलता आ रहा हूँ।”

     अम्माँ की आँखों से आँसू छलक आये।

     अविनाश बोला, “अब आप तो अच्छा-खासा भाषण देने पर मानो तुल गयें है।”

     “अच्छा अब बेटा इतना बड़ा हो गया है कि माँ के लिए बोलेगा। जो खुद ही नहीं बोला जाता, वह बेटे के मुँह से कहलवाती है।”

     और बाबू ने चाल तीज कर दी। अकेले पड़ गये थे। जवान-जहान होते बेटे से मुँह लगाना उचित नहीं था। थोड़ी देर व्यग्र रहे फिर वहीं से चिल्लाकर बोले, “ओ अविनाश की माँ चाय तो देना।”

     अविनाश अपनी माँ के गिरते हुए स्वास्थ्य को देखकर चिन्तित था।

     “बाबू थोड़े पैसे दे दो।”

     “पैसा! अरे पैसा कहीं पेड़ पर फलता है? रिटायरमेंट के बाद तो ऐसे ही आधा मिलता है। तुम माँ-बेटे जब देखो तब पैसे का ही रोना रोते रहते हो।”

     अविनाश को भी गुस्सा आ गया, “अब बस भी कीजिए बाबूजी। मेरे पास कुछ बचत के पैसे हैं, उन्हीं से माँ को दिखा आता हूँ।”

     “पैसा तो मैंने ही तुमको दिया है वही न तुमने बचाकर रक्खा है और शेखी तो ऐसे बघार रहे हो मानो अपना कमाया हुआ धन हो।”

     अविनाश कुछ न बोला। साइकिल बरामदे में लगाकर अन्दर चला गया।

     अम्माँ भी पूरे घटनाक्रम में चुप बैठ सब्जी काटती रही। बाबूजी शुरू से कंजूस और लापरवाह आदमी थे, पर रिटायरमेंट के बाद तो जैसे वह पूर्णतः ही बदल गये थे, बात-बात पर झुँझला जाना उनकी आदत में शुमार हो गया था।

     अविनाश ने अम्माँ से काफी मिन्नतें कीं कि चलकर दिखा लो, पर वह राजी नहीं हुई।

     “कुछ नहीं हुआ है बेटा। बस थोड़ी-सी खाँसी ही तो है। फिर देख, दवा तो ले रही हूँ। कुछ दिनों में सब ठीक हो जायेगा। तू ऐसा कर यह वाली दवा लाकर दे दे। इससे आराम हो जाता है।”

     बात आई-गई हो गयी। अम्माँ की हालत में ज्यादा सुधार न हुआ। अब तो उनको बुखार भी रहने लगा था। पहले से काफी कमजोर भी हो गई थी। एक दिन सुबह अम्माँ बिस्तर से नहीं उठी। इधर वैसे तो भोर होते ही उनका काम-काज चालू हो जाता। मटके में पानी भरना, कपड़े धोना आदि पर आज सूरज पूर्णतः अपना साम्राज्य फैला चुका था पर वह बेसुध पड़ी थी। बाबूजी को सुबह से ही चाय की तलब लगी हुई थी। आँगन में चहलकदमी कर रहे थे। चैके में कभी अम्माँ ने जाने का सुअवसर न दिया था। उसके प्रति ठहरे निरे अनाड़ी। मरता क्या न करता! बार-बार झाँक के देख जाते कि अम्माँ उठी कि नहीं फिर मन मारकर घूमने लगते।

     “पता नहीं आज क्या हो गया है तुम्हारी अम्माँ को, अभी तक सोई पड़ी है। चल जरा चाय तो बना दे।”

     “बाबूजी आप भी हद करते हैं। अम्माँ ऐसे ही नहीं न आराम फरमा रही है। जरूर तबियत बिगड़ गयी होगी।” अविनाश भागते हुए अन्दर आया।

     अम्माँ के सर पर हाथ रखा तो बहुत तीज बुखार था। खाँसी पहले की तरह यथावत थी। बाबूजी से पैसे के लिए कहना व्यर्थ था। उसने अपनी दराज खोली और पैसे निकाल कर आनन-फानन में पड़ोस के डाॅक्टर को ले आया।

     डाॅक्टर ने हर प्रकार से मुआइना किया और एक कागज पर कुछ लिखकर अविनाश को पकड़ा दिया।

     “पहले यह सब टेस्ट करवा लीजिए, तब कुछ कहा जा सकता है।”

     एक्सरे और खून की जाँच तो बगल के सरकारी अस्पताल में करवा लाना था। उनका नतीजा आने के बाद बाकी परीक्षण करवाना था। इस बीच बगल वाली शीला मौसी ने घर को सँभाल लिया था। बीच-बीच में आकर माँ की भी सेवा-पानी कर जाती थी। शीला मौसी और अम्माँ आगे-पीछे ब्याहकर इस मुहल्ले में आयी थीं। अम्माँ के स्वभाव के कारण दोनों में घनिष्ठता काफी बढ़ गयी थी। जब शीला मौसी विधवा हुई थी तो अम्माँ ने उनको सँभाला था। आज उसी का ऋण वह अदा कर रही थी।

     रिपोर्टस लेकर शाम को डाॅक्टर के पास गया। देखकर डाॅक्टर थोड़ी देर सकते में आ गये फिर अविनाश का चेहरा पढ़ने की कोशिश करने लगे। थोड़ी देर बाद संयत स्वर में उन्होंने कहना शुरू किया-

     “बेटा जो सोचा था उससे भी भयंकर अंजाम सामने आया है। मैंने तो बहुत सोचा तो भी टी0बी0 के आगे की कल्पना न कर पाया। पर एक्सरे तो.....” वह ठिठक गये। अविनाश के चेहरे पर से उन्होंने आँखें हटा लीं। सर झुकाकर बोले, “आखिरी अवस्था में....” और कमरे के गमगीन माहौल के साथ वह भी मौन साध गये।

     अविनाश के ऊपर तो जैसे वज्रपात हुआ। कभी दूर-दूर तक भी उसने इस बात की कल्पना नहीं की थी कि उसकी माँ हर पल जिन्दगी और मौत की लड़ाई लड़ रही है।

     सकते की स्थिति से उबरने के बाद वह धीरे से पूछ पाया, ’’कोई उम्मीद?’’

     ’’बस ईश्वर ही कुछ कर सकता है। नहीं तो एक महीना से अधिक का वक्त नहीं है उनके पास।’’

     अविनाश भारी मन से डाॅक्टर के कक्ष से निकला। जी कैसा-कैसा हो गया था।

     घर पहुँचा तो बाबूजी का अपना ही राग चल रहा था। माँ अपनी चारपाई पर पड़ी कुछ बुदबुदा रही थी। कमरे में जाकर माँ का हाथ पकड़कर बैठ गया। शायद बहुत कस के पकड़ने से माँ छुड़ा नहीं पायेगी। माँ मे भी उसके स्पर्श से स्पन्दन हुआ।

     ’’बेटा तू आ गया। जा, जाकर खाना खा ले। पिताजी कब से तेरे लिए परेशान घूम रहे हैं, भूखे भी हैं। अब मैंने ही न उनकी आदत बिगाड़ दी है। बच्चे-सा व्यवहार करते हैं।’’

     ’’भूख तो उन्हें बर्दाश्त नहीं। मौसी खाना पकाकर रख गयी है।....’’ माँ बोले जा रही थी और वह सुने जा रहा था। आज वह माँ से ढेरों बातें कर लेना चाहता था, पता नहीं कल क्या लेकर आये।

     थोड़ी देर में जब संयत हुआ तो उठकर बाबूजी के कमरे में गया।

     ’’कहाँ था अब तक?’’ कड़ककर पूछा, ’’बोलो कहाँ था?’’

     ’’डाॅक्टर के पास ’’, बड़ी मुश्किल से स्वर निकला।

     ’’क्या बोला डाॅक्टर?’’

     अविनाश बाबूजी की शक्ल देखने लगा। फिर बिना कुछ भूमिका बाँधे बोला, ’’फेफड़े का कैंसर।’’ और सर झुका लिया जैसे उससे कोई बहुत बड़ा अपराध हो गया हो।

     बाबूजी शायद समझे नहीं या समझकर अनजान बने रहे, ’’फेफड़े का कैंसर!’’ फिर शायद अपने ही स्वर से उनकी तन्द्रा टूटी और शब्दों की गम्भीरता का ज्ञान हुआ।

     ’’इलाज....?’’ टूटे हुए स्वर में पूछा।

     ’’कुछ नहीं आखिरी वक्त है। सिर्फ दुआ ही काम करेगी।’’

     शायद बीमारी की भयावहता बाबूजी के मन-स्थल में धीरे-धीरे प्रवेश कर रही थी। भारी मन से वह भी चहलकदमी करने लगे। उठकर अम्माँ को छूने का साहस नहीं हो रहा था। पास की ही कुर्सी पर पूरी रात बैठे रहे।

     उस दिन परिवार में किसी ने भी खाना नहीं खाया।

     सुबह जब अविनाश की आँख खुली तो अम्माँ सो रही थी पर बाबूजी का कहीं अता-पता नहीं था।

     उठने पर माँ ने भी सबसे पहले बाबूजी के विषय में पूछा।

     ’’बस माँ आते ही होंगे पास ही में गये हैं.....’’ अविनाश झूठ बोल गया।

     अम्माँ कुछ न बोली।

     बाबूजी कपड़े की दुकान के बाहर बैठे हुए थे। सुबह से ही दुकान खुलने का इंतजार कर रहे थे। कल शाम से उनके अन्दर एक शून्यता ने प्रवेश कर लिया था। उन्हें कुछ भी अच्छा नहीं लग रहा था। अम्माँ के साथ बिताये हुए क्षण उन्हें रह-रहकर कचोट रहे थे। वह अम्माँ को कभी भी पूरा वक्त नहीं दे पाये इसकी उनको आत्मग्लानि हो रही थी।

     काफी समय से अम्माँ को एक साड़ी खरीदने का मन था। सुन्दर-सी भारी साड़ी। सूती धोती के सिवा वह उसको कुछ भी खरीद न पाये थे और अम्माँ ने इसके आगे कभी कोई फरमाइश भी नहीं की थी। एक संतोषी सुघड़ गृहिणी की तरह वह घर के कार्याें में खुश रहती थी, पर इधर उसने पहली बार मुँह खोला था वह भी कीमती साड़ी के लिए और उन्होंने उसे झिड़क दिया था।

     ’’अपनी औकात देखकर पैर पसारना चाहिए।’’ और अब जब अम्माँ हमेशा के लिए चुप हो जाय इससे पहले वह लाल चुनरी के गोटे वाली साड़ी उनको पहनाना चाहते थे। पहनाकर उसको खुश देखना चाहते थे।

     जैसे ही दुकान खुली, वह साड़ी खरीदकर तीज कदमों से घर की ओर लपके। अम्माँ की जाती हुई हर साँस के साथ कदम तीज करते गये। साड़ी को काफी कस कर पकड़े हुए थे कि कहीं छूट न जाय। आज उन्हें अनुभव हुआ कि जिन्दगी के आगे बाकी सब बेमोल है। सिर्फ जीवन ही बहुमूल्य है। उधर शायद अम्माँ भी आखिरी बार खाँसी थीं।

समाप्त

स्माजसेवा

     काफी बड़े पैमाने पर जलसे का आयोजन हुआ था। समाजसेवियों का जमावड़ा था। मुख्यतः इसमें शहर की चुनिंदा प्रतिष्ठित महिलायें थी जो अपना कीमती वक्त पार्लर और रेस कोर्स से बचाकर मानवता के कल्याणार्थ देती थीं, अभी इंसानियत मानो बाकी थी। होती भी क्यों न, शहर के बड़े-बड़े समाजसेवियों का आज गण़तन्त्र दिवस के अवसर पर अभिनंदन समारोह रखा गया था। शहर के क्लब के प्रेसिडेंट, सेक्रेटरी, आॅफिसर्स और जानी-मानी तमाम बड़ी हस्तियाँ मौजूद थी। अपना पैसा और समय समाज की सेवा में लगाते थे, जाहिर है समाज का भी दायित्व बनता था कि और कुछ न सही तो कम से कम उनको सम्मान तो दे ही सकता था।

     महफिल में थोड़ी-बहुत कानाफूसी हो रही थी। सब के सब मुख्य अतिथि के आने का इंतजार कर रहे थे। मुख्य अतिथि यानी मिनिस्टर साहब को आने में थोड़ा विलम्ब हो रहा था।

     तभी मिसेज हलधर ने मिनिस्टर साहब को मोबाइल पर फोन किया।

     ’’ सर कितनी देर में आपका आना हो रहा है। यहाँ सब तैयार है।’’ मिसेज हलधर शहर के बहुत बड़े सर्जन की पत्नी थीं और रोटरी क्लब की प्र्रेसिडेंट। वह हर उस जगह मौजूद रहती थीं जहाँ कुछ भी घटित होता था, अपने क्लब के बैनर और कैमरे के साथ। इस छोटे से शहर में जब लोगों का जमावड़ा होता था तो एक जलसे के रूप में तब्दील हो जाता था। छोटा-सा एक ही समुदाय था जो समाज के प्रतिष्ठित वर्ग में बार-बार अपनी उपस्थिति दर्ज करता था और कमोवेश हर समारोह में यही समुदाय घूम-फिरकर दिखाई पड़ जाता था।

आज का दिन माकूल दिन था जिस दिन हर शख्स कहीं न कहीं सम्मिलित होना चाहता था। आज के दिन हर कोई शहरी समारोह और जलसे में अपनी उपस्थिति दर्ज कराने के लिए बेताब रहता था।

     ’’बस मैं रास्ते में हूँ। तुम लोग स्वागत की तैयारी करो।’’

     ’’जी सर।’’

     मोबाइल रखते ही वह एक्शन में आ गयीं। किसी को इधर खड़े होने का निर्देश मिला तो किसी को उधर। मुख्य अतिथि के पहुँचते ही समस्त लोग उनकी गाड़ी की तरफ लपके। दरवाजा खोलकर उनको मंच पर ले गये। स्वागत भाषण के बाद मुख्य अतिथि ने काफी विस्तार से इन सब महानुभावों के समाज के प्रति योगदान की चर्चा की और तारीफों के पुल बाँधे गये। ऐसा प्रतीत हुआ मानो समाज इन्हीं के कंधों के ऊपर टिका हुआ है।

     फिर सबको सम्मानस्वरूप शाल भेंट किये गये। तड़ातड़ फोटोग्राफरों के कैमरे क्लिक होने लगे, टीवी वाले सम्मानित नागरिकों के सामने माइक लेकर लपके। पूरा समाँ उत्साहवर्धक हो उठा था। इधर मिसेज हलधर घूम-घूमकर सबों को शाम के डिनर के लिए बुला रही थीं। उनको भी बेस्ट प्रेसिडेंट का आवार्ड मिला था। शाम को उन्होंने एक पार्टी अपने घर पर रखी थी। अभी उपस्थित करीब-करीब सभी आगान्तुक उनकी मेहमानवाजी का लुप्त उठाने वाले थे। सबको बुलाकर वह अपने घर के लिए प्रस्थान कर गयीं।

     शाम को दावत क्या थी मानो एक छोटा-मोटा जलसा-सा लगा हुआ था। शहर के तमाम बड़े और नामी-गिरामी लोग उपस्थित थे। मिसेज हलधर की तारीफ हर तरफ हो रही थी।

     ’’देखो कितनी कुशल महिला हैं। घर और बाहर दोनों में कितना अच्छा सामंजस्य स्थापित कर रखा है।

     ’’हाँ कुशलता तो है पर पति का भी तो बेहद सहारा है।’’ एक महिला नाक-भौं सिकोड़कर बोली। ’’वह करती क्या है! बस मौके पर पहुँचकर खड़े हो जाने से कोई समाजसेवी नहीं बन जाता है। अरे देख अगर कुछ भी बिना पति के योगदान के कर पाये तो मानें। दिन भर तो अपनी पै्रक्टिस छोड़ के इनके पीछे घूमता-फिरता है।’’ पहली महिला ने कोहनी मारी, ’’श्....श्.... देखो डाॅक्टर हलधर इधर ही आ रहे हैं।’’

     मिस्टर हलधर पूरी पार्टी में गौरा महसूस कर रहे थे और घूम-घूमकर सभी का स्वागत कर रहे थे।

     ’’ और कुछ लीजिए। अरे वेटर इधर ड्रिंक्स लेकर आना। मैडमजी किसके साथ लीजिएगा, सोडा या पेप्सी के साथ। शर्माजी आइये-आइये। बस आप ही का इंतजार था। अरे शर्माजी को वोदका सर्व करो। खास करके आपके लिए बाहर से मँगाई है। इण्डियन तो आप पीते नहीं।’’

     तभी डाॅक्टर साहब का मोबाइल बज उठता है। क्लिनिक से फोन है।

     ’’डाॅक्टर साहब एक मरीज बहुत ही सीरियस अवस्था में भरती हुआ है, ट्रक से टक्कर हुई है। नहीं-नहीं हैड इंजरी नहीं दोनों टाँगें बुरी तरह से जख्मी हो गयी हैं। आॅपरेशन कर राॅड डालनी पड़ेगी।’’

     ’’अरे विनोद अभी मैं कैसे आ सकता हूँ। मरीज गरीब है या अमीर?’’

     ’’सर गरीब है। साथ में माँ और बीवी है।’’

     ’’अरे सँभाल लो विनोद। अभी पार्टी शुरू हुई है। देखो मैं दवा समझा देता हूँ। तुम उसको बोलो सुबह तक इंतजार कर ले। मेरी फीस भी बता देना, अभी भर्ती किये लेते हैं, आॅपरेशन पैसे मिलने के बाद शुरू करेंगे। नर्सिंग होम का किराया भी बता देना।’’ और मोबाइल आॅफ हो गया।

     डाॅक्टर साहब फिर से सबको खिलाने-पिलाने में मशगूल हो गये। पी के चढाने के बाद तो उनको होश ही नहीं रहता था। म्यूजिक चलने के बाद तो वह किस भाभीजी के साथ डांस कर रहे थे और कैसे कर रहे थे उन्हें तो इसका ध्यान भी नहीं होता था।

     पार्टी खत्म होते-होते फिर विनोद का फोन आ गया।

     ’’सर उसको इंजेक्शन तो दे दिया है पर उसकी पत्नी आपसे मिलना चाहती है। कह रही थी कि डाॅ0 साहब का काफी नाम सुना है। वह मुझ दुखियारी की मदद करेंगे।’’

     डाॅ0 साहब के मुँह से एक भद्दी-सी गाली निकली-’’क्या मैंने पूरे इलाके के गरीबों का ठेका ले रखा है। सुबह देखेंगे। अभी छोड़ो ये सब। मूड मत खराब करो। जाने कहाँ-कहाँ से भिखमंगे चले आते हैं। औकात भी नहीं देखते। मेरा कोई खैराती अस्पताल है या फिर मैं कोई सरकारी डाॅक्टर हूँ। जिसको देखो खैरात माँगने चले आते हैें और हाँ रात में फोन करके परेशान मत करना। सोने दो। मैं काफी थक गया हूँ।’’

     और सचमुच वह पलंग पर ऐसे लुढ़के कि उनको होश नहीं रहा।

     सुबह-सुबह विनोद ने ही फोन से उठाया, ’’साहब मरीज थोड़ा सीरियस है। पर बुढ़िया बोल रही है शाम तक पैसे का इंतजाम हो जायेगा। शायद गाँव वाले चंदा करके दस हजार तक इक्ट्ठा कर देंगे। बाकी पैसा भी वह एक-दो दिन में इकट्ठा कर दे देगी।’’

     ’’ठीक है तुम आॅपरेशन की तैयारी करो मैं बस पहुँचने वाला हूँ।’’

     पत्नी की भी नींद तब तक खुल चुकी थी। ’’कहाँ जा रहे हो?’’

     ’’कुछ नहीं एक इमरजेंसी है।’’

     ’’ओफ .... सिर्फ काम और काम, और इसके अलावा भी कुछ आपको नजर आता है! आज बच्चों को पिक्चर लेकर जाना था।’’ मिसेज हलधर थोड़ा रूष्ट होकर बोलीं।

     ’’अच्छा बाबा ले चलेंगे जरा नर्सिंग होम होकर आते हैं। कुछ पैसा होगा तभी न खर्च कर पायेंगे।’’ डाॅक्टर साहब तैयार हुए और सीधे क्लिनिक चले गये।

     शराब का सुरूर अभी भी उन पर था। अतः आॅपरेशन करते हुए हाथ काँप रहे थे। ऐसे भी मरीज कोई मुख्य व्यक्ति तो था नहीं कि डाॅक्टर साहब आॅपरेशन थोड़ा सीरियस होकर करते। जैसे-तैसे आॅपरेशन करके बाहर आये।

     ’’देख लेना शाम तक पैसे जमा हो जायें नहीं तो अपने नर्सिंग होम में हम रख नहीं पायेंगे। यह बात साफ-साफ बोल देना। वर्ना होश आते ही उठाकर फेंक देना।’’

     डाॅक्टर साहब और मरीजों को देखने में व्यस्त हो गये। इसी बीच मंत्रीजी का फोन आया। उनकी पत्नी को पेट में दर्द था। दो-तीन डाॅक्टर पहुँच चुके थे। इनको भी तलब किया गया था। चलते-चलते विनोद को बोले कि और मरीजों को बैठाकर रखो, मैं मंत्रीजी के यहाँ से होकर आता हूँ।

     शाम होते-होते उस मरीज की बूढ़ी माँ कुछेक पैसे का इंतजाम कर लायी थी। विनोद को देकर बोली कि बहुत जल्दी ही वह सारे पैसों का इंतजाम कर देगी। गरीबी में शायद एक विवशता होती है।

     धीरे-धीरे मरीज को होश आ गया। उसकी दोनों टाँगों में राॅड डालनी पड़ी थी। पर अभी उसकी हालत पूरी तरह से सुधरी नहीं थी। रह-रहकर बेहोश हो जाता था।

     ’’डाॅक्टर साहब उस मरीज का क्या करें?’’ तीसरे दिन भी जब उसको होश नहीं आया तो चिंतित स्वर में विनोद बोला।

     ’’अरे करना क्या है। दो-एक दिन और रख लो। फिर भी ठीक नहीं होता तो बाहर निकाल देना। ऐसे भी कौन-सा अपना कुछ लगता है, पैसा भी पूरा जमा नहीं कर पा रहा है। कहाँ तक ढोते रहेंगे।’’ दूसरे दिन मरीज को उठाकर बरामदे में डाल दिया गया। उसके जख्म पर मक्खी भिनभिना रही थीं। मरीज तो बरामदे में पड़ा कराह रहा था। उसका साढ़े तीन साल का पुत्र रह-रहकर बेचैन हो उठता था।

     ’’माँ घर चलो माँ। भूख लगी है।’’ और उसकी बेबस बीवी बच्चे को बहलाने के लिए उसका मूँह अपने आँचल में लगा देती और बच्चा थोड़े से दूध की अनुभूति से चुप हो जाता। इतने दिन से उसने भी ठीक से नहीं खाया था तो पूरा दूध उसको भी नहीं उतर रहा था।

     इस समय प्रश्न भूख का नहीं था, प्रश्न जिन्दगी का था, पति की जान बचाने का था। पति की स्थिति देख-देखकर उसका कलेजा मुँह को आता था। होश में आने पर भी गफलत की स्थिति में रहते थे। शाम को जब डाॅक्टर साहब पहुँचे तो उनका पैर पकड़ वह बिलख पड़ी।

     ’’डाॅक्टर साहब मेरे सुहाग को बचा लो, यही एकमात्र सहारा हैं। घर में खेती-बारी भी नहीं है जो उससे गुजर-बसर हो। हम पर दया करो।’’

     शायद रोने का भी उनके ऊपर कोई असर नहीं पड़ा।

     ’’विनोद मरीज को क्या हुआ है?’’

     ’’डाॅक्टर साहब शायद दाहिने पैर की राॅड में पस आ गया है। जहर शरीर में फैल रहा है। दवा लिखकर दिया था पर यह उसका इंतजाम नहीं कर पाये।’’

     ’’उपाय?’’

     ’’कुछ नहीं, अगर उसको ज्यादा दिन रखेंगे और कहीं मर गया तो उल्टे लेने के देने पड़ जायेंगे।’’

     ’’ठीक है शाम को डिस्चार्ज स्लिप बना दो। जो भी दे डाँट-डपटकर रख लो और मुसीबत से छुट्टी करो। पर ये हुआ कैसे?’’

     ’’डाॅक्टर साहब राॅड में या तो जंग थी या फिर सिलाई ठीक से नहीं लगी है। जो भी है अगर ये हमारे यहाँ मर गया तो हमारे नर्सिंग होम की बदनामी होगी। आठ-दस हजार जैसे-तैसे करके दे देगी। बाकी अपनी बला से।’’ विनोद के दार्शनिक स्वर से डाॅक्टर साहब का हौसला बढ़ा।

     ’’सही बात है। अगर मरीज मर भी गया तो बुढ़िया की इतनी औकात भी नहीं कि दस लोग इकट्ठा कर पाये तो फिर हमें डरने की क्या जरूरत है।’’

     शाम तक उस रोते-गाते मरते हुए मरीज की माँ से जितना भी बन पड़ा ले लिया और उसको उठाकर बाहर फेंक दिया।

     मरीज की हालत रात बीतते-बीतते सीरियस हो गई थी। भोर होते होते वह इस दुनिया से चल बसा।

     उधर शाम को डाॅक्टर साहब बाहर लाॅन में बैठकर चाय पी रहे थे। उनके एक-दो डाॅक्टर मित्र भी चाय में उनका साथ देने के लिए आ गये थे।

     ’’आजकल क्या चल रहा है अशोक?’’ अशोक शहर के नामी-गिरामी बच्चों के डाॅक्टर थे। ’’अरे चलना क्या है अभी-अभी तो लौटकर आया हूँ इंगलैंड से। नियोनिटल सर्जरी की काफ्रेंस थी। जगह-जगह से डाॅक्टर आये हुए थे। मैश्यूस्ट से भी डाॅक्टर जोन्स थे। काफी कुछ सीखने का मौका मिला। और तुम्हारा डाॅ0 चावला।’’

     ’’सब मजे में।’’ और डाॅक्टर अशोक हँस दिया। ’’दावत-वावत कब दे रहे हो।’’

     डाॅ0 चावला खिसियाकर बोले-’’भाई बात तो एक ही है।’’

     ’’हाँ.....हाँ..... तुम तो कहोगे।’’

     तभी डाॅ0 हलधर के मोबाइल पर घण्टी बज पड़ती है। डाॅ0 साहब उठकर लाॅन के एक कोने में आ गये जिससे ठीक से बात सुनी जा सके। ’’अच्छा कब हुआ? ठीक है उनको बोलो.... चिंता नहीं करें। हाँ-हाँ हम सब पहुँच रहे हैं। सभी यहीं हैं। अरे कैसी बात करते हो। मुसीबत में ही इन्सान न एक-दूसरे के काम आता है।’’ और उन्होंने स्विच बन्द कर दिया।

     स्वर में चिन्ता थी, ’’डाॅ0 बत्रा का अपहरण हो गया है।’’

     ’’कैसे?’’ सभी के स्वर में चिन्ता

     ’’पता नहीं। आजकल का वक्त भी तो कितना खराब आ गया है। कानून व्यवस्था तो पूरी तरह चरमरा गई है। कब क्या हो जाये पता नहीं।’’

     ’’तुम सही कहते हो। इतना टैक्स भी दो फिर भी हम लोग सुरक्षित नहीं है।’’

     ’’हाँ तुम ठीक कहते हो। आज समाज के मूल्यों में इतना ह्रास हो गया है कि अब लोग डाॅक्टरों को भी नहीं छोड़ते। अरे एक पहले का समय था। डाॅक्टरों को लोग भगवान मानते थे। और अब देखो! यह दिन भी देखना पड़ेगा ऐसा कभी सोचा भी न था।’’

     ’’ अरे अभी सोचने का वक्त नहीं है। एक्शन का है। अगर अभी हम चुप बैठ गये तो हमारी आवाज दब जायेगी।’’ डाॅ0 हलधर थोड़ा उग्र स्वर में बोले, ’’हम धरना करेंगे, प्रदर्शन करेंगे, प्रशासन के खिलाफ नारेबाजी करेंगे।’’ उनके अन्दर का नेता और समाजसेवी जाग उठा था। ’’और अगर तब भी कुछ नहीं हुआ तो हड़ताल।’’

     वैसे भी अब डाॅक्टर भगवान न रह गया था बल्कि किसी मिल के मालिक जैसी उसकी स्थिति थी जो हड़ताल की नौबत बीच-बीच में आ जाती थी।

     सारे डाॅक्टर एकजुट होकर डाॅक्टर बत्रा के घर की तरफ चल दिये। सबमें आक्रोश भरा हुआ था।

     डाॅ0 अशोक तो इंगलैंड वापस जाने की बात भी कर रहे थे।

     ’’यहाँ से तो अच्छा बाहर है। लोग आपके काम की कद्र तो करते हैं। वहाँ पर डाॅ0 बत्रा जैसे डाॅक्टर को सम्मानित किया जाता है न कि उनका अपहरण होता और न फिरौती में रूपये माँगे जाते।

     मिसेज बत्रा हाॅल में बेहाल पड़ी हुई थी। ज्यादातर डाॅक्टरर्स की पत्नियाँ इकट्ठी हो गई थीं। सब उन्हें संभालने में लगी हुई थीं।

     बत्रा साहब के ड्राइंगरूम में कल के जुलूस की तैयारी के विषय में वार्तालाप चल रहा था। पुलिस कप्तान को फोन करके उसकी सूचना दे दी गई थी। वह भी एड़ी-चोटी का जोर लगाये हुए थे। डाॅ0 बत्रा उनके अच्छे मित्र भी थे। बीच में वक्त निकालकर वह मिसेज बत्रा को सान्त्वना दे गये थे।

     ’’धीरज रखिए हम सब कुछ न कुछ हल निकालेंगे। मुजरिम बच के जाने नहीं पायेगा।’’

     पर मिसजे बत्रा को कहाँ धीरज आ रहा था। उसका सुहाग इस समय मुसीबत में था, वह कहाँ अपने मन को समझा पा रही थी। सुबह से उसने खाना-पीना बन्द किया हुआ था। रह-रहकर बेहोश हो जाती थी।

     डाॅक्टर बत्रा का दूसरे दिन भी कोई सुराग न मिला। अब तो पानी सर के ऊपर से निकल रहा था। शहर के नामीगिरामी डाॅ0 बत्रा दो दिनों से लापता थे और कुछ भी पता नहीं चल पा रहा था कि वह कहाँ गये। अच्छे-खासे अपने क्लिनिक से लौट रहे थे कि दो रिवाल्वरधारी नौजवानों ने जबरन उनको उठा लिया। गाड़ी में ही बैठाकर ले गये। अभी तक फिरौती की भी माँग नहीं हुई थी। मिसेज बत्रा के घर से डाॅक्टरों का बड़ा-सा जुलूस निकला। जिन्दाबाद-मुर्दाबाद के नारे लगाते हुए सभी जुलूस के रूप में निकल रहे थे। सबके चेहरे पर क्षोभ और चिन्ता स्पष्ट थी। आगे-आगे पत्रकार और टीवी के आदमी चल रहे थे और पीछे-पीछे पुलिस की गाड़िया।

     आखिर पूरे जुलूस को पुलिस के संरक्षण की जरूरत थी। जुलूस कमिश्नर कार्यालय के समीप पहुँच रहा था। वहाँ उनको ज्ञापन देना था। रास्ते में डाॅ0 हलधर की क्लिनिक पड़ती थी। जैसे ही जुलूस वहाँ पहुँच कि ठेलागाड़ी पर उस मरीज की लाश लेकर उसका परिवार जा रहा था। दो दिन पुरानी लाश महकने लगी थी। ठेलागाड़ी वाला मददगार इन्सान निकला और उसने मुफ्त में उसकी लाश को उठा श्मशान पहुँचाने का जिम्मा अपने ऊपर ले लिया। रोती-बिलखती बीवी, कलपती माँ और दुधमुँहा बच्चा लाश का साथ दे रहे थे। ठेलागाड़ी वाले ने जुलूस देखकर रास्ता बदल लिया। खामख्वाह जुलूस जनाजे को रोक लेगा। वैसे भी लाश से गंध आ रही थी। इंसान भी इस कदर सड़ी-गली लाश में तब्दील हो जाता है कि उससे सड़ाँध आने लगती है। शायद उस जुलूस में जिसका डा0 हलधर नेतृत्व कर रहे थे एक सडाँ़ध ही आ रही थी। समाज शायद कबका सड़ चुका था।

समाप्त

सफर

     स्टेशन पर आकर गाड़ी रूकी। सब तरफ अफरा-तफरी-सी मच गयी। कुछ लोग गाड़ी में चढ़ रहे हैं, कुछ उतर रहे हैं। किसी को अपने रिश्तेदारों से मिलने की खुशी तो किसी को बिछुड़ने का गम। अनजान चेहरे, अनजान राहें, पर उनको बाँधती थी एक डोर, यह ट्रेन। शायद कुछ-कुछ हमारी जिन्दगी-सी, जिसमें अनजान लोग किस तरह इस सफर में साथ हो लेते हैं और किस तरह बिछुड़ जाते हैं। कभी न मिलने के लिए।

     एक वृद्ध सज्जन, अब वृद्ध भी क्या कहेंगे, पर अधेड़ तो जरूर प्रतीत होता था, बदन से तो उम्र ज्यादा महसूस नहीं हो रही थी, पर चेहरा जरूर उम्रदराज था। गरीबी का सबसे दुखद पहलू है कि वह भूख को उम्र, शरीर और चेहरे पर ले आती है।

     उसकी आँखों में एक सूनापन आकर ठहर गया था। अब उसकी आँखें किसी को ढूँढ नहीं रही थीं, न ही कोई उसको ढँूढ रहा था। पर इस शहर से वह अपरिचित न था।

     ट्रेन से उतरकर वह एक खंभे से सटकर बैठ गया। अपने बगल में उसने एक मैला-कुचैला-सा बैग रख दिया। कहीं जाने की उसको हड़बड़ी नहीं थी। पर वह इस शहर में कुछ सोच के आया था। किसी से मिलने आया था।

     हाँ यह शहर तो उसका अपना था। उसके अपने यहाँ रहते थे। उसके बेहद अपने, उसके बीबी और बच्चे और वह भी तो उन्हीं से मिलने आया था। पर क्या वह उनसे मिल पाएगा? वह थक गया था, जिन्दगी की आपाधापी से टूट गया था। एक हताश इन्सान क्या किसी का पिता या पति हो सकता है! इस सोच में एक

अकेलापन था, एक ठहराव था और उससे भी अधिक एक निस्तब्धता, एक शून्यता। वह सबसे मिलके चला जाएगा।

     बचपन उसका कितना अच्छा था। कष्ट थे, आर्थिक तंगी थी पर सपने थे। उन सपनों को पूरा करने की ललक थी। एक निम्न मध्यवर्गीय परिवार में उसका जन्म हुआ था। वह पाँच भाई-बहनों में सबसे बड़ा था। उसके पीछे चार बहनें थी। पिता एक मामूली-सी प्राइवेट फर्म में क्लर्क थे।

     स्वप्न रहित एक सीधी-सपाट जिन्दगी जिसमें खुशियाँ कभी-कभी ही हौले-हौले दस्तक देती थीं पर दुख तो सहोदर की तरह हमेशा गले ही लगाए रहता था। बड़ा होने के नाते उसने अक्सर इस दर्द को बड़ी शिद्दत से महसूस किया था।

     उसकी माँ अक्सर बीमार रहती थीं। दमा था क्योंकि जब कभी वह बेदम होतीं तो कई दिनों तक को बिस्तर पकड़ लेतीं। उसके पिता ज्यादातर आॅफिस में ही व्यस्त रहते थे। प्राइवेट फर्म में जितना पैसा न था उससे अधिक काम था। और वे बेचारे सीधे-सादे आदमी। कोई भी यार-दोस्त अपना काम उनके ऊपर डालकर ऐश करता था।

     उसने घर का सारा काम बड़े अच्छे से सँभाल लिया था। सँभाल क्या लिया था सँभालना पड़ गया था क्योंकि जब जिन्दगी में मजबूरी सिर पर आती है तो अपने को हालात के अनुरूप ढालना पड़ता है, हालात हमारे अनुरूप नहीं ढलते। कुछ बखूबी सँभाल लेते हैं और कुछ उनसे लड़ते ही रह जाते हैं। खैर उसने उफ् तक न की।

     स्कूल और घर के बीच में पिसते हुए उसने एक सपना देखा था और वह था फोटोग्राफर बनने का। उसके घर के पास ही फोटोग्राफर रहते थे। व उसके पिता के हमउम्र थे पर जब से उसने उनके पास जाना शुरू किया था तब से उन दोनों में अच्छी घनिष्ठता हो गयी थी। वह खाली वक्त में उनके लैब में भाग जाता और

उनसे फोटोग्राफी के गुण सीखता। शायद उन रंगीन फोटोग्राफ के माध्यम से वह दूसरों की रंगीन जिंदगी को जी लेना चाहता था। वह कैमरे में बंद कर लेना चाहता था जो भी हो उसने वीराने में एक सपना पाल लिया था।

     धीरे-धीरे उम्र भी बीतती गयी और जिम्मेदारियाँ भी बढ़ती गयीं। जिम्मेदारियों के कारण उसने शौक को ताक पर रखकर नौकरी की तलाश शुरू की । अब मनचाही जगह पर नौकरी तो मिलती नहीं, तो उसका एक परिचित उसको उड़ीसा ले गया। वहाँ एक सीमेन्ट फैक्ट्री में मजदूर की नौकरी मिल गयी। अपने मित्र की चाल में ही वह रहने लगा। क्योंकि इससे ज्यादा जगह का इंतजाम वह अपने लिए जिन्दगी में कभी कर भी नहीं पाया। जो पैसे होते थे उनको वह पूरा-का-पूरा घर भेज देता था। और अपने खाने-खर्चे के लिए वह शाम को एक होटल में वेटर का काम करता था। कुछ पैसे भी हो जाते थ और कम-से-कम एक टाइम भरपेट भोजन। पूरे दिन की फाकामस्ती वह शाम को भूल जाता था। और रात ढलते-ढलते वह सब-कुछ भूल निद्रा के आगोश में डूब जाता था। सारे सपने उस नींद के साथ ही स्याह रंग अख्तियार कर लेते थे।

     कब उसकी शादी हुई और कब बच्चे ये सोचने की फुर्सत भी उसको न मिली। बीवी को कहाँ उड़ीसा ले जाकर रखता। वहाँ तो उसके अपने लिए जगह नहीं थी। यहाँ कम-से-कम माँ के पास सिर छुपाने के लिए छोटा ही सही पर इज्जतदार आशियाँ तो था। बीच-बीच में छुट्टी मिलने पर वह घर आ जाता था, अपनों के बीच।

     वक्त तो एक रफ्तार से भागता चला जाता है। रूकता नहीं। रूकती तो हमारी जिन्दगी है। वह थम जाती है वक्त आगे बढ़ जाता है। कुछ ऐसा ही उसके साथ हुआ। कब बचपन बीता होश ही न रहा। कब जवानी के दिन बीतने लगे पता न चला। पता तो तब चला जब बेटा थोड़ा बड़ा हो गया। इस बार वह काफी खुश घर

पहुँचा था। दिवाली पर बोनस मिला था। उससे पहली बार उसने अपने परिवार के लिए कपड़े लिए थे। बहनों की जिम्मेदारियों से भी वह इसी साल फारिग हुआ था।

     जब वह घर पहुँचा तो बेटा घर पर न था। बीवी को तीज बुखार था। उसकी दवा लाने गया था। छोटी बेटी जो कि करीब दस साल की थी, खाना पका रही थी। अम्मा दूसरे पाटे पर बैठकर सब्जी काट रही थीं।

     ’’क्या हुआ सावित्री।’’ अपनी पत्नी को उस हालत में देखकर अन्दर का सारा प्यार उमड़ आया।

     ’’क्या बताये, पिछले तीन दिनों से काफी तीज बुखार है। उतरने का नाम ही नहीं ले रहा है। बिट्टू सामने वाले डाॅक्टर से पूछकर दवा लाने गया है।’’ अम्मा ने कहा।

     वह अपनी बीवी के बगल में बैठकर उसका हाथ पकड़ सहलाने लगा। शायद सारा प्यार ही वह उड़ेल देना चाहता था। वह उसको कैसे बता पाता कि इतना दूर रहकर वह कैसे अपने परिवार को याद करता है। शायद अपनी घुटन वह अपने शब्दों में कभी व्यक्त ही नहीं कर सकता। उसको अपने नसीब के ऊपर कोफ्त हुई। कितना मजबूर है वह। चाहकर भी वह साथ में आकर नहीं रह सकता। पति के प्यार भरे एहसास से उसकी पत्नी ने धीरे से आँखें बन्द कर लीं। उसकी आँखों से दो बड़े-बड़े आँसू पत्नी के माथे पर गिरे। उसने जल्दी से घबराहट में उनको पोंछ दिया।

     तभी उसका बेटा दवा लेकर आ गया।

     ’’आ गए बेटा..... लाओ मैं दवा पिला दूँ।’’ पर बेटा तो जैसे बाप को देखकर भड़क ही उठा।

     ’’खबरदार, जो मेरी माँ को हाथ लगाया।’’ एकदम से उसके हाथ वापस हट गए। बिट्टू दौड़ कर अपनी माँ के पास गया।

     ’’माँ ...माँ आँखें खोलो, माँ। मैं दवा ले आया हूँ, माँ...।’’

     धीरे से अपनी माँ को उठाकर उसने दवा पिला दी और उसके सिरहाने बैठ गया। उसकी पूरी कोशिश थी कि वह पिता को माँ के करीब भी न आने दे।

     वह धीरे से उठकर कपड़े बदलने चला गया। जब कपड़े बदलकर आया उसकी अम्मा ने उसके आगे चाय और नाश्ता रख दिया। बिट्टू का व्यवहार उसको अन्दर तक आहत कर गया। वह सब-कुछ तो इनके लिए ही कर रहा था। उससे बेहतर होता है जब अपने दूर रहते हैं, तो उनसे मिलने की ख्वाहिश में ही दिन कट जाते थे-एक उम्मीद रहती थी... पर यहाँ तो अपनों में ही वह अकेला था। लोग उसको बेगाना समझने लगे थे।

     अम्मा ने ही बात उठायी, ’’पिछले तीन दिन से बिट्टू अपनी माँ के पास ही बैठा है। स्कूल भी नहीं गया। माँ को भी काम पर जाने नहीं दिया। माँ का हाथ पकड़कर बार-बार यही कहता रहा- माँ तुम मत दुखी हो। मै हूँ न। इधर सावित्री तुमको काफी याद भी कर रही थी। अब तुम आ गए हो तो वह जल्दी ही ठीक हो जाएगी।’’

     उसको बेहद आत्मग्लानि का बोध हुआ। शायद चोर को भी इतना गहरा बोध नहीं होता होगा जितना कि उसको हुआ। हाँ, वह अपराधी है। अपने परिवार का अपराधी है। उनकी तकलीफों का वह अपराधी है। खाना छोड़ कर वह बीच में ही उठ गया और कमरे से बाहर आ गया।

     उसकी माँ पीछे से उसको आवाज देती रहीं-’’बेटा खाना तो खा ले, इतनी दूर से आया है। भूखा मत जा। गुस्सा मत हो।’’

     नहीं, वह गुस्सा नहीं था। वह अकेला था। बेहद अकेला। वह इन गलियों में कहीं खो जाना चाहता था। वह अपने परिवार की ठीक से देखभाल नहीं कर पा रहा था। वह गुनहगार था। उसकी आत्मा पर मानों मनों टन पत्थर पड़ गया था वह

घर से दूर जाकर उसको फेंक आना चाहता था। उसको भय था उस पत्थर को परिवार के लोग देख न लें। वह दिनभर ऐसे ही घूमता रहा। कभी-कभी अपने ऊपर क्रोध आ जाता तो सड़क पर पडे़ हुए किसी निरीह पत्थर को कस कर लात मार देता था और उल्टे खुद ही चोट खा जाता।

     अँधेरा होने पर उसे घर जाने का होश आया। शायद अन्धकार गुनाहों को काफी हद तक हल्का कर देता है। रात की कालिमा सब-कुछ अपने अन्दर समेट लेती है।

     घर पहुँचाा तो हाय-तौबा मची हुई थी। सब उसको लेकर चिन्तित हो रहे थे। माँ तो बाहर दहलीज पर ही खड़ी बेटे की लम्बी उम्र की दुआएँ पढ़ रही थीं।

     ’’कहाँ चला गया था रे! तुम्हें हमारा भी ख्याल नहीं आया।’’

     वह कहना चाहता था कि खयाल ही तो आया था माँ जो शायद कहीं नहीं गया। इतनों को बेसहारा छोड़कर वह कहाँ जा सकता था। सब उसकी जिम्मेदारी जो हैं। वह कहीं दूर बहुत दूर चले जाना चाहता था पर हिम्मत नहीं कर पाया। शायद प्राणान्त कर पाने की भी शक्ति उसमें न थी।

     बीवी की तबीयत में काफी सुधार हुआ था। उसको देखते ही उसकी आँखों में चमक आ गयी। यही चमक तो उसको अपने परिवार के पास खींच लाती थी।

     वह एक हफ्ता रहा पर उसका बेटा उसके पास एक मिनट के लिए भी नहीं आया। एक दिन वह अपने परिवार को लेकर मोल ा चला गया पर बेटा पढ़ाई का बहाना करके घर में ही रह गया। मोल े में वह अपनी पत्नी को सब-कुछ दिला देना चाहता था। बेटे के लिए भी उसने एक बाँसुरी खरीदी और एक माउथ आॅर्गन।

     जब उसकी बीवी सुबह काम पर चली जाती थी और बेटा स्कूल, तो वह सामने फोटोग्राफर की दुकान पर जाकर बैठ जाता था।

     ’’तुम अब वापस क्यों नहीं आ जाते।’’ एक दिन उसके फोटोग्राफर मित्र ने पूछा।

     ’’कैसे आऊँ! फिर वहाँ नौकरी है। अब तो मैं परमानेन्ट भी हो गया हूँ। यहाँ आकर नये सिरे से अपने को स्थापित कर पाना शायद अब संभव नहीं है। फिर तुम ही बताओ इस उम्र में मैं आकर करूँगा ही क्या?’’

     ’’हाँ ये तो है। पर अब तुम्हारा बेटा तुम्हारी कमी को काफी महसूस करता है।’’

     ’’जानता हूँ’’ वह उदास हो गया।

     फोटोग्राफर मित्र उसका मूड भाँप गया। बात पलटता हुआ बोला, ’’ बहुत ही मेधावी है। पढ़ने की तो उत्कृष्ट लालसा है। जब बिजली नहीं होती है तो पास के लैम्पपोस्ट के नीचे पढ़ता है। पढ़ाई में भी अव्वल आता है। अभी परसों ही तो पैसे माँगने आया था तो कह रहा था चाचा देखना मैं बड़े होकर अपनी माँ को यूँ सबके यहाँ काम पर नहीं जाने दूँगा। कभी-कभी तो माँ पिताजी को याद कर घण्टों रोती है। तुम सबको बहुत याद करता है। बहुत नेक लड़का है।’’

     वह सिर्फ हूँ-हाँ ही करता रहा। क्या वह चाहता था कि उसकी पत्नी काम करे? क्या वह परिवार के साथ नहीं रहना चाहता था ? वह किससे कहे।

     चलने वाले दिन बहुत सुबह ही उसकी गाड़ी थी। बेटा अभी सो ही रहा था। वह धीरे से उसके पास गया। काफी देर प्यार से उसका हाथ पकड़े खड़ा रहा। फिर हौले से उसको सहलाकार उसके पास बाँसुरी और माउथ आॅर्गन रख दिया। वह इतने हौले से जाना चाहता था कि बेटा की नींद न खुले पर शायद वह जगा हुआ था।

     उसने धीरे से आँख खोलकर पिता को जाते हुए देखा। वह भागकर उनसे लिपट जाना चाहता था। कहना चाहता था कि पिताजी हमलोगों को अकेला छोड़ मत जाओ, जिन्दगी से डर लगता है। पर नहीं, वह कमजोर नहीं पड़ेगा।

वह अब बड़ा हो गया है। और अब बहादुर भी। वह उनको नहीं रोकेगा। जाना है तो जायें। जब उन्हे हमारी परवाह नहीं तो हम क्यूँ करें।

     पिताजी के जाने के बाद उसने बाँसुरी और माउथ आॅर्गन बैग में रख लिया। वह अपने स्कूल में बच्चों को दिखाएगा कि उसके पिताजी उसको दिलाकर गये हैं। स्कूल में बच्चे अक्सर चिढ़ाते थे। वह उनके जैसा अच्छा पेन्सिल बाॅक्स या टिफिन लेकर नहीं आ पाता था। वह हमेशा अपमानित महसूस करता था। दो-चार बार तो प्रिंसिपल ने बुलाकर उसका नाम काटने की धमकी भी दी क्योंकि फीस वक्त पर जमा नहीं हो पाती थी। तब उसे कितनी घृणा होती, उस पिता से जो इन सबसे लापरवाह अपनी जिन्दगी में खोए हैं। तब माँ से ही पैसा लेकर फीस चुकानी पड़ती थी। अक्सर माँ को कहा भी कि वह किसी दूसरे स्कूल में पढ़ लेगा पर माँ कभी मानने के लिए तैयार न हुई।

     ’’बेटा मेरा एक ही सपना है कि तू बहुत बड़ा आदमी बने। तेरी ऊचाईयाँ मेरी अपनी जिन्दगी के नीचेपन को ढक देंगी। मैं उनको पाकर अपना समस्त दुख-दर्द भूल जाऊँगी।’’

     और वह दोस्तों के सारे अपमान भूल, मेहनत करने में लग जाता। एक दिन वह माँ को वह स्थान देगा जहाँ लोग उसकी माँ की तरफ सम्मान से देखें।

     वक्त बीतने पर एक दिन अचानक माँ दर्द से तड़पती रही। माँ का कष्ट देखकर उसको अपने पिता के ऊपर बेहद क्रोध आ रहा था। माँ को क्या कष्ट है यह उसकी दादी उसको बता भी नहीं रही थी। माँ काम पर भी नहीं गयी थी। न माँ चिन्तित दिख रही थी और न ही उसकी दादी। वह बार-बार बोला कि मैं डाॅक्टर को ले आता हूँ। पर उसकी दादी ने डाँटकर भगा दिया। वह फोटोग्राफर चाचा के यहाँ गया। वही जानते होंगे कि माँ को क्या हुआ। वह काफी देर उसको बहलाते रहे फिर बोले तुमको भाई आनेवाला है। तभी मुनिया ने आकर खबर दी।

     ’’भइया दादी बुला रही हैं। बहन आयी है।’’ उसने चाचा की तरफ देखा। चाचा कितना झूठ बोलते हैं। अभी तो बोल रहे थे कि भाई आने वाला है पर यहाँ तो बहन है। उसे अपनी बहन से नफरत हो गयी। उसकी तो सिर्फ एक ही बहन है मुनिया, बाकी कोई नहीं। वह मुनिया का हाथ पकड़कर माँ के पास भागा।

     माँ आराम कर रही थी। अब उसको इतनी तकलीफ नहीं थी। उसकी बगल में एक छोटी-सी बच्ची लेटी हुई थी। दादी और माँ दोनों ही खुश नहीं थी।

     दादी बोलीं, ’’ उसको फोन करवा दिया है। वह आकर भी क्या करेगा। कौन-सा बेटा जना है तूने जो वह भागा-भागा आये। अरे जब औलाद करनी ही थी तो जान के करती कि बेटा हो।’’

     माँ चुपचाप आँखें बंद किए सुने जा रही थी। आखिर उससे कोई भारी गलती तो हुई ही है। क्यों लेकर आयी वह एक और बहन को ? वह उसको नहीं रखेगा। पर माँ ने उसे अपने पास सुलाया, ’’देख बिट्टू गुड़िया, तुम्हारे और मुनिया के खेलने के लिए। इसको प्यार करेगा न ? ’’और वह चाहकर भी कुछ न कर पाया। उसके पिता न आये यह बात उसको बेहद अखरी। शायद अपने पिता की कमी के अहसास को वह कहीं गहरे तक और काफी शिद्दत से महसूस करता था। असमय ही वह बहुत बड़ा हो गया था। जिन्दगी बहुत तीज रफ्तार से भागती गई और जैसे-जैसे वह भाग रही थी दूरियाँ भी बढ़ती चली गयीं।

     बिट्टू अब बड़ा हो गया था। मेहनती और मेधावी तो था ही किस्मत ने भी साथ दिया।

     ’’माँ देखो मुझे कलकत्ता में नौकरी मिल गई है।’’

     ’’बहुत अच्छा बेटा!’’ वह माँ के चेहरे पर असीम खुशी देखना चाहता था।

     ’’माँ मुझे दिवाली से पहले वहाँ ज्वाइन करना है। कम्पनी की तरफ से फ्लैट मिलेगा। अब तुम्हें काम करने की जरूरत नहीं पड़ेगी। तुम मेरे साथ चलकर रहोगी।’’

     जो शब्द सावित्री अपने पति के मुँह से सुनना चाहती थी आज उसका बेटा कह रहा था। बेटे के घर में जाकर रहने का सपना शायद सावित्री ने कभी देखा ही नहीं था। वह तो हमेशा से यही चाहती थी कि उसका पति एक बार ही सही उसे, उसके अपने घर में ले जाये। उन की गृहस्थी हो। वह अपने विचारों को बुनती जा रही थी और बिट्टू बोले जा रहा था।

     ’’माँ तैयारी कर लो हमें जल्दी ही चलना होगा। ’’

     पर बेटा मेरा काम...।’’ वह बहुत कुछ बेटे को बोलना चाहती थी। आज उसके लिए सबसे खुशी का दिन था। उसका एकलौता बेटा जिन्दगी में एक मुकाम पर पहुँच गया था। एक मुकाम जिसके लिए उसने और बेटे ने जीतोड़ मेहनत की थी। शायद उस मुकाम पर पहुँचकर भी वह अकेली थी। उसका साथ देने वाला साथी बेखबर दूर उनके लिए सिर्फ पैसे मात्र भेज रहा था। वह भी पूरे घर की जरूरत को पूरा नहीं कर पाते थे। उसे घर से बाहर जाकर दूसरों के घरों का चैका-बरतन करके घर को चलाना पड़ता था।

     एक बेटी की शादी उसने अपने बलबूते पर की। नहीं, सहसा उसे अहसास हुआ कि वास्तव में वह थक गयी थी। वह अब और नहीं सह सकती। अब और मेहनत नहीं कर सकती। शरीर के साथ-साथ उसका मन भी टूट गया था। वह जायेगी, बिट्टू के साथ जायेगी और जिन्दगी का नया सपना बुनेगी। वह अपनी जिन्दगी से ऊब गयी थी। शायद वह था तो उसका पति पर क्या...नहीं...हाँ... उसको उससे कोई प्यार नहीं था। पर नफरत भी नहीं थी। ’’बिट्टू पिता को खबर कर देना हम जा रहे हैं।’’

     बिट्टू ने सुनकर भी अनसुनी कर दी। नयी जिन्दगी की शुरूआत में उनकी क्या जरूरत थी।

     उसको स्टेशन पर पहुँचाने वाली ट्रेन अब रफ्तार पकड़ स्टेशन को छोड़ रही थी। ट्रेन के रूकते ही जो कोलाहल था अब धीरे-धीरे थम रहा था। सभी यात्री अपने गंतव्य के लिए बढ़ चले थे। वही शायद अकेला रह गया था।

     उसको एक आदमी ने हिलाया। ’’लो बाबा खाना खा लो।’’

     वह वाकई भूखा था। आँखों से जिन्दगी की चमक जाती रही थी। बढ़ी हुई दाढ़ी, मैले-कुचैले कपड़े। खाना लेकर वह धीरे-धीरे खाने लगा। भूख की क्षुधा की वह धीरे-धीरे शान्त करना चाहता था।

     कोई अमीर, भिखमंगो को खाना बाँटकर पुण्य कमा लेना चाहता था।

     पेट की आग शान्त कर वह उठा। उसकी ट्रेन जा चुकी थी। निगाहों से ओझल हो गयी थी। उसी पटरी पर दूसरी ट्रेन आने वाली थी। उससे फिर कुछ अनजान चेहरे उतरेंगे, अनजान चढ़ेंगे। यह सिलसिला तो चलता ही रहेगा, अनवरत।

     घर पहुँचा तो बड़ा सा ताला लटका हुआ था।

     वह भागा-भागा फोटोग्राफर दोस्त के पास पहुँचा। शायद इतनी तीजी से वह पिछले कई दिनों में नहीं भागा था।

     ’’कहाँ गये सब ?’’

     ’’अरे तुम्हें नहीं पता ? सब तो कलकत्ता चले गये।’’

     ’’चले गये....।’’

     ’’मुझे छोड़कर.....क्यों ?’’

     और वह चेहरे को ढाँपकर सिसकियाँ ले रोने लगा।

     ’’अच्छा उठो! रो नहीं... मुझे बिट्टू पता देकर गया है। मैं ढूँढता हूँ।’’

     वह सिर पकड़े बैठा रहा और रोता रहा। फोटोग्राफर दोस्त ने अलमारी से पुराना एलबम निकाला। ’’यह देखो तुम्हारे परिवार का फोटो।’’

     वह उसको लेकर घूर-घूरकर देखता रहा। हाँ उसका पूरा परिवार फ्रेम के अन्दर कैद था। वह फिर सिसक पड़ा।

     बड़ी मुश्किल से बिट्टू का पता मिला। एक दराज में मुड़ा-तुड़ा पड़ा हुआ था।

     ’’लो तुम्हारे बेटे का पता मिल गया।’’

     उसने ऐसे झपट के पकड़ा जैसे कोई खजाना मिल गया था।

     ’’दोस्त एक मदद और कर दो।’’

     ’’बोलो!’’

     ’’यह मेरे ऊपर तुम्हारा उपकार रहेगा।’’ बुझी हुई आवाज में बोला। आवाज भी एक गहरे कुएँ से आती प्रतीत हो रही थी।

     ’’उपकार, अरे दोस्त बोलते हो और उपकार की बात करते हो। बोलो मैं तुम्हारे किस काम आ सकूँ।’’

     ’’बस कलकत्ता का टिकट कटा दो और दो-तीन सौ रूपये दे दो। पचास-सौ रूपए मेरी जेब में हैं। मैं अपने बेटा और बीबी को ढूँढने जाऊँगा। बेटे को समझाऊँगा कि उड़ीसा में मैं खुश नहीं था। मैं भी अकेला था। इन्हीं लोगों के लिए मेहनत कर रहा था। यहाँ तो पूरा परिवार साथ था दुख-दर्द बाँटने के लिए, वहाँ तो मैं बिल्कुल अकेला था।’’ उसकी आँखे शून्य में कुछ खोजने लगीं। आवाज भर्रा गयी। अकेलेपन की त्रासदी और अपनों से बिछुड़ने का गम उसकी आवाज में स्पष्ट आ गया।

     ’’और अगर वे न मिले तो...।’’ दोस्त नहीं चाहते हुए भी पूछ बैठा।

     वह काफी देर तक फोटो को देखता रहा फिर बोला,’’मैं वापस उड़ीसा चला जाऊँगा। मेरी नौकरी है।-एक छोटी-सी चाल है। रामू मेरा पुराना साथी जिसके साथ मैं शुरू से रहता हूँ। उसी के पास चला जाऊँगा। और कौन है मेरा।’’ और बात करते-करते वह खो गया।

     स्टेशन पर काफी भीड़ थी। अनजान चेहरे अनजान जिन्दगियाँ, अनजान मुलाकातें। इन सबके बीच वह दुबककर बैठ गया। ऐसे भी उसको अपने आप पर और अपने कपड़ों पर शर्म आ रही थी। टिकट को उसने कसके पकड़ा हुआ था। एक उड़ती-उड़ती निगाह उसने शहर की तरफ डाली। उचाट-सी निगाह में खामोशी और उदासी थी। अचानक आँसू ढलके मानो उसके अन्तर्मन के दुख को बहा ले जाना चाहते थे, पर अन्दर की पीड़ा को उसने बड़े हुनर से सहेजकर समेट लिया।

     वह यह शहर हमेशा के लिए छोड़कर जा रहा था। यहाँ का घर अब उसके पीछे छूट गया था। शहर से क्या मोह जब कोई अपना वहाँ न हो। वह जरूर अपनी बीवी को खोजेगा। उसको समझाएगा। अपने साथ लेकर आयेगा।

     ट्रेन ने सीटी दी। उसका अतीत पीछे छूटता जा रहा था। ट्रेन धीरे-धीरे आगे बढ़ती जा रही थी। कल फिर यहाँ से यही ट्रेन गुजरेगी पर वह न होगा।

     ट्रेन मजार के सामने से गुजरी। फकीर बैठा गा रहा था-

     ’’तमाम उम्र ही बीती खाक छानने में, दुख तो तब हुआ जब खाक भी न मिली।’’

     उसकी आँखों से बड़े-बड़े आँसू ढुलक आए। वह उस जज्बात को न थाम पाया। लोग पीछे छूटते गये। शहर पीछे छूटता गया। जिन्दगी ही थी जो अपनी रफ्तार से आगे बढ़ती गयी। वक्त बीतता गया और थके-हारे इंसान की तरह वह हताश उसे अपने हाथ से फिसलते हुए महसूस करता गया। मानो कहीं चुपके से उसका हाथ खाली हो रहा था और एक मुट्ठी रेत उसमें से सरककर कहीं दूर, बहुत दूर गिरकर अनन्त में विलीन हो गयी थी।

समाप्त

हँसी

     सुबह-सुबह विद्यालय में विद्यार्थी असेंबली में हिस्सा ले रहे थे। नये जमाने के बच्चे थे, नये जमाने की तहजीब सीखते-सीखते वह एक नये रंग में रँग गये थे। पूरी की पूरी सभा में किस्म-किस्म के बच्चे और सामने स्टेज पर एक अजीबोगरीब शारीरिक प्रशिक्षक जो बच्चों को हँसने का प्रशिक्षण दे रहे थे।

     ’’और जोर से मुँह खोलो, मुँह को गोल-गोल करेा, अब होंठ को पूरा कान तक खींचने का अभ्यास करो और पिक, अब हँसी निकली की तब...’’

     सारे बच्चे सुबह-सुबह योगाभ्यास में हँसने का प्रयास कर रहे थे। हँसी को उनकी जिन्दगी का एक अहम् हिस्सा बनाने का प्रयास किया जा रहा था।

     तभी पीछे से एक शिक्षक ने आकर एक बच्चे को धौल जमायी, ’’क्या तुम हँसना भी भूल गये हो ? या तुम्हें हँसना आता ही नहीं है। अरे, कुछ हँसी की घटना याद करके हँसने की कोशिश करो। तुम सब भी कितना बुड़बक हो कि हँसना तक नहीं जानता। अरे चलना सीख लिया, बोलना सीख लिया, और तो और झूठ बोलना सीख लिया, पर हँसना, क्या अब हँसन भी सिखाना पड़ेगा।’’ जोर का एक धौल पीठ पर जमाकर वह शिक्षक आगे बढ़ गया। उस अबोध बालक ने अपने दिमाग पर जोर डालना शुरू किया। हाँ वह हँसता था और मुस्कराता भी तो था पर.... कैसे और कब... यह उसको ठीक-ठीक याद नहीं आ रहा। शायद जब तक माँ का आँचल उसके सिर पर था, तब तक अपना खिलखिलाना उसको याद है। पर माँ के जाने के बाद एकाध बार सूनी आँखों से उसने पिता का मन टटोलने की कोशिश की थी पर पिता की कठोर आँखें उसका उत्साह शून्य कर गई। अब एक नया मंथन उस बालक के मन को मथने लगा। हँसने के नाम पर उसकी आँखें

डबडबा गई। नीर से भरा हुआ मेघ सहज फटने के लिए तैयार हो गया। उस नीर से भरे काले बादल को फटने के लिए किसी प्रलोभन या मनोयोग की जरूरत नहीं होती। वह तो बस अनायास उस बालक के नयनों से बरस पड़ता है।

     माँ, नानी के यहाँ गई है। इतना उसको पता था। स्कूल में एकाध बार माँ ने फोन करने की कोशिश की थी। इन्चार्ज मेम ने उसको अपने चेम्बर में बुलकार माँ से बात भी करायी थी।

     ’’बेटा, तुम्हारी माँ का फोन है। बात कर लो।’’ और आँखों के कोरों से गिरते हुए पानी को हाथ से पोंछकर उसने फोन का चोंगा अपने हाथ में पकड़ लिया।

     ’’माँ, तुम कब आओगी। तुम्हारी बहुत याद आ रही है।’’

     उधर से कुछ वार्तालाप हुआ और सन्नी ने कस के फोन के तार को हिलाया।

     ’’नहीं माँ, दीदी चाची के पास है। हाँ, पापा दीदी को वहीं छोड़ आये थे।’’ फिर उधर से कुछ संवाद हुआ।

     ’’माँ, पापा मुझे बहुत डाँटते हैं। आज तो टिफिन भी नहीं दिया। और बोर्डिंग में भेजने की बात कर रहे हैं। तुम कब आओगी ? माँ कब आओगी, जल्दी आ जाओ।’’ माँ से जल्दी आने का आश्वासन पाकर उसने फोन रख दिया। फोन के कटने के साथ ही वह समझ गया कि वह आवाज जो उसकी माँ की थी और काले बदनुमा फोन के चोंगे से आ रही थी, शायद अब हमेशा के लिए खामोश हो गयी है। उसने पापा को दादी से कहते सुना था कि ’इस औरत को जो गलती से उसकी पत्नी है, को तो मैं सबक सिखाकर ही रहूँगा। बहुत बनती है। औरतों को ऐसा रूप मन को नहीं भाता। बहुत गरूर है उसको अपने रूप पर। धूल न चटा दी तो देखना, जाये अपने मायके और रहे।’ और दादी को उसने जोर से ठठाकर हँसते देखा था। वही विद्रूप हँसी। ’नहीं वह ऐसे नहीं हँस सकता’ उसकी माँ उससे दूर हो गयी थी और दादी हैं कि हँस रही हैं। ’क्या लोगों को इन्हीं बातों पर हँसी आती है।’

अब उसकी पौटी कौन धुलायेगा, उसे गर्म-गर्म खाना कौन खिलायेगा ? दादी से एक बार पौटी धुलाने के लिए कहा था तो उन्होंने कैसे झिड़क दिया था, फिर दीदी को मदद करनी पड़ी थी। अब तो दीदी को भी पापा ने चाची के यहाँ भेज दिया है। अब क्या होगा! ये सोचकर उसको रूलाई आने लगी थी। दादी उसका रोना देखकर भी हँसती हैं। उसने छुप-छुपकर दादी को तैयार होते देखा है। इस उम्र में बाल सबके सब सफेद हो गये हैं पर देखों कैसे मेंहदी लगाकर घूमती हैं। सबके बीच में ऐसे बैठती हैं और जरा भी शर्म नहीं आती क्या ? माँ का तो हाथों में मेंहदी लगाना भी उन्हें पसंद नहीं था। वह कैसे माँ को डाँटती-फटकारती रहती थीं। गर्म-गर्म चिमटा से उसने दादी को माँ को पीठ जलाते हुए देखा था।

     ’’अरे कलमुँही, हाथों में मेंहदी लगाने का ऐसा ही शौक था तो अपने साथ एक दाई लेती आती। खुद महारानी-सी बनी बैठी रहती हो और मैं क्या तुम्हारी नौकरानी हूँ जो दिनभर काम करती रहूँ। तुम्हारा तो दिनभर श्रृंगार-पिटार में वक्त बीतता है, काम कौन करेगा, तुम्हारा बाप।’’ और उसकी दादी ने कस के माँ को पीठ पर जलता चिमटा दाग दिया। उस दिन माँ खूब रोई थी और दादी खूब हँसी थीं। माँ के आँसू पोंछता हुआ वह भी उसके पहलू में बैठ खूब रोया था।

     ’’हाँ उसको दादी की हँसी अभी तक याद है। उसमें खुब खनखनाहट थी और वह खनखनाहट उसके मन के अन्दर, कहीं बहुत अन्दर बस गयी थी और इसी खनखनाहट में उसकी स्वयं की हँसी कहीं गहरे तक दफन हो गयी थी। माँ एक दिन उसको और सबको छोड़कर नाना के यहाँ भाग गई थी। अब तो उसको होमवर्क कराने वाला भी कोई नहीं था। माँ के जाने के काफी दिनों तक तो उसके पापा ने उसको स्कूल नहीं भेजा था।

     फिर जब स्कूल से शिकायत गई तो पापा ने किसी तरह भेजना शुरू किया और अभी स्कूल गये हुए मात्र दो दिन भी नहीं बीते थे कि दूसरे दिन ही कक्षा में टीचर ने उसको अपने पास बुलाया। ’’सन्नी!’’

     ’’जी मैडम!’’

     और मैडम ने कापी उठाकर पूरी कक्षा को दिखाते हुए कहा, ’’क्यों सन्नी ये क्या है ?’’

     और कापी में बना फोटो देखकर पूरी कक्षा में एक सम्मिलित हँसी का स्वर गूँजा। टीचर ने लाल घेरे से उसकी माँ की ड्राइंग को घेरा हुआ था।

     ’’क्यों सन्नी ये तुम्हें क्या होता जा रहा है! तुम कितने बढ़िया बच्चे हुआ करते थे। आजकल तुम्हारा दिमाग कहाँ रहता है ? ड्राइंग में। चित्र बना-बनाकर, क्या पिकासो बनना है ?’’

     उसकी शर्ट के टूटे बटन में अपना पेन घुसाते हुए बोलीं, ’’तुम्हारी माँ क्या तुम्हारा ध्यान नहीं रखतीं। अरे इस फटीचर हालत में स्कूल आने से तो स्कूल न आना अच्छा है। कल अपनी माँ को बोलना कि आकर मिलेंगी।’’ और टीचर के इस वक्तव्य के बाद वह पूरी कक्षा की हँसी का पात्र हो गया। सबकी हँसी उसके कान में काफी देर तक गँूजती रही। और वह अपमानित-सा एक कोने में मुँह लटकाये बैठा रहा।

     हाँ, वह महसूस कर रहा था सबकी निगाहों को और सबकी हँसी को। सब खिलखिलाकर हँस रहे थे पर उसकी हँसी गायब थी। उल्टे उसको रोना आ रहा था और साथ में माँ की याद भी। वह मन-ही-मन बुदबुदाया, ’’ माँ तुम कहाँ हो ? आओगी नहीं क्या ?’’ और हँसी के बीच उसकी गर्दन शर्म से झुक गई। कक्षा में मानो सहसा वह उपेक्षित और अकेला पड़ गया था। और सिर झुकाये हुए भी उसको महसूस हो रहा था कि सबकी आँखें उसके ऊपर ही टिकी हैं।

और सबकी हँसी का एक सम्मिलित स्वर उसके कानों में खिलखिलाहट बन गूँज रहा था। सब हँस रहे थे और वह सुबक रहा था।

     तभी एक चपरासी ने आकर कक्षा में टीचर को उसके नाम की पर्ची पकड़ायी।

     ’’सन्नी!’’

     ’’ जी मैडम!’’ आँसुओं को अंदर रोकते हुए सन्नी बोला।

     ’’तुम्हे प्रिंसिपल मैडम बुला रही हैं।’’

     आँखों के ही माध्यम से उसने मौन प्रश्न पूछा ’क्यों’ पर टीचर को निरूत्तर पा हतोत्साहित हो गया।

     ’’अरे, इतने महीने से फीस नहीं जमा होगी तो क्या तुम्हारा स्कूल आना उचित है।’’

     सभी बच्चों की आँखो में उपहास का भाव झलक उठा। वह बिना पीछे मुड़े चपरासी का पीछा करते हुए प्रिंसिपल के कमरे की तरफ बढ़ गया। शुक्र है कि आँखें पीछे नहीं देख सकतीं क्योंकि वह हँसते और मुस्कराते हुए चेहरों से हर पल अपने को बचाना चाहता था। पर मुए ये कान हैं कि सब-कुछ सुन लेते हैं। और बच्चों का मखौल उससे छुपा न था। फीस के लिए उसको दो-तीन बार पहले भी टोका जा चुका था पर आज नौबत नाम काटने तक आ गई थी। और उससे चिढ़ने वाले बच्चों की तो बात बन आई थी।

     आॅफिस में प्रिंसिपल की कुर्सी के पास पहुँचकर उसकी निगाहें नीची हो गई। वह प्रिंसिपल को मन-ही-मन चाहता था। उसको मैडम का उठना, बैठना, तैयार होना बहुत ही भाता था और उनकी मुस्कराहट में उसको अपनी माँ नजर आती थी। माँ जैसी हँसी, माँ की तरह खिलखिलाहट।

     जब से माँ उसको छोड़कर गई है तब से उसकी हँसी पूरी की पूरी गायब हो गई है।

     प्रिंसिपल के चेम्बर में उसके पिता भी मौजूद थे। एक भारी-भरकम शख्सियत, एक कठोर व्यक्तित्व। उसको वहाँ से भागने का मन कर रहा था। पिता की नजदीकी एक भय पैदा कर रही थी। उनकी समीपता से तो कक्षा के बच्चों की हँसी झेलना ज्यादा आसान था। वहाँ कम-से-कम अपनत्व तो था। पिता को तो उसने प्रिंसिपल को कहते सुना, ’’बस कुछ ही दिन के अन्दर मैं इसको बोर्डिंग में भेजने वाला हूँ। सोचिए ऐसी पत्नी से पाला पड़ा जो इतने छोटे बच्चों को छोड़कर बार-बार भाग जाती है।’’

     मैडम की आँखों में एक उत्सुकता कौंधी और फिर दब गयी। ऐसे भी दूसरों का झगड़ा हमेशा कौतूहल का विषय रहता है। फिर उसकी माँ तो स्कूल आकर खूब तमाशा कर चुकी थी। हर एक शख्स से पिता की शिकायत करते हुए उसने माँ को खुद सुना था।

     एक बार तो पापा ने रात में माँ को खूब मारा था और दूसरे दिन माँ रोती-पीटती हुई उसके स्कूल चली आयी थी। और सबको अपने तन पर लगी हुई चोट पीठ और जाँघ पर से साड़ी उघाड़-उघाड़कर दिखा रही थी।

     उसके जाने के बाद स्कूल का सभी स्टाफ खूब कस-कस के उसका और उसकी माँ का नाम ले-लेकर हँस रहा था। कोई नहीं जानता कि रात में उसने माँ को पिटते देखा था और रातभर वह माँ से चिपककर उसके आँसू पोंछता रहा था। नहीं, वह अब नहीं रोयेगा। उसको तो माँ का सहारा बनना था। और सिसकी उसके हलक में ही अटक गई। बीच रात में एक बार जोर से माँ को दर्द हुआ, उसकी कराह निकली थी पर उसने माँ को अपने में भींच लिया था। हौले-हौले वह माँ के दर्द को महसूस कर रहा था और हर अहसास के साथ उसकी अपनी खुशी और हँसी का दायरा सिमटता जा रहा था और अगले सुबह तक तो उसकी हँसी पूर्णतः समाप्त हो चुकी थी। उसके बाद वह हँसना भूल सा गया था। कुछ ही दिन

बाद माँ घर छोड नानी के यहाँ चली गयी थी, ..... और सन्नी को दीदी के पास अकेला छोड़कर गई थी। जाते-जाते बस एक ही वाक्य बोल गई थी। ’’सन्नी का ध्यान रखना।

     एक रात में सन्नी मानो जवान हो गया था। उसने हठ करना छोड़ दिया। अपने हाथ से खाना खाने लगा था, और तो और अब तो पौटी भी स्वयं ही धोता था।

     कुछ ही दिन के बाद पापा ने दीदी को भी चाची के पास भेज दिया था। और अब तो वह सिमटकर झाग वाले पानी का बुलबुला हो गया था, उसका दर्द कभी भी फट सकता है। विडंबना ऐसी कि हर क्षण उस बुलबुले की परिधि बढ़ती ही जा रही थी, पर दर्द था कि फटने का नाम ही नहीं ले रहा था।

     ’’हाँ बताइये ना, आप भी तो औरत हैं, क्या कोई भी औरत अपने रोते-बिलखते बच्चों को ऐसे ही छोड़कर चली जाती है! अरे बड़ी ही बदचलन आवारा औरत है। पता नहीं किस घड़ी में ईश्वर ने उसका-हमारा साथ किया।’’ और इस वाक्य पर तो सन्नी की निगाह शर्म से झुक गई। वह बदचलन आवारा शब्दों को नहीं पहचानता था पर पापा, माँ को भद्दी गालियाँ दे रहे हैं इसका उसको अच्छे से अहसास हो रहा था।

     ’’अब आप ही बतलाइये कि इन बच्चों की परवरिश तो मेरा ही सिरदर्द है न। अब जैसे भी पालें पर पालना तो है ही।’’ सन्नी को ऐसा लगा मानो, टनों पत्थर उसके कंधे पर किसी ने लाद दिया है। एक बार उसका मन किया कि प्रतिकार करे पर हिम्मत न हुई। अभी वह ऊहापोह की स्थिति से उबरने का प्रयास कर ही रहा था कि उसे नीचे कुछ गीला-गीला सा महसूस हुआ। अरे, ये क्या उसने तो पैंट ही गीली कर दी थी। शर्म के मारे वह और भी धरती में गड़-सा गया। वह आँखें झुकाये खड़ा ही रहा और उसकी तन्द्रा तब भंग हुई जब प्रिंसिपल मैडम बाहर से आया को बुलाने के लिए घन्टी पर घन्टी बजा रही थी।

     ’’कितना असंस्कारी लड़का है। इतना बड़ा हो गया पर अभी तक बाथरूम मैनर्स न आया।’’ फिर आया को उसे बाहर ले जाने के लिए बोलकर मैडम सन्नी के पापा की तरफ मुखाबित हुई, ’’सच में, मैं आपकी दिक्कत समझती हूँ। बोर्डिंग छोड़ और कोई उपाय नहीं है।’’

     और उसके कानों में आया की हँसी पड़ी, ’’क्या सन्नी, बाथरूम आये तो कम-से-कम बताया तो करो !’’ उसकी आवाज गा-गाकर इन शब्दों को चबा-चबाकर ऐसे बोल रही थी कि परिहास का अहसास उसको अच्छे से हो रहा था। आया का उसके हाथ पर इतना जोर था कि उसे एकबारगी लगा कि हाथ टूट जायेगा। वह भी कितना बुद्धू है कि उसने पैन्ट में ही पेशाब कर दी पर उसे पता क्यूँ नहीं चला ? शायद वह प्रिंसिपल मेम को देख घबरा गया था। या फिर अपने पिता के क्रोध का उसको स्मरण आ गया, माँ की तो वह खूब पिटाई करते थे। अब घर जाकर वह भी अच्छे से पिटेगा। पैंट की बेल्ट खोलकर पापा अच्छे से उसको मारेंगे।

     उसको मैडम ने उस दिन पापा के साथ ही घर भेज दिया! रास्तेभर पापा की वह झिड़की सुनते गया था।

     और दूसरे दिन से प्रातः विद्यालय में हँसी सिखाने का अभ्यास हो रहा था। सभी खिलखिलाकर हँस रहे थे। उसको ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो सब उसको ही देखकर हँसना सीख रहे हों। वह वहीं पर किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया। उसको पता ही न चला कि कब हँसी का दौर खत्म हुआ और कब राष्ट्रगान की समाप्ति पर पूरा स्कूल हरकत में आ गया।

     अभी वह मनहूस शक्ल बनाता हुआ बैग उठा ही रहा था कि पीछे से बच्चों का एक रेला आगे बढ़ा और उसके ऊपर दबाव पड़ा। इससे पहले कि वह सँभल पाता वह लड़खड़ाया और गिर पड़ा। अभी तक जिस हँसी को लाने के लिए पूरे स्कूल में अभ्यास कराया जा रहा था वही हँसी का समवेत स्वर गूँजा और वह हताश-सा जमीन पर गिरा पड़ा रहा।

     अभी तक जो टीचर उसे हँसने के लिए प्रेरित कर रही थी वही अब उसके ऊपर हँस रही थी। वह काफी देर तक तो झेंपता रहा और उठने में भी उसे दिक्कत हुई। काफी बच्चे उससे आगे निकल गये।

     वह धूल-धूसरित जमीन पर पड़ा रहा और पता नहीं अचानक उसमें कहाँ से शक्ति आ गई या फिर माँ का अदृश्य रूप उसकी आँखों में कौंधा और वह धूल को शरीर से झाड़ता हुआ खड़ा हो गया। गिरी हुई कापियाँ उसने बैग के अन्दर डालीं और बिजली की फुर्ती से उठकर खड़ा हो गया। आँखों में उठते हुए नीर को हाथ से पोंछा और पता नहीं किस प्रेरणावश वह जोर से अट्टाहास करने लगा। उसकी हँसी स्वर्ण-रश्मि बन चारों तरफ छितरा गई। उसकी जोरदार हँसी का ऐसा प्रभाव पड़ा कि कौंधती हुई हँसी चारों तरफ छा गई। वह हँसे जा रहा था और पूरे मैदान के बच्चे शान्त खड़े उसे सुन रहे थे। प्रशिक्षक जो अभी तक सबको हँसने की प्रेरणा दे रहे थे उसकी हँसी सुन स्वयं विस्मित थे।

     सही भी है, शायद सन्नी इतनी छोटी उम्र में भी सीख गया था कि जब तक मनुष्य समाज पर हँसना नहीं सीखता तब तक समाज उसकी हँसी उड़ाता है।

     उसकी अन्तरात्मा उसे प्रेरित कर रही थी कि हँसो-हँसो, और हँसो और उसकी हँसी का दौर थम ही नहीं रहा था।

     पर प्रशिक्षक विस्मित था, कहीं कोई बच्चा ऐसी हँसी भी हँसता है। जरूर पागल हो गया है।

     पागलपन दुख की ही पराकाष्ठा है।

समाप्त

टुकड़ों-टुकड़ों में औरत का.....

     हवा तीजी से चल रही थी। वैसे भी हवाएँ तीजी से चलती हैं तो बवंडर आते हैं। दूर से ही रेगिस्तान में गुबार उठते हुए आ रहे थे। रह-रहकर वे तपती धरती को ढक जाते। और जब मौसम साफ होता तो एक धूल मिश्रित खामोशी सब तरफ छिटक जाती। ऐसी ही एक शाम बसंती अपनी कुयिा के बाहर बैठी थी और खाली बर्तनों को इधर से उधर घुमा रही थी। हवा के झोकों और बर्तनों की टनटनाहट का स्वर उस उदास शाम को एक संगीत का रूप दिए जा रहे थे। बसंती अपनी जगह से उठकर उस स्थान पर गई जहाँ उसकी एकमात्र फटी-पुरानी साड़ी फैली हुई थी। हवा का तीज बहाव आने के पहले वह उसको समेटकर अन्दर रख देना चाहती थी।

     और ये क्या! पता नहीं कहाँ से हवा का एक तीज झोंका आया और उसका वस्त्र हवा के साथ उड़ता चला जा रहा था और वह उसके पीछे-पीछे भागी चली जा रही थी। वह भागकर साड़ी को पकड़ना चाहती थी। और पकड़ भी लिया था पर उसका पैर एक पत्थर पर पड़ा, वह गिरी और साड़ी का जो कोना उसके हाथ में था वह छूट गया। वह बदरंग-सी साड़ी अपनी पूरी विदू्रपता से मुँह चिढ़ाते हुए हवा के झोंकों के साथ अनन्त में विलीन हो गयी।

     वह काफी देर तक बैठकर अपनी विलोप होती साड़ी को देखती रही। शायद उसको साड़ी के उड़ जाने का इतना दुख नहीं था। वह फटी-पुरानी साड़ी भला कौन-सा तन ढ़क पाती थी। अच्छा हुआ उड़ गयी। उसे नई साड़ी पहनने का नसीब प्राप्त होगा। कैसे प्राप्त होगा? उसी सोच में डूब गई। हवाएँ अभी भी पूरे वेग से चल रही थीं। उनका वेग थर्रा देने वाला था। पर वह इन सबसे बेखबर

अपनी ही चिन्ता में डूबी हुई थी। पीछे अभी भी खाली बर्तन टनटना रहे थे। उसके बच्चे इन सबसे बेखबर अन्दर सो रहे थे।

     उसकी चिन्ता काली रात से भी अधिक स्याह थी। वह उसी में आकण्ठ डूबी काली स्याह रात के आगमन से बेखबर थी। खबर तो तब हुई जब अन्धकार पूर्णरूपेण अपना पैर धरा पर पसार चुका था। चारों तरफ स्तब्धता फैल चुकी थी। वह सोच-सोचकर हताशा के भँवर में फँस ही जाती अगर दूर क्षितिज पर आशा की पहली किरण के आगमन का उसको अहसास न हुआ होता।

     हाँ उसने सुन रखा था कि दूर देश के पहाड़ों के उस पार बढ़िया और अच्छी साड़िया बिकती हैं। शायद उसकी साड़ी भी वहीं कहीं उड़कर चली गयी हो। वह उसको भी ढूँढेगी और उस देश से नयी साड़ियाँ भी खरीद ले आयेगी। उसके जो अधनंगे बच्चे हैं, उनके तन को ढकने के लिए भी कपड़े मिलते हैं। ऐसा उसने सुन रखा था। भोर होने को थी। वह उनींदी आँखों से अपने बच्चों को देखकर दूर देश की पहाड़ियों की ओर चल पड़ी जहाँ कई किस्म के सुन्दर वस्त्र थे। इन रंगीन कल्पनाओं से तो उसने तत्काल अपने मन को सुख पहुँचाया परन्तु उसकी कल्पनाएँ साकार कैसे होंगी ? कारण रूपयों का अभाव था।

     अर्थाभाव का अहसास होते ही उसकी कल्पनाओं का महल क्षण में ढह जाता था और वह निराश और उदास हो जाती थी। वह नदी-नाले को पार करती हुई एक शहर में आ गयी।

     यह शहर बहुत ही अजीब था। क्रमबद्ध तरीके से इमारत खड़ी थीं। इमारतों की क्रमबद्धता कौतूहल और भय पैदा करती थी। साफ-सुथरी चमचमाती सड़कें थीं, उसने ऐसी सड़कें अपने जीवन में कभी नहीं देखी थीं। उसके गाँव में तो सड़क का नामोनिशान भी न था और जो पगडंडी थी वे भी वहाँ आते और जाते हुए भँवर के इशारों पर बनतीऔर बिगड़ती रहती थी। वह सीधी चमकदार सड़क

पर चलती गई। उसका मन भयाक्रांत था। ऐसे अनजान शहर में उसको दिशानिर्देश देने वाला कोई नहीं था। एक इमारत से दो लोगों को निकलते देखकर उसने थोड़ी राहत की साँस ली। पर जो लोग बाहर निकले थे वे तो तन पर वस्त्र ही नहीं डाले हुए थें। एक अजीब प्रकार की जालीदार पोशाक उन्होंने पहन रखी थी। उनके पास जाने से भी वह सिहर उठी। उन्हें देखकर उसे ऐसा प्रतीत हुआ मानो सीमेंट की इमारतों में लोहे के लोग बसते हों। नहीं, उसने शायद एक मनुष्य की आँख में कुछ हलचल महसूस की थी। संभावित है कि शायद उसको देखकर एक आँख झपकी भी थी। शायद उन सूनी आँखों ने उसको पहचानने का प्रयास भी किया था। बसन्ती ने अपने लाजवश अपने तन को फटे-पुराने कपड़ों से ढकने का प्रयास किया पर-व्यर्थ। उन आँखों में संवेदनाएँ आकर वापस चली गईं। नहीं, जिन आँखों में संवेदनाएँ जागी थी, वह तो स्त्री के ही नयन थे। हाँ कुछ-कुछ स्त्री जैसी प्रतीत हो रही थी। तभी तो शायद उसका दिल बसन्ती के लिए धड़का होगा। पर बदलते वक्त ने शहर की औरत को भी बदल दिया था। उनके अन्दर की संवेदनाओं और भावनाओं को पाषाण सदृश कर दिया था। खैर ये सब गुजरे जमाने की बात थी। उस पर चिंतन व्यर्थ था। वैसे भी वह शहर भावनाएँ एकत्रित करने नहीं आयी थी, उसकी तो समस्या कुछ और ही थी।

     शहर में कहीं दुकानें न देखकर वह सोचने लगी- ’बड़ा ही अजीब शहर है, यहाँ तो सारे बाजार में ही वस्त्र नहीं मिल रहा। फिर स्त्रियाँ अपना तन ढकती कैसे होंगी!’’ वह विस्मित-सी खाली पड़े पूरे बाजार में घूमती रही। शहर का नयापन उसके मन में एक विस्मय भर रहा था। अनिश्चित-सी वह घूमती रही। निरूद्देश्य वह भटकती रही। आगे बढ़ने पर उसने अपने विचारों को नियंत्रित किया और उद्देश्यों को चिन्हित। वह यहाँ व्यर्थ नहीं आई है। उसे भी कुछ करना है। और ये विचार मन में आते ही नेत्रों में चमक लौट आयी और चेहरे पर तीज।

जब जीवन में कोई उद्देश्य आ जाता है, चाहे वह कितना भी छोटा हो, तो इंसान दुगने उत्साह से जीवन को जीने लगता है। पर इस विरानगी में जाये तो कहाँ जाये? तभी आगे बढ़ने पर उसे एक जगह एक इमारत बनती नजर आयी। वहाँ कुछ हलचल थी। कुछ लोग भी नजर आ रहे थे। वह उसी तरफ बढ़ गयी।

     वाकई एक भवन बन रहा था। भवन क्या मंदिर था। उसी का भूमि-पूजन हो रहा था। विशाल मंदिर की नींव रखी जा रही थी। औरतें भी इस पुनीत कार्य में जुटी हुई थीं। पर उसने गहन आश्चर्य से देखा कि औरतों के तन धूल और मिट्टी से सने हुए थें। दूर खड़ा एक चुस्त-दुरूस्त आदमी आँखों पर चश्मा पहने पारदर्शी वस्त्रों में ढका पूरे काम का मुआयना कर रहा था। हिम्मत बटोरकर वह आगे बढ़ी। अपनी रामकहानी कहकर उसने काम की गुहार लगाई। उस व्यक्ति ने बसंती को ऊपर से नीचे तक सरसरी निगाहों से देखा और एक फीकी हँसी हँस दिया।

     ’’कल से काम पर आ जाना।’’

     सूरज ढल चुका था। वह उसी मंदिर के अहाते में रात बिताने के विचार से ईंटों के ढेर के पास बैठ गई। उसके तन पर फटे-चिटे कपड़े थे। हवाओं का झोंका उसे बेपर्दा कर देना चाहता था। उरोजों को एक झीनी पारदर्शी साड़ी का आवरण पहना वह निश्चित हो निद्रा की गोद में सो गयी। निद्रा के आगोश में थकान को उतारकर वह कल की मेहनत के लिए पूरी तरह तत्पर हो गयी।

     दूसरे दिन प्रातः मर्दों और औरतों की भीड़ का वह हिस्सा बन गयी। उन्हीं औरतों के साथ वह भी काम करने लगी। जब मंदिर बनते काफी दिन बीत गए तो एक दिन उसने कान्ट्रेक्टर से अपने काम का हिसाब माँगा। कान्ट्रेक्टर ने शाम को आकर हिसाब चुकता कर देने का वचन दिया। शाम ढलते ही पैसे लेने के लिए वह कान्ट्रेक्टर साहब के बंगले पर पहुँच गई। आज उसके उद्देश्य की पूर्ति का पुर्नात दिन था। उसकी खुशी का पारावार न रहा।

     संयोग से कान्ट्रेक्टर साहब उसकी मजूरी का हि हिसाब निकाल रहे थे। हिसाब में तो उसको मजबूत होना ही चाहिए था।

     ’’क्या हुआ साहब?’’ जब इस औरत से रहा न गया तो थोड़ा सहमकर बोली।

     ’’समझ में नहीं आ रहा कि तुम्हारा हिसाब कहाँ गड़बड़ा रहा है। बात यह भी है कि मंदिर निर्माण हेतु तुम्हें भी कुछ दान करना होगा।’’ कान्ट्रेक्टर काफी देर सोचता रहा। उसके चेहरे के भावों को पढ़ पाना आसान न था।

     बसन्ती को एक झटका लगा। वह और दान... फिर पहले तो वह विस्मित हो ठेकेदार को देखती रही। उसे लगा कि ठेकेदार उसकी गरीबी देख उसका मजाक उड़ा रहे हैं। फिर वह जोर-जोर से हँसने लगी। उसकी हँसी थमने का नाम ही न ले रही थी। ऐसा उसके जीवन में कभी नहीं हुआ था जब उस गरीब से किसी ने दान माँगा हो। जब हँसी थमी तो भी ठेकेदार साहब के चेहरे पर दृढ़ता और स्पष्टता का भाव था और आँखों में एक खोज। उसको आर-पार देख सकने की जीत। उस पर एक पूर्ण एकाधिकार और वह काँप उठी। हँसी भी ठहर गयी और जोश थम गया। वह एक कोने में बैठकर गहन सोच में डूब गयी। वह हार गयी थी....। हारकर भी उसकी समझ में यह बात आ गयी कि मंदिर में लगी औरतें क्यों धूल से अपने तनों को ढके कार्य में लिप्त थीं। ये उनका मंदिर निर्माण के कार्य में छोटा-सा मूल्य था या फिर पेट की आग के आगे एक छोटी-सी भेंट....

     उसे भी तो गाँव वापस जाना है और जल्दी....

     इसी विचार-विमर्श के बीच एक काले भुजंग व्यक्ति ने कमरे में प्रवेश किया। उसके शरीर का रंग उस काली रात के रंग से भी स्याह था। अगर उसकी आँखों में एक अजीब-सी लाल चमक न होती तो उसको परिवेश से अलग कर पाना असंभव था। उस कृत्रिम चमक ने उसको एक चेहरा दिया था क्योंकि उसका शरीर तो नग्न था। हमाम में सब नंगे ही थे।

     बसंती को बातचीत के क्रम में पता चला कि यह व्यक्ति इस इलाके का बड़ा नेता है और इसी की देखरेख में यहाँ पर काम हो रहा है। मंदिर के नाम पर ये वोट का अपना प्रयोजन सिद्ध कर रहा है। उसने संयत स्वर में पूछा कि ’’इस मंदिर की नींव डालने में कितने शरीरों का प्रयोग हुआ है।’’ ठेकेदार अदब से बोला कि निर्माण कार्य में जितनी ईंटें लगीं उतने ही इन्सान। इसलिए मंदिर अब सिद्ध बनेगा क्योंकि इन्सानों ने नीचे बिछकर जगह को जाग्रत कर दिया है।

     उसके वचन सुन नेता टाइप आदमी स्वाभाविक रूप से हँसा। पहली बार इस औरत ने इस शहर में ओंठों पर हँसी देखी थी। नहीं तो बेजान आदमियों को देख-देखकर वह भी शून्य में प्रवेश कर रही थी। उसके अन्दर की भावना भी मरने लगी थी।

     अब बातों का केन्द्र बिन्दु मंदिर निर्माण न होकर उस औरत के निर्वाण पर आकर टिक गया। नेता तो नेता होता है। उसके पास तो हर समस्या का हल है..... क्यों-शायद सबसे बड़ी समस्या तो स्वयं वह ही होता है। कुछ भी हो नेता तो नेता ही होता है। इसीलिए आम और अवाम ने सोच का ही सर्वथा त्याग कर दिया है। क्या फायदा नाहक सोचने का। सोचने का बीड़ा तो नेताजी टाइप लोागें ने अपने ऊपर ले लिया था। अधिक दिमाग का इस्तेमाल....

     पौ फटने वाली थी। प्रातःकाल का प्रवेश होने वाला था और नये दिवस की शुरूआत। उस प्रभात की ज्योति के साथ नेताजी को एक हल मिल ही गया। औरत को उसकी साड़ी का एक हिस्सा कान्ट्रेक्टर को देना होगा, बतौर मुआवजा। निर्णय ले लेने की खुशी नेता के चेहरे पर थी। आत्मज्ञान का गौरव मस्तक का तीज होंठों की मुस्कराहट बन उभर रहा था। इसमें भी एक समस्या थी। साड़ी का कौन-सा हिस्सा उनको अर्पित होगा। तत्काल निर्णय आँचल पर आकर टिक गया।

     वह औरत इस बात पर अड़ गयी। नहीं वह आँचल का भाग नहीं दे सकती। आँचल तो उसके बच्चों का दूध ढकता था। तो देने लायक हिस्से पर विचार हुआ और बात आकर साड़ी के अग्र भाग पर ठहर गयी। औरत ने मस्तक नीचे कर बात मान ली और उस हिस्से को भेंट स्वरूप दे आगे बढ़ गयी।

     इस विराट शहर में एक आसरा था वह भी गया। वह मंदिर के दर बैठ गयी। प्रभातकाल में अंजलि भर पानी में स्नान करके पुजारी आ रहे थे। एक औरत को यूँ बैठा देख वह ठहरे।

     ’’क्या हुआ! तुम कौन हो?

     ’’मैं यहाँ साड़ी की तलाश में आयी, एक अभागिन हूँ।’’

     पुजारी थोड़ा देर उसकी तरफ देखते रहे। फिर मंदिर के अन्दर गये और एक गीता लाकर उसके हाथ में दे दी। उसको समझाते हुए बोले, ’’द्वापर युग में जब द्रौपदी को भरी सभा में चीर की आवश्यकता पड़ी थी उसने श्रीकृष्ण को पुकारा था। लो यह गीता तुम्हारी मदद करेगी।’’

     गीता को हाथ में पकड़े वह काफी देर बैठी रही। उसको उम्मीद थी कि शायद उस पुस्तक को पकड़ने मात्र से कुछ ईश कृपा होगी और उसके अन्दर से चीर अवतरित होगा। वह काफी देर बैठी रही और कुछ विशेष न होते देख वह पुस्तक को पकड़कर सड़क पर चीर की तलाश में आग बढ़ गयी। अभी वह थोड़ा आगे निकली ही थी कि पीछे से कुछ तीज स्वर ध्वनित हुए-

     ’’पकड़ो-पकड़ो। चोर....चोर...!’’

     इससे पहले कि वह औरत कुछ सँभल पाती भीड़ उसको ढकेलती हुई आगे ले गयी और थोड़ी दूर ले जाकर छोड़ दिया। पुस्तक अब भी उसके हाथ में थी और एक दारोगा उसके सामने आकर खड़ा हो गया। उसने सब लोगों से भिन्न प्रकार की पोशाक पहनी हुई थी। सफेद रंग की पोशाक में काले धब्बे थे।

धब्बे इतने ज्यादा थे कि सफेद रंग अदृश्य समान हो गया था। फिर भी कहीं-कहीं से उभरकर दिखने जैसा प्रतीत हो रहा था। पेट के ऊपर का हिस्सा पूर्ण रूपेण सफेद था पर हृदय स्थान पर काले धब्बे स्पष्ट थे।

     ’’क्यों चोरी की है। वह भी गीता की? हमारी गीता की चोरी करने का दंड तुम जानती हो क्या है? वह सजिल्द किताब है। हम लोग इसको इतना पवित्र मानते हैं कि इसका पठन नहीं करते हैं। इसको सिर्फ पवित्र अलमारी में गंगाजल से पवित्र कर, ताले में रखते हैं। इसकी चाभी सिर्फ यहाँ के पुजारी के पास रहती है और साल में एक दिन इसके दर्शन के रखा गया है। उस दिन यहाँ ढेर उत्सव होते हैं। और तुमने उस गीता को उठाकर सीने से लगाने की जुर्रत की। इसकी सजा तुम जानती हो!’’

     बतौर सजा उसको जेलखाने में डाल दिया गया। उससे पवित्र सजिल्द गीता लेकर वापस अलमारी में बंद कर दी गयी। दोपहर होने पर उसको जेलखाने के बाहर लाया गया और दारोगा ने उससे प्रश्न पूछना शुरू किया।

     ’’तुमको सुबह से बंधक रखना तो हमको भारी पड़ रहा है। तुमको एक रोटी जो सुबह खाने के लिए दी गयी थी उसका इंतजाम हम लोग कहाँ से करेंगे?’’

     हाँ सुबह एक रोटी तो उसको मिली थी। पर उसका एक टुकड़ा खाने के बाद उसे अपने बच्चों की याद हो आयी। उसने उस रोटी को अपने आँचल के कोने में कसकर बाँध लिया था। जिससे किसी की भी निगाह उस रोटी पर न पड़े। यहाँ से निकलकर ये रोटी वह अपने बच्चों के लिए ले जायेगी-

     उसने निगाह नीचे कर ली। दारोगा के सफेद पेट पर अब भी उसकी दृष्टि पड़ रही थी। दारोगा ने उस तरफ इशारा करके आदेश दिया।

     ’’ये कैसे भरेगा ?’’

     नहीं वह रोटी नहीं दे सकती। इस रोटी के असंख्य टुकड़े अनगिनत दिन तक उसके बच्चों का पेट भरेंगे।

     ’’तो ठीक है साड़ी का एक टुकड़ा उसका मूल्य चुका देगा।’’

     वह राजी हो गयी। स्वतंत्रता के लिए ये घाटे का सौदा न था। बात फिर इस पर आकर टिक गयी। स्वतंत्रता के लिए ये घाटे का सौदा न था। बात फिर इस पर आकर टिक गयी कि कौन-सा हिस्सा उनको दान स्वरूप दिया जाये। बात मध्यम भाग पर तय हो गयी। वह सहर्ष तैयार हो गयी। अब सिर्फ उसके पास आँचल बचा था। उस भाग को लेकर उसमें रोटी को कस के बाँधकर वह थाने से बाहर आ गयी। खुली हवा में उसने काफी समय के बाद पहली बार साँस ली थी। इस शहर में उसे एक बात अच्छी लगी कि कभी उसने यहाँ हवा का बवंडर चलते न देखा था। हवा हमेशा शान्त बहती थी। उसकी गति भी शायद तय और नियंत्रित थी।

     वह अभी शहर की परिधि पर पहुँचा ही थी कि इस शहर के एक नौजवान से उसकी भेंट हुई। अभी-अभी यौवन पर उसने कदम ही रखा था। इस शहर में पहली बार उसे श्वेत वस्त्र में कोई व्यक्ति दिखा था। इसका चेहरा भी लुप्त हो रही आदिम जाति जैसा था। कुछ-कुछ शक्ल पहचान में आ रही थी। ये शायद कोई लुप्तप्राय जीव का अवशेष था। उसके अन्दर संवेदनाएँ भी थीं। उसने पहल की-

     ’’चलिए मैं आपको आपके गाँव छोड़ देता हूँ। रास्ते में एक नई साड़ी भी ले दूँगा।’’

     वह उसके साथ हो चली। अफसोस शहर की परिधि के बाहर अभी उसने अपना चरण निकाला ही था कि कुछेक युवकों ने उसको रोक लिया।

     ’’ये हमारे शहर का नियम नहीं है।’’

     ’’क्या नियम नहीं है?’’

     ’’यही कि इस शहर का कोई भी युवक दूसरे शहर की युवती के साथ शहर की सीमाओं को पार करे। इसके लिए तुम दोनों को दंड मिलेगा। हमारे साथ तुमको न्यायाधीश के सम्मुख उपस्थित होना पड़ेगा।’’

     बसंती को उस युवक के साथ न्यायाधीश के सम्मुख उपस्थित किया गया। एक खाली कुर्सी के पीछे एक औरत की मूर्ति थी। उस श्वेत मूर्ति की आँखें काली पट्टी से बंद थीं। हाथ में एक तराजू था जिसका एक पलड़ा नीचे और एक ऊपर था।

     न्याय शुरू हुआ। इस शहर का न्यायाधीश अदृश्य व्यक्ति था। उसकी सिर्फ आवाज सुनायी देती थी। वह दिखायी नहीं देता था।

     ’’ हाँ क्या है मामला? न्याय की प्रक्रिया शुरू की जाय।’’

     ’’जी ये इस शहर के एक युवक के साथ शहर की सीमा पार कर रही थी। यही जुर्म किया है इसने।’’

     ’’नहीं, मैंने जुर्म नहीं किया है। इस युवक ने मेरे आगे पेशकश की थी कि यह मुझे गाँव छोड़ आयेगा। वहाँ मेरे बच्चे भूखें हैं। मैं उनके लिए रोटी लेकर जा रही थी।’’

     ’’पाप, तब तो तुमने महापाप किया है। शहर की रोटी गाँव लेकर जा रही थी। तुमको दंड मिलेगा। युवक की गलती भी नहीं है। जरूर एक स्त्री होकर तुमने उसको पथ-भ्रमित किया हागा। कोई पुरूष इतना साहसिक कदम उठा ही नहीं सकता है अगर स्त्री उसको न उकसाये।’’

     थोड़ी देर सभा-कक्ष में मौन रहा। सब न्याय की आवाज सुनना चाहते थे। न्यायाधीश अदृश्य था पर उसकी आवाज में दम था। कोई उसको काटने की जुर्रत नहीं कर सकता था।

     उसकी आवाज गूँजी, ’’पहला जुर्म जो कि युवक के शहर की सीमाओं का उल्लंघन करने का है उसके एवज में यह सजा है कि ये इस मूर्ति वाली औरत के हाथ का तराजू बराबर करेगी। जब तक तराजू के दोनों पलड़े बराबर नहीं हो जाते यह इस शहर को नहीं छोड़ सकती। दूसरा पाप जो शहर की रोटी गाँव ले जाने का इसने किया है उसकी सजा ये है कि ये आँचल सहित रोटी यहाँ न्यायालय में जमा कर देगी। इसके आँचल समेत रोटी जब्त की जाती है। न्याय खत्म हुआ। न्यायालय निरस्त।’’

     वह औरत मूर्ति वाली औरत की बंद आँखों पर खुले हाथ में झूल रहे तराजू को बराबर करने में लग गयी। कभी एक पलड़ा नीचे आ जाता तो कभी दूसरा। वह पूरा दिन पूरी रात और दूसरे पूरे दिन कोशिश करती रही। जब तराजू को बराबरी पर न ला सकी तो थककर बैठ गयी। रात घिरने को आ रही थी। अचानक जो बंवडर वह गाँव में छोड़ आयी थी वह शहर में चलने लगा। लोग अनायास बिगड़ गये मौसम के मिजाज से भयभीत हो गये। अफरातफरी मच गयी। उसी मगदड. में वह औरत सब लोगों की निगाह बचाकर शहर की सीमा पार कर गयी। वैसे भी अब वह शहर की अन्य औरतों से भिन्न न थी। उनसे बचने की भी जरूरत न थी। आँचल न्यायालय में जब्त हो जाने के बाद वह शहरी ही प्रतीत हो रही थी।

     वह गाँव की तरफ भागने लगी। उसको कितना वक्त लग गया इसका उसे ध्यान नहीं। पर जब पहुँची तो रात घिरने को आ रही थी। मौसम साफ था। बच्चे बाहर बुझे हुए चूल्हे की ठंडी अंगारों पर अपना माँस भून रहे थे। उसकी महक से उस औरत का सिर चकराने लगा। वह बेहोश होकर निढाल गिर पड़ी।

समाप्त

हाईवे की यात्रा

     हाईवे की यात्रा....ब्रेक का अनवरत चलना। बहुत मन बना हाईवे पर एक लांग ड्राइव के लिए निकले। रास्ता लंबा पर सुगम चुना। मौसम सुहाना था, हवा मन्द पर शीतल प्रतीत होती थी। आनन्ददायक यात्रा का अनुभव सुकून और हर्ष देने वाला था।

     हाॅर्न दे निकल पड़े यात्रा पर। बस थोड़ी हवा खाकर आ जाएँगे। रोड भी अच्छी बन पड़ी थी। लग रहा था कि बस फिसलते चले जाएँगे। गाना लगा आँख मूँद बैठ गए। अभी आँख लगी ही थी कि चर्र... स्टेयरिेंग पर एक झटका लगा। ब्रेक लगते-लगते भी गाड़ी काफी दूर तक घिसट गई। आँख किसी अनहोनी की आशंका से अचानक खुल गई। ऐसा प्रतीत हुआ मानो प्रलय आ गयी है या फिर जीवन में कुछ भयंकर घटित हो गया है। चर्र-हाँ वाकई एक कुत्ता था। नहीं, ऐसा कुछ नहीं था। एक मरियल-सा कुत्ता नौटंकी करता हुआ गाड़ी के नीचे आ गया था। कुत्ता वह भी कुपोषित। सरकार ने लगता है अभी कुपोषित जानवरों पर कोई अभियान नहीं छेड़ा है। नहीं तो बस एक कहानी बनती-एक कुपोषित कुत्ता गाड़ी के नीचे आकर मरा। शुक्र है कि मरा नहीं। कुत्ते को बचाते-बचाते भी गाड़ी का संतुलन बिगड़ गया था और वह सड़क पर मानो नशे की स्थिति में झूमने लगी। विडम्बना ऐसी कि वह कुत्ता इतनी भारी गाड़ी का भी दंश झेल गया। हाईवे का कुत्ता था, ट्रक के नीचे मरने की आदत जो थी। गाड़ी, स्कूटर तो बस खरोंच मारकर निकल जाती थीं। हाईवे के कुत्ते को मारने का माद्दा तो सिर्फ ट्रक में था। वह कोई मामूली जानवर तो था, नहीं जो हर ऐरे-गैरे से भिड़ जाए। हाईवे का कुत्ता था!

     खैर कुत्ते को लेकर अस्पताल तो भागना न था। बस ऊपर वाले का नाम लेकर उस मरियल कुत्ते को मरने के लिए वहीं छोड़ आगे बढ़ गए। अब लगा कि हाईवे पर आनन्द-ही-आनन्द आएगा। नींद थोड़ी देर के लिए उड़ गयी थी अतः बाहर दृष्टि डालकर दृश्यों का आनन्द लेने लगी।

     वाह क्या दृश्य है। एक के बाद एक कुटिया, झुग्गी-झोपड़ी, गरीबी, बदहाली। लगा कि सच में वास्तविक भारत गाँव में ही बसता है। देश की समस्त सार्थकता यहाँ चरितार्थ हो रही थी। अधनंगे बच्चे, भूख से सिकुड़ा पेटा। पर यह सब कब से मेरी समस्या हो गई? समाजसेवा तो नामीगिरामी लोगों का पेशा है। टीवी मिडिया की कवरेज उन्हीं को ही प्राप्त है। हम आम आदमी क्योंकर समाज का ठेका उठाएँ ? समाज ने हमें दिया ही क्या है?

     अभी मैं इसी मंतव्य पर मंथन करते हुए दृष्टिगोचर थी कि अचानक फिर ब्रेक लगा। इस बार लगता है मानो पूरे गाँव की गाय बिरादरी घूमते-घामते हुए अपने सहपाठी के विवाह भोज के लिए जा रही थी। किसी को हड़बड़ी नहीं थी। वक्त ही वक्त था। फिर क्यों हड़बड़ाया जाए। हर दृश्य का आनन्द लेते हुए बारात आगे बढ़ी जा रही थी। बड़े-बूढ़े उसमें सभी शामिल थे। उनको देखकर ’विलियम वर्डसवर्थ’ की एक कविता की पंक्तियाँ स्मरण हो आती थीं कि हमारे पास कब समय है खडे होकर प्रकृति का आनन्द लेने का पर यहाँ इन भैंसों और उनको हाँकने वाले मालिक से इस सैद्धांतिक समस्या का हल यह मिला कि सारी समस्या का समाधान स्वयं के पास है। अगर हम खड़े होकर ताकना चाहेंगे तो ताकेंगे, झाँकना चाहेंगे तो झाँकेंगे, इस पर सिर्फ हमार अधिकार है। चूँकि इस देश में रहकर हम अपने हर अधिकार का उपयोग नहीं करना चाहते तो यह हमारी समस्या है।

     वैसे समाज में अक्सर देखने में आता है कि समाज जरूर रखवाला बन हर एक के जीवन में ताका-झाँकी करता है। वह अपनी इस अहम् म्हती भूमिका से कब पीछे हटा है यह उसको ज्ञात नहीं। समाज प्रहरी बन इस पर कड़ा अंकुश रखता है कि पुरूष जरूर मतवाला हो जाए पर स्त्री को लक्ष्मण-रेखा पार करने का विचार भी नहीं आना चाहिए। औरत को डायन घोषित करने में समाज कभी भी पीछे नहीं हटा। अगर दो-चार चुड़ैलें समाज में छुट्टे नहीं घूमेंगी तो फिर बच्चे भय किसका खाएँगे? भूत आया-भूत आया कहकर दादी माँ किसको दूध पिलाएँगी? समाज की संरचना कहानी-कविताएँ बनना ही बंद हो जाएँगी। इसलिए आज भी समाज में भूतों, डायनों, चुड़ैलों आदि को जिन्दा रखकर इस सभ्य समाज को भयभीत करने का अधिकार समाज ने सुरक्षित रखा है। पर मुझे आज तक यह बात गले के नीचे नहीं उतरी कि जब समाज चुडै़लों को निर्वस्त्र कर और कीचड़ खिला अपमानित करता है तो वह चुड़ैल जो इतनी शक्तिशाली रहती है कि किसी को भी स्वाहा कर सकती है, वह उस समाज का बाल भी बाँका क्यों नहीं कर पाती? अपमान सहते हुए समाज के सामने बेइज्जत हो जाती है। है न हास्यास्पद कि कौन बड़ा-चुड़ैल, डायन या समाज और इसी समाज में जाँति-पाँति का साँप फन फुफकारता हुआ कभी भी डसने को तैयार रहता है पर विडम्बना यह है कि जब कभी किसी शोषित-उपेक्षित को अधिकार देना होता है तो यही समाज नाक, आँख, कान बंद कर लेता है और सिर्फ अपना मुँह खोल उनकी निन्दा करता है।

     जैसे बंदर क्या जाने अदरक का स्वाद, वैसे ही भैंस के आगे बीन बजाने का क्या फायदा-वैसे भी समाज के आगे राग अलापने का कोई फायदा नहीं। समाज तो बंदर और भैंस से भी गया-बीता है। उसका तो सिर्फ अपना ही राग है और वह अपनी ही धुन अलापता है।

     खैर धीरे-धीरे करके अपनी गति से वे गाय-भैंस आगे निकल गई। उनको जाने में जितना वक्त और रास्ता देने में समय लगा उतने में तो एक क्रान्ति की बिगुल फुँक गयी होती।

     भैंसों को रास्ता दे, हम आगे बढ़े। निश्चिन्त थे कि मार्ग बढ़िया है। अब कुछ दिक्कत नहीं होगी। अपना वाकमैन कान से लगाया और संगीत का आनन्द लेते हुए रास्ते नापने लगे। एक-दो-तीन और यह क्या! चर्र से गाड़ी का ब्रेक फिर से लगा और ऐन उसी वक्त जब संगीत का स्वर अपने चरम पर था-उसकी ध्वनि में यह अहसास ही न हो पाया कि कब एक झटका लगा और मेरा सिर गाड़ी के आगे वाली सीट से जा टकराया।

     दर्द का अहसास बाद में होता पहले तो एक डाँट का स्वर ड्राइवर के लिए निकला। पर उस बेचारे की भी क्या गलती थी। सामने एक लहराता हुआ साइकिल वाला झूमता मदमस्त रास्ता पार कर रहा था। जाहिर है कि हर नागरिक का सम्मान होना चाहिए। उसका भी हुआ। कम-से-कम उस साइकिल सवार की स्थिति उस कुत्ते से तो बेहतर ही थी।

     चलो जो हुआ सो हुआ। गाड़ी ने फिर अपनी गति पकड़ी थी। एक बार गति अवरूद्ध हो तो शुरू किया जा सकता है पर बार-बार अवरूद्ध हो तो लय और ताल में तारतम्य खत्म-सा हो जाता है। मूड भी कुछ-कुछ आॅफ होने लगा था। आगे जाने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी। वापसी का सफर भी लंबा था। एक बार सफर में जो निकल जाओं तो वापसी की राह कठिन होती है। फिर भी वापस तो जाना ही था।

     चलो अब तो घर वापस पहुँचेंगे। घर पहुँचने की हड़बड़ी और उत्तीजना सुकून प्रदान करने वाली होती है।

     अब आगे तो न जा पायेंगे पर कम-से-कम घर तो सकुशल पहुँच पायेंगे। हाईवे के इस आनंद में गाँव के भी दर्शन हो गये। भारत देश की आत्मा तो गाँव में बसती है। वास्तविक दर्शन करना हो तो गाँव की ओर जाओ। हम नहीं कह रहे। चूँकि राष्ट्रपिता का सपना था कि गाँव-गाँव की ओर हर भारतीय नागरिक की उन्मुख होना चाहिए तो कम-से-कम इतना आत्मिक सुकून तो आया कि हम गांधीजी के पदचिन्हों पर आज की तारीख में भी चलने का प्रयास करते हैं। नही ंतो आम और खास नागरिक ने उनको भूलकर, उनकी यादों को मात्र रूपये, चैराहों और पार्कों तक सीमित कर दिया है। आप हर शहर के सबसे प्रतिष्ठित पार्क में चहलकदमी कर रहे होंगे, वहीं गांधी मैदान होगा। और जिस चैराहे पर अंग्रेजी हुकूमत का कभी परचम लहराया होगा वह भी गांधी चैराहा होगां हर पल गांधीजी को जीने के बाद भी हम अभी तक गांधीजी के आदर्शों को न जी पाये। मुझे सुकून हुआ कि कम-से-कम आनंद के बहाने ही सही मैं गांधीजी की राह पर कुछ डग चल पाई और उनके सपने को जी पाई।

     गाँव के कच्चे-पक्के रास्ते, उस पर टूटी-फूटी झोपड़ियाँ, अधनंगे बच्चे, यौवन की दहलीज पर घुटी हुई माँ, पोपले मुँह की बुढ़िया! काश मेरे पास कैमरा होता तो मैं इन सबका फोटो खींच लेती और इन्टरनेशनल मैगजीन को ऊँचे दामों में बेचती। सैर के बहाने कुछ पैसा भी आ जाता। अब पछताए होत क्या जब चिड़िया चुग गईं खेत। चलो अभी भी देर नहीं हुई है। इस देश में ऊपर वाले की असीम कृपा से विकास की दर काफी स्लो है। ऊपर वाले से मेरा तात्पर्य ईश्वर से भी है और ऊपर बैठी सरकार से भी है। ऊपर वाले ईश्वर पर आम भारतीय नागरिक की इतनी असीम आस्था है कि जब वो देता है तो छप्पड़ फाड़कर देता है। देश की जनसंख्या इसका ज्वलंत उदाहरण है। ईश्वर अपने नेक बन्दे को सिर्फ खाने के लिए एक मुँह देता है पर कमाने के लिए दो हाथ। और सरकार, वह तो हर पाँच

हर पाँच साल में संपूर्ण आश्वासन देने आती ही है वरन् सरकार को तो अपने आम और अवाम का इतना खयाल है कि वह स्वयं अपने महल को छोड़ अवाम के बीच उसका हाल-चाल पूछती है। ऊपर वाले सर्वदा नेक ही होते हैं। देते हैं तो खजाना ही लुटा देते हैं।

     मेरा सफर तो वापसी का था। अभी खयालों के पुलाव में मैं विचरण कर ही रही थी कि गाड़ी ब्रेक लगते-लगते भी एक तरफ लुढ़क गई। जब तक मैं समझ पाती कि गाड़ी खड्डे में थी। हुआ कुछ गोया यूँ था कि सड़क को खेल का मैदान समझकर गाँव के कुछ तीज-तर्रार बच्चे भागम-भाग करते हुए गाड़ी के नीचे आने ही वाले थे कि गाड़ी भी खेलने को उतावली हो गयी। वह भी उनके चक्कर में लुढ़कती-पुढ़कती सड़क पर अठखेलियाँ करती खड्ड में जा गिरी। असल में दोष उन बच्चों का न था। दोष तो प्रारब्ध का था। हमारे देश में सब-कुछ प्रारब्ध का ही खेल है।

     देश में अभी तो खेल की मानो बयार ही बह रही है। आईपीएल, सानिया मिर्जा सब के सब जुटे हुए हैं, देश को ’’चकदे’’ कर देने के लिए। ’’गोल पर गोल’’ दागा भी इसलिए जा रहा है कि यहाँ का आधा पेट खाया हुआ बालक देश का भावी कर्णधार बने और देश को इन्टरनेशनल पटल पर पहुँचाने का भरसक प्रयास करे। जब से ग्लोबलाइजेशन का जमाना आ गया है तब से हर गाँव ग्लोबल विलेज बन गया है। पता नहीं कब इस विलेज से उठकर कोई भिखमंगा देश का भावी सितारा बने। ’’कोटा राज’’ में तो अब सब-कुछ जायज है। खैर सैर का आनंद लेने के चक्कर में गाड़ी खड्डे में जा गिरी। हमारे देश में अगर यह खबर मिडिया को हो जाये तो मैं रातोंरात सैलिब्रिटी बन जाऊँ। गाँव में अभी आर्मी को बुलाना पड़ेगा और वह घंटों के अथक प्रयास के बाद मिडिया की पैनी निगाह में मुझको और मेरे ड्राइवर को बाहर निकालती। शायद ऐसा न भी होता क्योंकि मैं कोई बालक तो हूँ

नहीं, व्यस्क हूँ। वयस्क को मरने के लिए छोड़ दिया जाता है। मेरे अपने लिए तो जिन्दगी की ढेर कीमत है। लिहाजा मैं अथक हाथ-पैर मार रही हूँ, और अपने को गड्ढे से निकालने के लिए मैं जीवन की जद्दोजहद तक जुटी हुई हूँ।

     कभी-कभी गोया बस यह चन्द खयाल लम्हों में आते हैं कि शायद यह खड्ड हमारे देश की उसी व्यवस्था की तरह है जिसमें गिरने के बाद बमुश्किल कोई तैर किनारे लग पाता है।

     हम भी खड्ड में गिरे छटपटा ही तो रहे हैं।

The battle won or the battle lost

These are real names and real beings,
The war took place within each of us,
Small battles fought small battles won,
Small enemies sought and their ends were done.

When real soldiers fought at the borders end,
We sat and thought,coins tossed.
Who the real enemies of the border were.
Was it only soldiers and soldiers at the battle front.

The countries fought and the soldiers dead,
And countries fought and the soldiers dead.
The gushing blood from the mother's son,
The tear wetted the front, with some dear one's.

All eyes were wet and every one wept When the soldiers near & far met, in their conffn's net. It is the same history repeated all over again, The battle begins from within us and surfaces on the ground

The ego's of the leaders met, when the soldiers wives wept.
In the cold frozen night when the memories,
Which were, at the back of the mind kept.
And the son got up with a shivering pain

O Ma! There out & out in the rain

I saw my Papa,
Out of the coffin and with open hands.

Come my son and rest your head
Awaken awaken O! My child
And waken the world with your cry.
To the Battle we lost....

Adding to the Loss of human lives,
The countries win& the countries fight.
At the altar is the human life,
And what remains in the end.

The Emptiness and Darkness within,
When your hands wants to meet mine
The heart aches for thine,
Though there is a vast space between us.

One which remains between the countries which which dine
After the battle is over and they
Act as friends of human kind

But I am there my child for thee.
Remember my heroic history.
For battle won or battle lost
It was the 'real' soldier who fought
To preserve their country's destiny.

Thse are real names and real beings
Who fought and fought till the end
To preserve their country's destiny.

समाप्त